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ऐसे समय जब इसलामी राज्य पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून (एंटी ब्लासफ़ेमी लॉ) के ख़िलाफ़ जनमत बन रहा है और कई मुसलिम बहुल देशों में भी इस तरह का क़ानून नहीं है, भारत में इसे लागू करने की माँग उठ रही है।
ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 'पवित्र लोगों के प्रति बढ़ रहे अपमान' पर चिंता जताते हुए इसकी माँग की है।
बोर्ड के महासचिव मौलाना सैफ़ुल्ला रहमानी ने कहा कि सभी धर्मों को इसके तहत लाया जाए और 'सभी धार्मिक व्यक्तियों, पवित्र धर्म ग्रंथों और धर्मों की रक्षा उन पर होने वाले हमलों से की जाए।'
इसके साथ ही पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक बार फिर समान नागरिक संहिता यानी यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को खारिज कर दिया है। उसने कहा है कि यह संविधान में दिए धार्मिक आज़ादी के अधिकार का उल्लंघन है।
मौलाना ने कहा कि कानपुर में बोर्ड की एक बैठक हुई, जिसमें यह फ़ैसला किया गया। उन्होंने सभी धर्मों की बात कही, पर साफ है कि उनका मक़सद इसलाम के ख़िलाफ़ होने वाली टिप्पणियों को रोकना और ऐसा करने वालों को सज़ा दिलाना है।
ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक बयान में कहा,
“
भारत ऐसा देश है, जहाँ कई धर्म हैं और सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालने करने और उसके अनुरूप काम करने की छूट की गारंटी दी गई है।
ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड
ईशनिंदा क़ानून से तात्पर्य ऐसे क़ानून से है, जिसके तहत किसी धर्म, धार्मिक व्यक्ति, पैगंबर, पवित्र ग्रंथ वगैरह का अपमान करने वालों के लिए सज़ा का प्रावधान हो।
पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून इसके वजूद में आने के पहले से ही है। इसे सबसे पहले ब्रिटिश शासनकाल के दौरान वर्ष 1860 में संहिताबद्ध किया गया था और वर्ष 1927 में इसमें विस्तार कर कई नई बातों को शामल किया गया।
विभाजन के बाद पाकिस्तान ने इसे अपना लिया।
पाकिस्तान में ज़िया-उल हक़ के सैन्य शासन के दौरान जब कट्टरपंथी ताक़तों को बढावा मिला, सलाफ़ी इसलाम का प्रभाव बढ़ा और सऊदी अरब की मदद से धड़ल्ले से मदरसे खुलने लगे, ज़्यादा से ज़्याद मसजिदें बनने लगीं, ईशनिंदा क़ानून को नया बल मिला।
इसमें 1980 से 1986 के बीच और धाराएँ शामिल की गईं। सरकार इसलामीकरण करना चाहती थी और वर्ष 1973 में अहमदिया समुदाय को ग़ैर-मुसलिम समुदाय घोषित किया गया था।
ब्रितानी शासनकाल के दौरान बनाए गए ईशनिंदा क़ानून के तहत अगर कोई व्यक्ति जानबूझकर किसी पूजा करने की वस्तु या जगह को नुक़सान या फिर धार्मिक सभा में खलल डालता है तो उसे सज़ा देने का प्रावधान था। अगर कोई किसी की धार्मिक भावनाओं का अपमान बोलकर या लिखकर या कुछ दृष्यों से करता है तो वह भी गैरक़ानूनी माना गया।
इस क़ानून के तहत एक से 10 साल तक की सज़ा दी सकती थी, जिसमें जुर्माना भी लगाया जा सकता था। वर्ष 1980 की शुरुआत में पाकिस्तान की दंड संहिता में धार्मिक मामलों से संबंधित अपराधों में कई धाराएँ जोड़ दी गईं।
इन धाराओं को दो भागों में बाँटा गया- जिसमें पहला अहमदी विरोधी क़ानून और दूसरा ईशनिंदा क़ानून शामिल किया गया।
अहमदिया विरोधी क़ानून 1984 में शामिल गया था। इस क़ानून के तहत अहमदियों को खुद को मुसलिम या उन जैसा बर्ताव करने और उनके धर्म का पालन करने पर प्रतिबंध था।
ईशनिंदा क़ानून को कई चरणों में बनाया गया और उसका विस्तार किया गया। वर्ष 1980 में एक धारा में कहा गया कि अगर कोई इसलामी व्यक्ति के खिलाफ़ अपमानजनक टिप्पणी करता है तो उसे तीन साल तक की जेल हो सकती है।
लेकिन सबसे विवादास्पद बदलाव वर्ष 1982 में किया गया जब एक और धारा में कहा गया कि अगर कोई व्यक्ति कुरान को अपवित्र करता है तो उसे उम्रकैद की सज़ा दी जाएगी। वर्ष 1986 में अलग धारा जोड़ी गई जिसमें ये कहा गया कि पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ ईशनिंदा के लिए दंडित करने का प्रावधान किया गया और मौत या उम्र कैद की सज़ा की सिफारिश की गई।
पाकिस्तान में इस पर कई बार कई तरह के कांड हो चुके हैं, पर सबसे अधिक विवाद आसिया बीबी के मुद्दे पर हुआ था।
