बजट एक वित्तीय वर्ष के लिए सरकार की आमदनी और खर्च का अनुमान है - महज एक वित्तीय जानकारी। लेकिन बजट न सिर्फ वित्तीय अनुमानों की रूपरेखा तैयार करता है, बल्कि यह किसी सरकार का एक पॉलिसी दस्तावेज भी होता है। इसमें टैक्स, छूट और आवंटन पर सरकार की सोच का पता चलता है। यह स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, सामाजिक सुरक्षा के लिए सब्सिडी भी तय करता है। लेकिन देश में मध्य वर्ग ऐसा समूह है, जिसे बजट से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें होती हैं।
बजट 2025 ऐसे समय आ रहा है जब रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हो चुका है। यूएस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से टैरिफ खतरों और सुस्त घरेलू मांग जैसी चुनौतियों का समाधान करना पड़ रहा है। बजट में उपभोग को बढ़ावा देने, आर्थिक विकास का समर्थन करने और राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करने की ज्यादा लग रही है। वित्त वर्ष 2025 के लिए राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 4.7-4.8 प्रतिशत अनुमानित है, जो बजट अनुमान 4.9 प्रतिशत से थोड़ा कम है।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में केंद्रीय बजट का आकार सिकुड़ रहा है। 2009-2010 में 17.43 प्रतिशत से घटकर 2024-2025 में 14.76 प्रतिशत हो गया है। सरकार के राजकोषीय घाटे पर ध्यान केंद्रित करने और उम्मीद से कम जीडीपी वृद्धि के कारण इस गिरावट की प्रवृत्ति में बदलाव की संभावना नहीं है।
भारत में अधिकांश लोगों की अपेक्षाएँ समझ में आती हैं। यहाँ कुल आबादी का गरीब (9.7 प्रतिशत) और निम्न-आय (84 प्रतिशत) श्रेणियाँ ही 93.7 प्रतिशत हैं। इसमें भी निम्न आय वाला मध्य वर्ग सबसे महत्वपूर्ण है। क्या बजट उस समूह को देखकर बनता है?
आय के स्तर के आधार पर, प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, देश में 134 मिलियन (जनसंख्या का 9.7 प्रतिशत) गरीब हैं जिनकी प्रतिदिन आय 2 डॉलर से कम है। इसी तरह, 1,162 मिलियन (84 प्रतिशत) निम्न-आय वर्ग में हैं जिनकी आय $2 और $10 प्रति दिन के बीच है; $10 से $20 आय वाले 66 मिलियन (4.8 प्रतिशत) मध्यम आय वर्ग के व्यक्ति; 16 मिलियन (1.2 प्रतिशत) उच्च-मध्यम वर्ग के व्यक्ति जिनकी प्रतिदिन आय $20 से $50 है; और दो मिलियन (0.1 प्रतिशत) उच्च आय वाले व्यक्ति जिनकी प्रतिदिन की आय $50 से अधिक है। बहुत साफ है कि निम्न आय वर्ग वाले मध्य वर्ग समूह की रोजाना आमदनी दो डॉलर से लेकर 10 डॉलर और उससे ऊपर है।
आर्थिक विकास के दावों के बावजूद, असमानता बदतर होती जा रही है। पीपल रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी (PRICE) अध्ययन के अनुसार, 2022-23 तक, शीर्ष 1 प्रतिशत भारतीयों के पास देश की आय का 22.6 प्रतिशत और 40.1 प्रतिशत संपत्ति का स्वामित्व था (विश्व असमानता लैब, मार्च 2024)। इस बीच, अरबपतियों की संख्या 1991 में एक से बढ़कर 2011 में 52 हो गई और 2022 में और बढ़कर 162 हो गई।
इसी तरह, मध्यम वर्ग को अपने बैंक जमा के ब्याज पर कोई टैक्स नहीं लगने की उम्मीद है क्योंकि यह उनकी आय का कमजोर स्रोत है। सरकार को सिस्टम में अधिक जमा को प्रोत्साहित करना चाहिए और ब्याज आय पर करों से हतोत्साहित करने के बजाय उन्हें उत्पादक रूप से उपयोग करना सीखना चाहिए। अमीर भी अधिक रियायतें चाहते हैं ताकि व्यापार करने में आसानी हो वे भी पारदर्शिता की उम्मीद करते हैं। लेकिन मध्यम वर्ग तो सिर्फ टैक्स पर रियायत चाहता है।
युवा बेरोजगार तो पूरे देश में संघर्षरत हैं। अब जो रोज़गार आ भी रहे हैं उनकी गुणवत्ता चिंता पैदा करती है। देश में पैदा होने वाला 90 प्रतिशत से अधिक रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है। ग्रैजुएट, पोस्ट ग्रैजुएट भी अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार तलाशने को मजबूर हैं। स्थिति भयावह है। सरकारी नौकरियों पेपर लीक से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं।
इसके अलावा, किसानों की परेशानियां और उनकी कम आय का समाधान नहीं हुआ है। लगभग 92 प्रतिशत कृषि जोत छोटी और सीमांत हैं। किसानों की पारिवारिक आय का मासिक औसत 10,695 रुपये है। एनएसएस सर्वेक्षण 2019 के अनुसार, फसल उत्पादन से किसान को 5,298 रुपये मिलते हैं, और बाकी मजदूरी और उससे जुड़ी गतिविधियों से आता है। यह स्थिति भी हर राज्य में अलग अलग है। मसलन पंजाब के किसानों की आमदनी और बिहार-यूपी के किसानों की आमदनी में जमीन आसमान का फर्क है। लेकिन महंगे खाद-बीज-पानी तो सभी को प्रभावित करते हैं।
इसी तरह शिक्षा और स्वास्थ्य का तो कहें ही क्या। उनका बेड़ा गर्क हो चुका है। स्वास्थ्य और शिक्षा बुनियादी जरूरतों में आते हैं। लेकिन उनकी गुणवत्ता खराब और अपर्याप्त हैं। सरकार का बजट इनके लिए बढ़ना चाहिए लेकिन वो घटता जा रहा है। आंकड़े कुछ भी बताते रहें। यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि खराब बजट, राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत तक सीमित करने पर ज्यादा ध्यान देने, आर्थिक नीतियों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता कभी गरीब समर्थक बजट नहीं दे सकती है। इसलिए, अधिकांश आबादी यहां-वहां कुछ मामूली लाभों को छोड़कर टैक्स व्यवस्था या अन्य रियायतों में किसी भी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं कर सकती है।
(इस रिपोर्ट का संपादन यूसुफ किरमानी ने किया)
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