सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि अगर राजधानी का पूरा प्रशासनिक नियंत्रण केंद्र सरकार के पास है तो फिर दिल्ली में चुनी हुई सरकार का क्या मतलब है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच सेवाओं के नियंत्रण के मामले में सुनवाई करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से यह सवाल पूछा। इस बेंच में जस्टिस एमआर शाह, जस्टिस कृष्ण मुरारी, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा भी शामिल हैं।
सॉलिसिटर जनरल ने अदालत से कहा कि किसी क्षेत्र को केंद्र शासित बनाने का उद्देश्य यह होता है कि केंद्र यहां खुद प्रशासन करना चाहता है, इसका मतलब है कि अपने दफ्तरों के जरिए प्रशासन करना।
मेहता ने कहा कि इसलिए सभी केंद्र शासित प्रदेश केंद्रीय सिविल सेवा और केंद्र सरकार के अफसरों द्वारा प्रशासित होते हैं।
दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच शक्तियों के बंटवारे को लेकर टकराव पिछले कुछ सालों में तेज हुआ है। दिल्ली सरकार के अधिकारों को स्पष्ट करने के लिए जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया था और केजरीवाल सरकार को दिल्ली का बिग बॉस बताया था लेकिन उस फैसले के बाद भी सवाल खत्म नहीं हुए।
दिल्ली में अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग और सर्विस विभाग को लेकर तमाम सवाल अभी तक सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के सामने हैं।
बहरहाल, सॉलिसिटर जनरल मेहता ने अदालत से कहा, “जब एक केंद्रीय सेवा का अफसर या DANICS अफसर या आईएएस अफसर लाइसेंस जारी करने के लिए दादरा और नगर हवेली में कमिश्नर के रूप में तैनात होता है तो वह राज्य सरकार की नीतियों का पालन करता है और मंत्री के प्रति जवाबदेह होता है।” उन्होंने कहा कि जबकि मंत्री नीति बनाता है, वह यह तय करता है कि लाइसेंस कैसे देना है और कैसे नहीं, किस तरह के पैरामीटर होने चाहिए और मंत्रालय कैसे चलेगा। मेहता ने कहा कि फंक्शनल कंट्रोल निर्वाचित मंत्री का ही होगा।
सॉलिसिटर जनरल ने अदालत से कहा कि राष्ट्रीय राजधानी होने की वजह से दिल्ली का एक ‘यूनीक स्टेटस’ है और यहां रहने वाले सभी लोगों के मन में अपनेपन का भाव होना चाहिए। उन्होंने इस संबंध में एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि दिल्ली कॉस्मापॉलिटन है और यह छोटा भारत है।
‘यूनीक स्टेटस’ के बारे में मेहता ने कहा कि दिल्ली में राष्ट्रीय योजनाएं भी लागू होती हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार यह कह सकती है कि किसे नियुक्त किया जाएगा और कौन किस विभाग का प्रमुख होगा।
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि एक अफसर गृह विभाग के सचिव से यह नहीं पूछ सकता कि उसे लाइसेंस देना चाहिए या नहीं, इसके लिए उसे मंत्रियों को ही रिपोर्ट करना होगा। उन्होंने कहा कि फंक्शनल कंट्रोल स्पष्ट रूप से मंत्री के ही पास है।
सीजेआई ने जताई हैरानी
द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस पर हैरानी जताई और कहा कि यह मान लीजिए कि अफसर ढंग से काम नहीं कर रहा है तो यह कैसी अजीब स्थिति बनेगी और दिल्ली सरकार यह नहीं कह सकेगी कि हम इस व्यक्ति को दूसरी जगह भेजेंगे और किसी और लाएंगे। सीजेआई ने कहा, "क्या आप कह सकते हैं कि अफसर को कहां तैनात किया जाना चाहिए, इस पर दिल्ली सरकार का कोई अधिकार नहीं होगा।"
सुनवाई के दौरान बेंच ने उन विषयों पर भी बात की जिन पर दिल्ली सरकार कानून नहीं बना सकती। बेंच ने राष्ट्रीय राजधानी में सेवाओं के नियंत्रण को लेकर कानूनी और संवैधानिक स्थिति के बारे में पूछा। बेंच ने कहा, संसद के पास राज्य की प्रविष्टियों और समवर्ती सूची (7वीं अनुसूची की) पर कानून बनाने का अधिकार है। दिल्ली विधानसभा के पास राज्य सूची की 1,2,18,64, 65 (सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और जमीन आदि) पर कानून बनाने की शक्ति नहीं है।