आसिया बीबी एक ईसाई महिला हैं। दो मुसलिम महिलाओं से उनका झगड़ा हो गया था, जिसके बाद इन महिलाओं ने आसिया पर पैग़म्बर मुहम्मद के बारे में अपशब्द बोलने का आरोप लगा दिया था।
यह मामला जून 2009 का है। साल भर बाद नवम्बर 2010 में निचली अदालत ने आसिया को ईशनिन्दा का दोषी पाया और उन्हें फाँसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा के ख़िलाफ़ चौतरफ़ा आवाज़ उठी थी और वैटिकन समेत तमाम मानव अधिकार समूहों ने आसिया को फाँसी न दिए जाने की अपीलें की थीं। पाकिस्तान के कट्टरपंथी धार्मिक संगठनों ने आसिया को फाँसी की सज़ा का पुरज़ोर स्वागत किया था।
कट्टरपंथियों ने इस मामले में कैसा ख़ौफ़नाक माहौल बनाया था और लोगों के दिमाग़ में किस तरह ज़हर घोलने का काम किया था, इसका अन्दाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2011 में आसिया के समर्थन में आगे आए पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उनके ही सुरक्षाकर्मी मुमताज़ क़ादरी ने कर दी। बाद में मुमताज़ को इस जुर्म में 2016 में फाँसी दे दी गई।
पाकिस्तान दुनिया का ऐसा अकेला देश नहीं है जहाँ ईशनिंदा क़ानून हैं। अमेरिकी शोध संस्थान प्यू रिसर्च की 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 26 फ़ीसदी देशों में धर्म के अपमान से जुड़े क़ानून हैं, जिनके तहत सज़ा के प्रावधान हैं।
इन देशों में ईशनिंदा के आरोप के तहत जुर्माना और क़ैद की सज़ा के प्रावधान हैं, लेकिन सऊदी अरब, ईरान और पाकिस्तान में इस अपराध में मौत तक की सज़ा का प्रावधान है।
सलाफी इसलाम वाले देश सऊदी अरब में इसलाम क़ानून शरिया लागू है। सऊदी अरब में लागू शरिया क़ानून के तहत ईशनिंदा करने वाले लोग 'मुर्तद' यानी 'धर्म को न मानने वाले' घोषित कर दिए जाते हैं जिसकी सज़ा मौत है।
शिया बहुल देश ईरान में 2012 में बनी नई दंड संहिता में ईशनिंदा के लिए एक नई धारा जोड़ी गई थी। इस नई धारा के तहत धर्म को न मानने वाले और धर्म का अपमान करने वाले लोगों के लिए मौत की सज़ा तय की गई है।
नई संहिता की धारा 260 के तहत कोई भी व्यक्ति अगर इसलाम के पैगंबर या किसी और पैगंबर की निंदा करता है तो उसे मौत की सज़ा दी जाएगी।
इसी धारा के तहत शिया फ़िरक़े के 12 इमामों और इसलाम के पैगंबर की बेटी की निंदा करने की सज़ा भी मौत है।
मिस्र के संविधान में 2014 में हुए अरब में सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बाद संशोधन किया गया है। इसके तहत इसलाम को राष्ट्रीय धर्म का दर्जा दिया गया है और अन्य धर्मों को वैध माना गया है।
मिस्र की दंड संहिता की धारा 98 के तहत पर ईशनिंदा पर प्रतिबंध है और इस क़ानून का उल्लंघन करने वालों को कम से कम छह महीनों और अधिकतम पाँच साल तक की सज़ा हो सकती है।
दुनिया की सबसे बड़ी मुसलिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया में सरकारी नज़रिए के मुताबिक सिर्फ़ एक ख़ुदा पर यक़ीन किया जा सकता है।
पूर्व राष्ट्रपति सुकार्णो ने 1965 में इशनिंदा के क़ानून को धारा ए-156 के मसौदे पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन इसे राष्ट्रपति सुहार्तो के शासनकाल में 1969 में लागू किया गया था।
इस क़ानून के तहत देश के सरकारी धर्म इसलाम, ईसाइयत, हिंदू धर्म, बौद्ध मत और कन्फ्यूसिज़्म से अलग होना, या इन धर्मों का अपमान करना, दोनों को ही ईशनिंदा माना गया है। इसकी ज़्यादा से ज़्यादा सज़ा पाँच साल क़ैद है।
मलेशिया की दंड संहिता भी पाकिस्तान की दंड संहिता की ही तरह मूल रूप से अंग्रेज़ों की बनाई हुई दंड संहिता पर ही आधारित है। दोनों ही देशों में ईशनिंदा से जुड़े क़ानून बहुत हद तक मिलते जुलते हैं।
मलेशियाई दंड संहिता की धारा 295, 298 और 298-ए ईशनिंदा से जुड़ी हैं। इनके तहत किसी भी धर्म के धर्मस्थल का अपमान करना, धर्म के आधार पर समाज में फूट पैदा करना या लोगों को उत्तेजित करना, जानबूझकर किसी भी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाना अपराध है।
इसके तहत अधिकतम तीन साल की सज़ा हो सकती है और जुर्माना लगाया जा सकता है। यानी, पाकिस्तान की तरह मौत की सज़ा का प्रावधान नहीं है।
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