कोरोना वायरस से व्याप्त वर्तमान माहौल में सबसे नाजुक स्थिति विभिन्न आयु-समूहों के बच्चों और विद्यार्थियों की है। वायरस से बचाने के लिए बच्चों के स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए गए हैं और वे बड़ों के साथ घरों में कैद रहने को मजबूर हैं।
यद्यपि लॉकडाउन के चलते पूरे पर्चे नहीं हो पाने की चिंता में रहे छात्रों और उनके अभिभावकों को सीबीएसई ने बड़ी राहत दे दी है। वोकेशनल समेत विभिन्न विषयों की 10वीं और 12वीं बोर्ड की बची हुई परीक्षाएँ अब नहीं होंगी। हालाँकि 12वीं बोर्ड के छात्रों को केवल मुख्य विषयों की परीक्षा देनी होगी जो उनके किसी उच्च शिक्षण संस्थान में दाखिले के लिए ज़रूरी हैं। इन विषयों की परीक्षा आयोजित कराने के लिए 10 दिन पहले केंद्रों को सूचित कर दिया जाएगा। कक्षा 9वीं व 11वीं के जिन स्कूलों में परीक्षा या रिजल्ट जारी नहीं हो सका है, उनमें छात्र-छात्राओं को स्कूल असेसमेंट, प्रोजेक्ट वर्क, पीरियोडिक टेस्ट, टर्म एग्ज़ाम आदि के आधार पर अगली कक्षा यानी 10वीं और 12वीं में प्रमोट किया जाएगा। जो बच्चे कक्षा नौवीं व 11वीं में किसी एक या एक से अधिक विषय में फ़ेल हैं, उन्हें ऑनलाइन कंटेंट मुहैया कराकर और उनका ऑनलाइन टेस्ट लेकर प्रमोट किया जाएगा।
लेकिन समस्या परीक्षा और रिजल्ट से कहीं ज़्यादा गहरी है। आम तौर पर परीक्षाओं के बाद का समय बच्चों के घर से कहीं दूर यात्रा करने, नाना-नानी, दादा-दादी के पास रहने, एक्स्ट्रा-कैरीकुलर गतिविधियों में संलग्न होने या गाँव के उन्मुक्त माहौल में चले जाने का मधुरिम समय होता है। लेकिन अप्रत्याशित लॉकडाउन के चलते हमारे बच्चे पिछले साल की छुट्टियों के मजे याद करते हुए दिन-रात वही खिड़की-दरवाज़े देख-देख कर तंग आ चुके हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि स्कूल जाने वाले छोटे बच्चे और कॉलेज जाने वाले युवा कोरोना के भय से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगे। परिवार और अभिभावक उन पर कई तरह की बंदिशें लगा रहे हैं। इससे उनमें एक तरह का निराशावादी रवैया उपजेगा।
बड़ों की तरह ही बच्चे भी सामाजिक प्राणि होते हैं, अपने समूह में रहना पसंद करते हैं, साथियों से मिलना चाहते हैं, उनसे बात करना चाहते हैं लेकिन इस पर रोक लगा दी गई है। मुश्किल वक़्त में बच्चे सलाह और मदद के लिए अपने माता-पिता की ओर उम्मीद भरी नज़रों से निहारते हैं। ख़ुद माता-पिता को परेशान देख कर उनकी हताशा और बढ़ जाती है। अभिभावकों को ख़ुद आत्मविश्वास से भरा दिखते हुए उनकी हताशा और चिंता दूर करनी होगी। बच्चों को समझाना होगा कि कोरोना वायरस वैसा ही है, जैसा उन्हें खाँसी-जुकाम या उल्टी या दस्त कराने वाला वायरस होता है। औलाद को यह भरोसा दिलाना ज़रूरी है कि बहुत-सी बातें माता-पिता के नियंत्रण में भी नहीं होती हैं।
सामाजिकता और सह-अस्तित्व का उत्सव मनाने वाले मानव के लिए एकांत व सामाजिक दूरी असहनीय और अव्यावहारिक है। सोशल डिस्टेंसिंग और सेल्फ़-आइसोलेशन तभी कारगर होता है, जब लोग इन्हें सहजता से स्वीकार करें।
मौजूदा एकांत थोपा गया अजाब है, जिससे तनाव बढ़ना स्वाभाविक है। लंबे समय तक घर में बंद और महदूद होने का असर बोरियत और मानसिक तनाव से आगे बढ़कर अब मनोरुग्णता में बदल सकता है। अमेरिका, इटली, स्पेन, जर्मनी, ईरान और चीन समेत कई देशों में इन परेशानियों से जुड़ी एडवाइजरी और हेल्पलाइन नंबर भी जारी किए गए हैं। लेकिन भारत जैसे देश में, जहाँ पहले ही मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता बहुत कम है, वहाँ अभी कोरोना के मरीज जाँच और उपचार के स्तर पर ही संभाले नहीं संभल रहे हैं, ऐसे में बच्चों पर पड़ने वाले सामाजिक और मनोवैज्ञानिक असर की चर्चा करने की फिक्र और फुर्सत किसे है!
