आज़ादी के बाद से ही अशांत रहने वाला पूर्वोत्तर एक बार फिर विस्फोटक स्थिति में पहुँच गया है। नगालैंड में शनिवार की शाम हुई फायरिंग, उसके बाद हिंसा व असम राइफ़ल्स व दूसरे जगहों पर हुए हमलों ने पूर्वोत्तर के 'फ़ॉल्ट लाइन्स' को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
वहाँ नगा विद्रोहियों के साथ एक दशक से भी लंबे समय से चल रही बातचीत एक बार अधर में लटक सकती है और अफ़्सपा जैसे क़ानून रद्द करने की माँग तूल पकड़ सकती है।
इसके अलावा असम, त्रिपुरा और मणिपुर में चल रहे छिटपुट अलगाववादी आन्दोलनों को भी बल मिल सकता है। हाल यह है कि पूर्वोत्तर एक बार फिर सुलग सकता है।
कोन्याक कबीले का गुट
बीते दो साल की बातचीत का यह नतीजा निकला था कि खांगो कोन्याक और निकी सुमी के गुट इस बातचीत में शामिल हो गए थे। सुमी गुट एनएससीएन (खापलांग) का हिस्सा था जबकि खांगो कोन्याक का गुट एनएससीएन (आई-एम) में रहते हुए भी बातचीत को आत्मसमर्पण मान रहा था।
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भारत विरोधी नैरेटिव
नगालैंड में एक भारत विरोधी नैरेटिव शुरू से ही है और भारतीयों को मोटे तौर पर वे लोग बाहरी मानते हैं। जब भारत सरकार से 1997 में बातचीत शुरू हुई थी तो उन्होंने इसे 'नगा-भारत बातचीत' का नाम दिया था। थ्योलोंग मुईवा और इसाक चिसी स्वू दोनों ने ही इसे 'नगा-भारत दोस्ती' का सबूत बताया था। यानी वे खुद को भारतीय नहीं मानते थे और इस बातचीत को 'दो राष्ट्रों के बीच की बातचीत' कहते थे। भारत ने इस स्टैंड को स्वीकार भी कर लिया था।
अब जबकि इतना बड़ा कांड हो गया है और निर्दोष आम नागरिकों के बग़ैर किसी उकसावे के मारे जाने का आरोप लग रहा है तो यह भावना और भड़केगी। कोन्याक यूनियन के दफ़्तर पर हमला इसी भावना के भड़कने का उदाहरण है।
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वार्ता अधर में?
अब किसी भी नगा गुट के लिए बातचीत को आगे रखना कम से कम कुछ समय के लिए मुश्किल होगा। इसे इससे समझा जा सकता है कि कोन्याक यूनियन और दूसरे कई गुटों ने साफ कहा है कि वे राज्य सरकार के ख़िलाफ़ नहीं है, क्योंकि यह फायरिंग केंद्रीय सुरक्षा बलों ने की है, जिन पर राज्य का नियंत्रण नहीं है।
हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल
इसी तरह वहां चल रहे सालाना सांस्कृतिक उत्सव हॉर्नबिल फ़ेस्टिवल का छह नगा कबीलों ने बॉयकॉट कर दिया है।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब जो गुट भारत सरकार के प्रति नरमी रखते थे या लड़ते लड़ते थक जाने की वजह से समझौता चाहते थे, उनकी राह मुश्किल हो गई है।
क्या कहना है एनएनपीजी का?
नगा नेशनल पीपल्स ग्रुप (एनएनपीजी) इनमें से एक है। अब वह भी बातचीत से पीछे हट रही है।
एनएनपीजी की स्टैंडिंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित कर कह दिया है कि यह साफ हो गया है कि नगाओं को भारत से न्याय कभी नहीं मिल सकता है।
एनएससीआईएन ने तो बकायदा एलान कर दिया है कि 1997 का भारत-नगा समझौता बहुत बड़ी भूल थी।
बता दें कि इस समझौते में नगा गुट संघर्ष विराम पर राजी हो गए थे, सुरक्षा बलों पर हमले रोकने और केंद्र सरकार से बातचीत करने पर राजी हो गए थे। अब वही गुट इसे बहुत बड़ी भूल बता रहा है।
अफ़्सपा पर सवाल
इसके साथ ही आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट 1956 यानी अफ़्सपा को रद्द करने की मांग भी जोर पकड़ रही है। दरअसल, जिस समय इसे लागू किया गया था, निशाने पर पूर्वोत्तर के राज्य ही थे और यह कहा गया था कि प्रतिकूल स्थितियों काम करने की वजह से सुरक्षा बलों के विशेष अधिकार मिलने चाहिए। बाद में इसे बढ़ा कर जम्मू-कश्मीर तक कर दिया गया।
अफ़्सपा के ख़िलाफ़ लोगों के गुस्से को समझा जा सकता है। एनएनपीजी की स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य जी झिमोमी ने 'इंडियन एक्सप्रेस' से कहा, "नगा-भारत बातचीत ख़त्म हो गई है। यदि यह बातचीत रहती तो भारत ने अफ़्सपा वापस ले लिया होता और तब ऐसी वारदात नहीं होती।"
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नगा मदर्स एसोसिएशन
इसी तरह नगा मदर्स एसोसिएशन ने रविवार को एक प्रेस बयान जारी कर कहा, "हम राज्य सरकार से यह माँग करते हैं कि वह अफ़्सपा के बढ़ते दुरुपयोग का संज्ञान ले और इसे हटाने की कोशिश करे।"
नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफिउ रियो ने कहा है कि अफ़स्पा को हटा दिया जाना चाहिए।
मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने भी कहा है कि अफ़स्पा को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए।
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पर्यवेक्षकों का कहना है कि इस फ़ायरिेंग को महज एक गोलीबारी और कुछ लोगों की मौत मानना भूल होगी। इससे भारत के प्रति लोगों के मन में गुस्सा बढ़ेगा, अलगाव बढ़ेगा और भारत विरोधी भावना प्रबल होगी।
नगा बातचीत तो फिलहाल रुक ही जाएगी, त्रिपुरा, बोडोलैंड, मणिपुर जैसे अलगाववादी आन्दोलन को इससे ऑक्सीजन मिलेगा। वे लोग आम जनता के बीच यह संदेश लेकर जा सकते हैं कि 'भारत से उन्हें न्याय नहीं मिल सकता है, उनके लोग निर्दोष मारे जाते रहेंगे और उनकी अलग होने की माँग जायज़ है।' इस भावना को रोकना लंबे समय के लिए मुश्किल होगा।
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