महात्मा गांधी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ के प्रमुख की नयी नियुक्ति को लेकर विवाद हो गया है। यह विवाद तब हुआ जब गुजरात विद्यापीठ के महासचिव निखिल भट्ट ने एक बयान जारी कर कहा है कि विद्यापीठ के ट्रस्टियों ने गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत को इस डीम्ड यूनिवर्सिटी के चांसलर के रूप में कार्यभार संभालने के लिए आमंत्रित करने का फ़ैसला किया है।
विवाद की वजह साफ़ है। महात्मा गांधी की संस्था है और इसके प्रमुख बीजेपी-आरएसएस द्वारा नियुक्त राज्यापल को बनाया जा रहा है। गांधीवादियों ने इस क़दम की निंदा करते हुए कहा है कि आरएसएस ने अब महात्मा गांधी द्वारा स्थापित आखिरी बची स्वतंत्र विद्यापीठ में भी पैर जमा लिया है।
गुजरात विद्यापीठ की स्थापना महात्मा गांधी ने 18 अक्टूबर 1920 को की थी। इसे असहयोग आंदोलन के मद्देनजर राष्ट्रीय विद्यापीठ के रूप में शुरू किया गया था। इसकी मौजूदा चांसलर इला भट्ट हैं। 89 वर्षीय इला एक प्रसिद्ध गांधीवादी हैं, सामाजिक कार्यकर्ता और स्व-रोजगार महिला संघ (सेवा) की संस्थापक हैं। उन्हें मार्च 2015 में नियुक्त किया गया था। लेकिन कुछ महीने पहले ही उन्होंने अपने स्वास्थ्य का हवाला देते हुए इस्तीफा सौंप दिया है। उन्होंने ट्रस्टियों से नया चांसलर नियुक्त करने का अनुरोध किया है।
महासचिव निखिल भट्ट ने दो दिन पहले ही बयान में कहा कि, न्यासियों ने उनका इस्तीफा स्वीकार करने का फ़ैसला किया है और यह 19 अक्टूबर से प्रभावी होगा। उन्होंने कहा है कि न्यासियों का एक प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल आचार्य देवव्रत से कुलाधिपति के रूप में कार्यभार संभालने का अनुरोध करने के लिए उनसे मिलने जाएगा।
इसी फ़ैसले के बाद विवाद खड़ा हुआ। आपत्ति आचार्य देवव्रत को लेकर है। आचार्य देवव्रत पानीपत जिले के पावटी गांव से आते हैं। वह 35 वर्ष तक गुरुकुल कुरुक्षेत्र में प्रोफेसर पद पर रहे।
आचार्य देवव्रत आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ से जुड़े रहे थे। वह आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ में रहते हुए कई आंदोलनों में सक्रिय रह चुके हैं।
आचार्य देवव्रत ने आरएसएस से जुड़े कई संगठनों के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी की 100वीं जयंती पर एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था, 'मुझे कई बार ठेंगड़ी के साथ काम करना पड़ा, क्योंकि मैं 10 साल तक हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन का अध्यक्ष था। इस दौरान वह हम किसानों का मार्गदर्शन किया करते थे।' जनसत्ता की रिपोर्ट के अनुसार ठेंगड़ी ने भारतीय किसान यूनियन, मजदूर किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना और आखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की सह-स्थापना की थी। ये सारे संगठन संघ की विचारधारा से जुड़े हुए हैं।
बता दें कि आचार्य देवव्रत को राज्यपाल बनवाने के पीछे उनके योग गुरु बाबा रामदेव से अच्छे संबंधों को माना जाता है।
इन्हीं वजहों से कुछ गांधीवादियों ने इस क़दम के ख़िलाफ़ अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुए आरोप लगाया है कि यह महात्मा गांधी की विचारधारा को ख़त्म करने का एक प्रयास है। न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, कार्यकर्ता और गांधीवादी दार्शनिक महेश पांडे ने कहा है कि गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी, लेकिन अब गांधीवादी विचारधारा और संस्था को 'भगवा' करने का प्रयास किया जा रहा है। उन्होंने कहा, 'गुजरात विद्यापीठ आखिरी गांधीवादी संस्था है जिसे अब उखाड़ा जा रहा है।'
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बता दें कि 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या को लेकर आरएसएस सुर्खियों में रहा है। गांधी की नाथूराम गोडसे ने हत्या की थी। नाथूराम गोडसे का आरएसएस में शामिल होने का दाग कभी संघ धो नहीं सका है। आरोप संघ पर लगा था। संघ प्रमुख एमएस गोलवलकर गांधीजी की हत्या के बाद गिरफ्तार हुए थे। यह बहुत बड़ा दाग है जो मिटाए नहीं मिटता। लेकिन, सच यह भी है कि महात्मा गांधी की हत्या में न तो आरएसएस की संलिप्तता प्रमाणित हो सकी और न ही एम.एस गोलवलकर की। यही बात संघ और संघ समर्थक अपने बचाव में पेश करते रहे हैं।
गांधी जी की हत्या के क़रीब 5 महीने बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक चिट्ठी लिखी थी। लल्लनटॉप की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने उस चिट्ठी में लिखा, 'गांधी जी की हत्या का केस अभी कोर्ट में है इसीलिए आरएसएस और हिंदू महासभा, इन दोनों संगठनों के शामिल होने पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन हमारी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि होती है कि जो हुआ, वो इन दोनों संगठनों की गतिविधियों का नतीजा है। खासतौर पर आरएसएस के किये का। देश में इस तरह का माहौल बनाया गया कि इस तरह की भयानक घटना मुमकिन हो पाई। मेरे दिमाग में इस बात को लेकर कोई शक नहीं कि हिंदू महासभा का कट्टर धड़ा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियों के कारण भारत सरकार और इस देश के अस्तित्व पर सीधा-सीधा खतरा पैदा हुआ।'
गांधी की हत्या के बाद 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा था। यह प्रतिबंध 18 महीने यानी डेढ़ साल बाद ही 11 जुलाई 1949 को सरकार ने संघ पर से सशर्त हटाया।
प्रतिबंध हटाने के लिए संघ को ये शर्तें मानने के लिए कहा गया-
- आरएसएस अपना संविधान बनाएगा और संगठन का चुनाव करवाएगा।
- आरएसएस किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेगा।
- वह खुद को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा।
इन शर्तों के बाद आरएसएस कभी सीधे तौर पर राजनीति में नहीं कूदा, लेकिन उसने अपना एक राजनीतिक दल बनवा लिया। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जनसंघ बना जो कि आगे चलकर क़रीब 30 साल बाद भारतीय जनता पार्टी में बदल गया। इसी भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में सरकार है और इसी सरकार ने गुजरात के राज्यपाल को नियुक्त किया है।
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