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कितना मुश्किल है एमएसपी की क़ानूनी गारंटी देना?

कृषि क़ानून रद्द हो गया, किसान आन्दोलन भी ख़त्म हो गया, पर क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर क़ानून बनाना मुमकिन है?

कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ साल भर से चल रहा किसान आन्दोलन ख़त्म हो गया। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से जुड़े क़ानून पर एक कमेटी बनाने का एलान किया है, जिसमें संयुक्त किसान मोर्चा, कृषि विशेषज्ञ और सरकार के प्रतिनिधि होंगे। 

यानी, सरकार ने एमएसपी पर क़ानून बनाने के लिए विधेयक लाने के बजाय इस कमेटी पर निर्णय छोड़ दिया है। 

एमएसपी एक ऐसा विषय है, जो किसानों की मूल माँगों में शामिल नहीं था, उन्होंने इसे बाद में जोड़ा था। 

क्या होता है एमएसपी?

एमएसपी की शुरुआत 1965-66 में गेहूँ की फसल के लिए गई थी। उस समय देश में उपज कम होती थी खाद्यान्नों का अभाव था, सरकार ने किसानों का प्रोत्साहित करने के लिए यह योजना शुरू की। इसके तहत यह तय किया गया कि भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी एजंसियाँ एक निश्चित कीमत पर गेहूँ किसानों से खरीद लेगी ताकि उन्हें कम कीमत पर बिचौलियों को न बेचना पड़ा। कीमत ठीक मिलने पर किसान गेंहू की खेती पर ध्यान देंगे, यह सोच कर इसे शुरू किया गया।

बाद में एमएसपी के तहत धान और दूसरे उपजों को शामलि किया गया। मौजूदा समय में 23 कृषि उत्पादों के लिए सरकार एमएसपी का एलान हर साल करती है। इसमें गेंहू, धान के अलावा मक्का, कपास, दलहन, तिलहन व दूसरे उपज शामिल हैं। 

अब सरकार एमएसपी इसलिए देती है कि किसान सिर्फ गेंहू न उपजा कर कई किस्मों के फसल मसलन, दलहन व तिलहन आदि उपजाएं। 

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फ़ायदा किसे?

न्यूनतम समर्थन मूल्य से सारे किसानों को फ़ायदा नहीं होता है। 

कृषि मंत्री ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा कि 14 प्रतिशत से थोड़े अधिक ज़मीन मालिक किसान ही एमएसपी का लाभ उठा पाते हैं। वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान 2.1 करोड़ किसानों को एमएसपी का लाभ मिला।

एमएसपी के ऊपर

इसी तरह सारी फसलों के किसानों को एमएसपी का फ़ायदा नहीं मिलता है। मसलन, मक्का के किसानों को कई बार एमएसपी से कम पर उत्पाद बेचना पड़ता है। दूसरी ओर, कपास, तिलहन और दलहन की कीमतें खुले बाज़ार में एमएसपी से ऊपर रहती हैं।

व्यावहारिक रूप से सिर्फ गेंहू और धान के किसानों को ही सही मायनों में एमएसपी से फ़ायदा मिलता है। 

फल, सब्जी, फूल, मसाले और बागवानी की उपज वाली फसलें एमएसपी में नहीं आतीं। इनकी कीमत मौसम, माँग और दूसरे कारणों से लगातार घटती- बढ़ती रहती हैं। पर इनका उत्पादन भी बढ़ ही रहा है। 

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सरकार ने गन्ना उगाने वालों के लिए एक फेअर एंड रिमूनरेटिव प्राइस (एफआरपी) की व्यवस्था कर रखी है। राज्य सरकारें गन्ना की एक कीमत तय करती है। हालांकि ज़्यादातर मामलों में किसानों को समय पर पैसे नहीं मिलते और उन्हें लंबे समय तक इंतजार करना होता है, पर उन्हें कीमत ठीक मिल जाती है। 

एमएसपी क्यों?

लेकिन एमएसपी एक ज़रूरी व्यवस्था इसलिए है कि किसानों को लागत पर कम से कम 50 प्रतिशत ऊपर मिल जाता है। भारत में फसलों की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की तुलना में बहुत ही कम है। किसानों की लागत इतनी अधिक बैठ जाती है कि एमएसपी नहीं मिलने से खेती- बाड़ी घाटे का सौदा बन जाएगा और अधिकतर मामलों में बन गया है। 

एमएसपी तो सरकार अभी भी देती ही है, लेकिन वह बाध्य नहीं है। किसानों को डर है कि इसे बंद किया जा सकता है।

क़ानून बन जाने पर एमएसपी बाध्यता बन जाएगी, उससे कम कीमत पर खरीद ग़ैरक़ानूनी मानी जाएगी। केंद्र सरकार उस कीमत पर सारी फसल खरीदने को बाध्य होगी।

क्या हुआ था अमेरिका में?

