हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
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हेमंत सोरेन
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पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व
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मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब कह गए हैं -
‘निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बड़े बे-आबरू होकर तिरे कूचे से हम निकले।’
मौजूदा हालात के मद्देनजर इस शेर की विषय-वस्तु का विस्तार करें तो कोरोना वायरस के चौतरफा असर से भारत के कार्यबल; खास तौर पर मजदूर वर्ग का अपने-अपने ठिकानों और कार्यस्थलों से बे-आबरू होकर निकलना हजरत आदम और किसी भी शायर (प्रेमी) से कहीं ज्यादा अपमानजनक है।
मजदूरों के ये बदहाल काफिले सिर्फ दिल्ली-एनसीआर से ही नहीं, महाराष्ट्र के मुंबई, पुणे, उत्तर प्रदेश के कानपुर, लखनऊ, राजस्थान के जोधपुर, उदयपुर, मध्य प्रदेश के इंदौर, जबलपुर, गुजरात के सूरत, अंकलेश्वर, कर्नाटक के बेंगलुरू आदि अनेक जगहों से अपने-अपने गांवों की ओर चले हैं। सरकार द्वारा अचानक लॉकडाउन घोषित कर दिए जाने से ये बेसहारा लोग जहां-तहां फंस गए। इनमें से अधिकतर अनपढ़ या बहुत कम पढ़े-लिखे हैं। ये किसी सरकारी नौकरी में नहीं हैं बल्कि दिहाड़ी मजदूर हैं। उनके बीच कोरोना वायरस को लेकर जागरूकता नहीं, भय है। लेकिन उससे बड़ा भय भूखे मर जाने का है।
इन लोगों को डर है कि अगर लॉकडाउन दो-तीन महीने खिंच गया तो परदेस में कैसे रह पायेंगे! इसीलिए उन्होंने सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव-घर पहुंचने का बेहद कठिन फ़ैसला लिया। गांव कोई स्वर्ग नहीं है लेकिन यह उन्हें अपनी गोद में छिपा लेने का भरोसा दिलाता है। यही भरोसा अगर उन्हें सरकार पर, अपने मालिकों पर होता, तो क्या वे इतना मुश्किल क़दम उठाते? दरअसल, मुसीबत के वक्त शहर वालों ने उन्हें इस्तेमाल करके कूड़ेदान में फेंक दिया है।
संजय कुंदन की कविता मजदूरों के इन काफिलों की दारुण अवस्था का मर्मांतक बयान है -
‘जा रहे हम
जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं और यह देह साथ है
लेकिन अब आत्मा पर खरोंचें कितनी बढ़ गई हैं
कौन देखता है?
कोई रोकता तो रुक भी जाते
बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी
इतना ही कहता- यह शहर तुम्हारा भी तो है
उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर
जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं।।
हम जा रहे हैं।।
हो सकता है कुछ देर बाद हमारे पैर लड़खड़ा जाएं
हम गिर जाएं खून की उल्टियां करते हुए।।
जा रहे हम,
यह सोचकर कि हमारा एक घर था कभी
अब वह न भी हो
तब भी उसी दिशा में जा रहे हम
कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर
जो अपने जैसा लगेगा।’
इन हालात में भी सत्ता समर्थक लोगों और प्लेटफॉर्म सिंड्रोम से ग्रस्त भारतीय मध्य वर्ग द्वारा अपनी बालकनी और ड्राइंग रूम में बैठ कर दर-दर भटक रहे मजदूरों की खिल्ली उड़ाना ग़रीबों के घावों पर नमक छिड़कने जैसा है। इन बेहाल-परेशान लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के बजाय बीजेपी के वरिष्ठ नेता बलबीर पुंज ने दिल्ली-एनसीआर छोड़कर जा रहे लोगों को लेकर अपने ट्वीट में लिखा है, ‘ये लोग अपनी इन ‘छुट्टियों’ का इस्तेमाल अपने परिवारों से मिलने या घर के छिटपुट काम निपटाने के लिए करने गांव जा रहे हैं।’
इसे एक किस्म का परपीड़न सुख कहा जा सकता है। वैसे भी 'कल्याणकारी राज्य' की अवधारणा से चिढ़ने वाले लोग ‘मत्स्य न्याय’ के आकांक्षी होते हैं। पलायन करते मजदूर इनकी नजर में छोटी मछलियां हैं। ये लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि जब लॉकडाउन ख़त्म होगा तो शहरों में झाड़ू-पोछा लगाने के लिए भी इन्हें इन्हीं मजदूरों के पांव पकड़ने पड़ेंगे।
पंजाब की खेती इन्हीं मजदूरों के पसीने के दम पर फलती-फूलती है। मुंबई और दिल्ली के घर-घर में दूध और ब्रेड ये ही लोग पहुंचाते हैं। जब कच्चा माल, वर्किंग कैपिटल, मशीनों की ओवरहॉलिंग के अभाव में देश के मझोले और छोटे उद्योग कराह रहे होंगे, तब तबाह हो चुकी अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए इन्हीं श्रमिकों को गांव से लौटने के लिए मनाना पड़ेगा।
माना कि इस वक़्त हालात नाजुक और भयावह हैं लेकिन पुंज ने जैसा बयान दिया, यह सुविधाभोगियों और सत्तानशीनों की किस मानसिकता का परिचायक है?