अदालत यह जानना चाहती थी कि सॉलिसिटर जनरल बताएं कि कैसे सेवाओं का विधायी नियंत्रण कभी भी दिल्ली की विधायी शक्तियों का हिस्सा नहीं था।
सॉलिसिटर जनरल ने दिल्ली को राष्ट्रीय राजधानी के रूप में बताया और कहने की कोशिश की कि केंद्र को सेवाओं को नियंत्रित करने की जरूरत क्यों है। सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि असल सवाल यह है कि यह नियंत्रण क्यों जरूरी है। मान लीजिए कि केंद्र सरकार एक अफसर को नियुक्त करती है और अगर वह अफसर दूसरे राज्य के साथ असहयोग करने लगता है तो समस्या पैदा होगी।
इस मामले में बहस 17 जनवरी को फिर से शुरू होगी।
नेशनल कैपिटल टैरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991
दिल्ली में 1993 में विधानसभा का गठन हुआ था। उससे पहले दिल्ली में स्थानीय प्रशासन चलाने के लिए महानगर परिषद हुआ करती थी। राजीव गांधी के जमाने में यह तय हुआ था कि दिल्ली को नया ढांचा दिया जाए ताकि दिल्ली को बहुत सारी एजेंसियों के जंजाल से मुक्त किया जाए। सरकारिया-बालाकृष्णन कमेटी की रिपोर्ट के बाद दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट की जगह दिल्ली के लिए गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टैरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट 1991 बना।
केंद्र के साथ टकराव
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के आने से पहले केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार में कभी भी इस तरह की तनातनी नहीं रही। केंद्र में चाहे बीजेपी की सरकार रही हो और दिल्ली में कांग्रेस का शासन हो या फिर 1993- 1998 का वक्त हो जब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी और दिल्ली में बीजेपी थी-तो भी इस तरह का टकराव कभी नहीं हुआ। 1999 से 2004 तक केंद्र में एनडीए की सरकार थी जबकि 1998 से दिल्ली में शीला दीक्षित की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार थी, तब भी ऐसा टकराव देखने को नहीं मिला था।
आम आदमी पार्टी आरोप लगाती रही है कि दिल्ली के उप राज्यपाल बीजेपी के इशारे पर उसे काम नहीं करने देते। दिल्ली के तीनों निगमों के एकीकरण, एमसीडी चुनाव टालने, मेयर के चुनाव, 163.62 करोड़ के वसूली नोटिस सहित कई मामलों को लेकर भी आम आदमी पार्टी उपराज्यपाल पर हमलावर रही है।
उपराज्यपालों के साथ जंग
दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपालों के बीच पुरानी जंग रही है। 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के वक्त दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग थे। तब नजीब जंग ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिए थे कि जमीन, पुलिस और पब्लिक आर्डर से जुड़ी फाइलें उनके पास भेजी जाएं। दिल्ली सरकार उन पर कोई फैसला नहीं ले। इसे लेकर केजरीवाल के साथ उप राज्यपाल की ठन गई थी। शकुंतला गैमलिन को दिल्ली का चीफ सेक्रेटरी बनाने का केजरीवाल ने विरोध किया था। इसके बाद 2016 में केंद्र सरकार नजीब जंग की जगह अनिल बैजल को ले आई।
जब अनिल बैजल दिल्ली के उप राज्यपाल थे तो उनसे तमाम मसलों पर केजरीवाल सरकार की भिड़ंत होती रही थी। साल 2018 में कुछ मांगों को लेकर केजरीवाल उप राज्यपाल के दफ्तर पर ही धरने पर बैठ गए थे। केजरीवाल के साथ उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और गोपाल राय ने भी धरना दिया था।
उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच शक्तियों के बंटवारे का विवाद हाई कोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा था और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दोनों की शक्तियों के बंटवारे को लेकर स्पष्ट फैसला सुनाया था।
पिछले साल केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार के अधिकारों को और अधिक स्पष्ट करने का दावा करते हुए दिल्ली विधानसभा अधिनियम में संशोधन किया था लेकिन दिल्ली सरकार इसके खिलाफ अदालत में पहुंच गई थी।
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