डब्ल्यूएचओ की सलाह
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित एडवाइजरी में कहा गया है कि ऐसी ख़बरों को देखने, सुनने और पढ़ने से बचें जो आपको परेशान करती हों। इनमें कोरोना से जुड़ी जानकारियाँ भी शामिल हैं। इसलिए बेहतर होगा कि बच्चों से दिन भर कोरोना की भयावहता से संबंधित जानकारियाँ शेयर न की जाएँ। इसके बजाए उन्हें कोई म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट, कोई नई भाषा, चित्रकारी, राइटिंग, कुकिंग, सिलाई-बुनाई या फिर कैलीग्राफी और बीटबॉक्सिंग जैसा कोई नया कौशल सीखने की सलाह दी जाए।
इसमें यूट्यूब और ऑनलाइन ट्यूटोरियल ख़ासे मददगार साबित हो सकते हैं। इसके अलावा किताबें, इंटरनेट पर मौजूद ज्ञान का खजाना, एमेजॉन प्राइम और नेटफ्लिक्स जैसे मंचों पर मौजूद शानदार कंटेट भी उनके वक़्त बिताने का स्वास्थ्यप्रद ज़रिया साबित हो सकता है। बच्चों को प्रोग्रेसिव मसल्स रिलेक्सेशन और मेडीटेशन जैसे तरीक़े भी ऑनलाइन सिखाए जा सकते हैं। लेकिन इस सबका ओवरडोज भी नहीं होना चाहिए।
एकल परिवारों की संरचना आइसोलेशन के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं होती। लॉकडाउन के दरम्यान बच्चों की माता-पिता से आमने-सामने की बातचीत राहत देती है, लेकिन आस-पड़ोस के बच्चों और स्कूल के सहपाठियों से दूरी तब भी उन्हें कुंठित और डिप्रेस करती है।
वयस्कों की ही तरह अच्छी नींद, पोषक भोजन, साफ़ वातावरण, खेल-कूद, रचनात्मक सक्रियता और समवयस्कों से मेल-जोल बच्चों की मूलभूत ज़रूरतें हैं। ऐसे में दूर बैठे रिश्तेदारों और क़रीबी दोस्तों से लगातार फ़ोन पर संपर्क बनाए रखना या वीडियो चैट करना उनके लिए सेफ्टी वॉल्व बन सकता है। किशोरवय के बच्चों को खाना बनाने, घर की साफ़-सफ़ाई या दीगर घरेलू काम निपटाने में शामिल किया जा सकता है। यदि आपके घर में ग्रीन एरिया हो तो बच्चों के साथ थोड़ा समय वहाँ गुजारें और यदि ग्रीन एरिया नहीं है, तो उनके साथ सुबह-शाम छत पर घूमें। बच्चों के साथ रोज़ सूर्योदय व सूर्यास्त देखने पर यक़ीनन आपका ध्यान भी कोरोना से हटेगा।
कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन को सकारात्मक बनाना आपके हाथ में है। आपाधापी भरे जीवन के बीच मयस्सर हुए इस दुर्लभ एकांत में अपने अब तक के जीवन को पलट कर निहारें और उसकी समीक्षा करें। पुराने एलबम देखें और अपनी संतान के साथ उनसे जुड़ी यादें साझा करें। परिवार के साथ शतरंज, कैरम व लूडो जैसे सामूहिक खेल खेलें। अपनी भावनाएँ खुल कर साझा करें। अलग-अलग तरह का खाना मिलजुल कर पकाएँ और घर को सुव्यवस्थित करने में एक-दूसरे की मदद करें। इसे देखकर बच्चों में भी आपसी सहयोग की भावना विकसित होगी। पुस्तकें पढ़ें और डायरी लिखें। यदि आप गाना गाने के शौकीन हैं, तो उसकी रिकॉर्डिंग करें, फिर बच्चों को सुनाएँ और उनकी राय लेकर उसे ठीक करें। दिन भर में कम से कम एक बार आईने के सामने खड़े होकर अपनी बॉडी लैंग्वेज पर फ़ोकस करें। डरावनी ख़बरों के बीच ख़ुद से ख़ुद की मुलाकात करवाएँ।
लॉकडाउन ख़त्म होगा तो फिर से घर और दफ्तर के बीच की चूहा-दौड़ शुरू हो जाएगी। बच्चे अपने स्कूल, कॉलेज, कोचिंग, परीक्षा और कंपटीशन की दौड़ में शामिल हो जाएँगे। क्या यह अद्भुत नहीं होगा कि इस जड़ और अनुत्पादक समय को बड़ों और बच्चों के बीच रिश्तों की ऊष्मा पैदा करने वाली गतिविधियों से जीवंत और रचनात्मक बना दिया जाए!
अपनी राय बतायें