अब जबकि भारत विभाजन के वक्त हुए सामूहिक पलायन की तरह के दृश्य राजमार्गों पर आम हो गए हैं, बस अड्डों और किराना दुकानों पर भीड़ एक-दूसरे से पीठ घिस चुकी है तो एक तरह से लॉकडाउन फ़ेल हो चुका है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी सरकार ने मेहनतकश वर्ग और करोड़ों बेबस व बेसहारा लोगों के बारे में कुछ नहीं सोचा था?
क्या उन्होंने अचानक रात 8 बजे कंप्लीट लॉकडाउन की घोषणा कर देने से पहले अपने मंत्रिमंडल से संभावित जटिलताओं को लेकर कोई चर्चा नहीं की? राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में कोई सर्वदलीय सभा क्यों नहीं बुलाई गई?
इसके उलट पलायन करते मजदूरों की ओर ध्यान खींचने पर सरकार समर्थक लोग कुछ इस तरह के प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं, ‘मोदी ने लॉकडाउन करके क्या गलत किया? देश को बचाने के लिए ठोस निर्णय लेने होते हैं, क्या आप और इंतजार कराना चाहते थे? बीमारी की गंभीरता पहले कुछ दिनों में समझ नहीं आती। ऐसे में क्या उपाय था?।’ वे यह भी कहते हैं, ‘मोदी जी ने ट्वीट करके लोगों से मार्मिक अपील की थी कि यात्रा न करें, गांवों की ओर न लौटें। भारत के लोग ही समझदार नहीं हैं, तो इसमें मोदी जी की क्या गलती है?।’
ये सवाल बिल्कुल वाजिब हैं और लॉकडाउन का प्रधानमंत्री का निर्णय भी एक़दम सही था। लेकिन क्या जनता को मालूम था कि मोदी जी रात 8 बजे लॉकडाउन करने वाले हैं और क्या प्रधानमंत्री जी को यह आभास नहीं था कि अचानक लॉकडाउन के बाद कैसी भयावह स्थिति बन सकती है?
जनवरी के आखिरी सप्ताह में केरल में कोरोना वायरस का पहला केस मिला था, मार्च के पहले सप्ताह से देश में और भी मामले सामने आने शुरू हो गए थे। लेकिन प्रश्नकर्ता और सरकार समर्थक कृपया गौर फरमाएं कि इस दौरान वायरस से निपटने की तैयारियों के बजाय मोदी सरकार किस तरह के धतकरमों में व्यस्त थी, उसकी प्राथमिकताएं क्या थीं?
कोरोना वायरस का टेस्ट किट बनाने वाली निजी एजेंसियों ने दो महीने पहले से किट पर काम शुरू कर दिया था। उन्हें मालूम था कि देश में गंभीर परिस्थितियां बनने वाली हैं। फिर क्या सरकार को इसकी जरा भी भनक नहीं थी? मोदी जी देश की नब्ज समझते हैं। उन्हें अंदाजा होना चाहिए था कि जब काम बंद हो जाएगा तो मजदूर क्या खाएगा, क्या करेगा, कहां जाएगा।
फिलहाल आशंका इस बात की है कि इतने बड़े स्तर पर पलायन कर रही भीड़ में अगर चंद लोग भी कोरोना वायरस से संक्रमित पाए गए तो वे इस महामारी को गांव-गांव में फैला देने वाले कैरियर साबित हो सकते हैं। फिर तो सारा दोष इनके मत्थे मढ़ना सबके लिए बड़ा आसान हो जाएगा। ये मजदूर मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के हैं, जहां स्वास्थ्य सेवाओं और कोरोना से निपटने की सामर्थ्य लगभग शून्य है।
ऐसे में उन्हें खाना खिलाने और बसों में भर कर उनके गांव पहुंचा देने मात्र से काम नहीं चलेगा, बल्कि केंद्र सरकार को इंटिग्रेटेड डिजीज सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) यानी इस महामारी के निगरानी तंत्र को इन राज्यों में पहले से और भी ज्यादा मुस्तैद करना होगा तथा संबंधित राज्य सरकारों को रैपिड रिस्पॉन्स टीमें बनाकर इनके सफर के दौरान और गंतव्य स्थल पर इनके परीक्षण की चाक-चौबंद व्यवस्था करनी होगी। जरूरत पड़े तो उन्हें क्वरेंटीन और आइसोलेट भी करना पड़ेगा।
राज्य प्रशासन को नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (एनसीडीसी) के साथ मिलकर इस अप्रत्याशित पलायन के कुपरिणामों से बचने के लिए पुलिसिंग की अभूतपूर्व रणनीति बनानी होगी। वरना सुना है कि इन मजदूरों को इनके ही गांवों में न घुसने देने के लिए कई वीर लट्ठ को तेल पिलाकर पहले ही बैठ गए हैं!
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