एमएसपी की क़ानूनी गारंटी देते वक़्त अमेरिका के कार्टर प्रशासन का फ़ैसला और उसके नतीजे पर ध्यान देना जरूरी है।

तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 1977 में एलान किया कि चीज़ की कीमत हर छह महीने पर छह सेंट प्रति गैलन बढ़ा दी जाएगी और उस कीमत पर अतिरिक्त चीज़ सरकार खरीद लेगी। सरकार का सोचना था कि इससे दूध उत्पादन बढ़ेगा व डेरी उद्योग वालों को फायदा होगा।

इसका नतीजा यह हुआ कि पूरा डेरी उद्योग अधिक से अधिक दूध से चीज़ बनाने में लग गया, चीज़ की कीमत बढ़ती गई और सरकार के पास चीज़ का फालतू भंडार भी बढ़ता गया। नतीजा यह हुआ कि सरकार को सालाना 2 अरब डॉलर इस पर खर्च करना पड़ा। 

कार्टर के उत्तराधिकारी रोनल्ड रेगन ने राष्ट्रपति बनते ही इस स्कीम को बंद कर दिया। दूध और चीज़ की कीमतें फिर गिरने लगीं। 

सरकार पूरी फसल खरीद लेगी?

अमेरिका के इस उदाहरण को छोड़ भी दें तो सवाल यह है कि क्या सरकार क़ानूनी गारंटी देने के बाद वाकई पूरी फसल खरीद लेगी?

इसके साथ ही जुड़ा हुआ सवाल है कि यदि सरकार एमएसपी पर सारी फसल खरीद ले तो उसे कितना खर्च करना पड़ेगा।

एक मोटे अनुमान के मुताबिक सरकार को एमएसपी पर हर साल सात लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। 

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कितना खरीदती है सरकार?

जानकारों का कहना है कि भारत को जितने बफ़र स्टॉक की ज़रूरत है, उसका दूना सरकार खरीद रही है। उसका बड़ा हिस्सा गोदामों में पड़ा सड़ता है। सरकार सारी फसल खरीद कर कहां रखेगी और उसका क्या करेगी, ये सवाल अहम हैं। 

भारतीय खाद्य निगम के पास लगभग 818 लाख टन फसल भंडार करने की क्षमता है। लेकिन धान और गेंहू का कुल स्टॉक 838 लाख टन है। सरकार के पास जगह नहीं है। यदि एमएसपी लागू हुआ तो गेंहू और धान का उत्पादन बढ़ेगा और अधिक स्टॉक की समस्या आएगी।

एमएसपी पर क़ानून बन जाने से निजी क्षेत्र को फसल एमएसपी पर ही खरीदनी होगी। आखिर चीनी मिलें सरकार की ओर से तय कीमत पर तो गन्ना खरीदती ही हैं।

निर्यात चौपट?

एमएसपी की क़ानूनी गारंटी देने का विरोध करने वालों का कहना है कि ऐसा होने के बाद भारतीय कृषि उत्पाद प्रतिस्पर्द्धा में नहीं टिक पाएंगे। इनकी कीमत ज़्यादा हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय कृषि उत्पाद ज़्यादा कीमतों की वजह से टिक नहीं पाएंगीं। 

लेकिन दूसरे पक्ष का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारतीय कृषि उत्पाद बहुत ही सस्ते हैं और इन्हें उचित कीमत नहीं मिलती है। निजी कंपनियां सारा मुनाफ़ समेट लेती हैं। 

कृषि उत्पाद के निर्यात का एक दूसरा पहलू यह है कि एमएसपी को विश्व व्यापार संगठन के नियम के तहत उत्पादक सब्सिडी माना जाएगा। ऐसा साबित होने पर भारतीय कृषि निर्यात पर जुर्माना ठोंक दिया जाएगा।

सवाल यह है कि जब सरकार उद्योग जगत के लिए टैक्स होलीडे का एलान करती है, सस्ती बिजली- पानी से लेकर ज़मीन तक मुहैया करती है, कॉरपोरेट जगत के अरबों रुपए के क़र्ज़ माफ़ कर सकती है तो किसानों पर खर्च क्यों नहीं कर सकती।

एमएसपी समर्थक लॉबी का यह भी कहना है कि भोजन को बुनियादी अधिकार मानने और खाद्य गारंटी देने के बाद सरकार का यह कर्तव्य है कि वह उन तमाम लोगों को मुफ्त या कम कीमत पर खाद्य दे जो खुद नहीं खरीद सकते। सरकार क्यों नहीं अनाज खरीद कर इस वर्ग को देती है, जिससे खाद्य की गारंटी भी हो जाएगी और किसानों को भी फ़ायदा होगा। 

एमएसपी पर बहस अभी और तेज़ होगी। कमेटी बनने और इस पर बैठकों का दौर शुरू होने के बाद इसके पक्ष-विपक्ष में बातें सामने आएंगी और विमर्श को बल मिलेगा। 

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प्रमोद मल्लिक
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