क्या आपको पता है कि महाश्वेता देवी की जिस लघुकथा 'द्रौपदी' को दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम से हटाया गया उसमें ख़ास क्या है? उसमें कहानी है- 'पुरुष अत्याचार' के ख़िलाफ़ एक महिला के तनकर खड़ा हो जाने की। अपने अधिकारियों से बलात्कार करा रहे एक पुरुष अफ़सर के सामने एक महिला की नाफ़रमानी की। एक पितृसतात्मक समाज को चुनौती देने की। एक ऐसी जनजातीय महिला की कहानी की जो ताक़तवर ज़मींदारों के ख़िलाफ़ खड़ी होती है। इस कहानी के चरित्र में दोपदी है, लेकिन महाभारत की वह द्रौपदी नहीं जिसकी रक्षा करने एक पुरुष देवता आते हैं। वह दोपदी ख़ुद लड़ती है।
'द्रौपदी' मूल रूप से महाश्वेता देवी द्वारा बंगाली में लिखी गई एक लघुकथा है। इसे गायत्री चक्रवर्ती स्पिवक द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। द्रौपदी को ब्रेस्ट स्टोरीज संग्रह में संकलित किया गया है। क़रीब 20 पृष्ठों की इस छोटी कहानी की शैली नारीवादी है। नारीवादी शैली का सीधा मतलब यह है कि महिलाओं, उनके सशक्तिकरण, महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा हो।
इसी 'द्रौपदी' पर विवाद है। यह विवाद इसलिए कि दिल्ली यूनिवर्सिटी शैक्षणिक परिषद ने बीए (ऑनर्स) अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में बदलावों को मंजूरी देते हुए ‘द्रौपदी’ को पाठ्यक्रम से हटा दिया।
एकेडमिक काउंसिल की बैठक में इसके 15 सदस्यों ने ओवरसाइट कमेटी और उसके कामकाज के ख़िलाफ़ एक असहमति नोट दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि अंग्रेजी पाठ्यक्रम में काफ़ी ज़्यादा उलट-पुलट किया गया है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि ओवरसाइट कमेटी ने पहले दो दलित लेखकों - बामा और सुखरथारिनी को हटाने का फ़ैसला किया और उनकी जगह 'उच्च जाति की लेखिका रमाबाई' को लगा दिया। अब महाश्वेता देवी की लघुकथा को हटाए जाने का विरोध करने वालों ने आरोप लगाया है कि इस फ़ैसले के पीछे कोई एकेडमिक तर्क भी नहीं दिया गया है।
विरोध करने वाले एकेडमिक काउंसिल के सदस्यों ने कहा है कि 'द्रौपदी' को दिल्ली यूनिवर्सिटी में 1999 से पढ़ाया जा रहा है। इसे विश्वविद्यालय में यूँ ही नहीं पढ़ाया जा रहा था।
महिला अधिकारों के मुद्दे उठाते रहने वाले कहते रहे हैं कि इस कहानी में ऐसी ख़ास बात है जो महिलाओं को ख़ुद से लड़ने के लिए प्रोत्साहित करती है, पतृसत्तात्मक समाज को एक संदेश देती है।
क्या है कहानी में?
'द्रौपदी' पश्चिम बंगाल की संथाल जनजाति की एक महिला दोपदी मेहजेन की कहानी है। कहानी में वह रॉबिन हुड जैसी शख्सियत है, जो अपने पति धूलना के साथ अमीर जमींदारों की हत्या करती है और उनके कुओं को पर कब्जा कर लेती है जो गाँव के लिए पानी का प्राथमिक स्रोत है। सरकार अपहरण, हत्या, बलात्कार जैसे कई तरीक़ों से इन आदिवासी विद्रोही समूहों को पकड़ने का प्रयास करती है। दोपदी को सेनानायक नाम के एक अधिकारी द्वारा पकड़ लिया जाता है। सेनानायक अपने अधिकारियों को विद्रोह और विद्रोहियों के बारे में जानकारी निकालने के लिए दोपदी के साथ बलात्कार करने का निर्देश देता है।
विडंबना देखिए कि वही अधिकारी जिसने उसके शरीर को रौंदने का निर्देश दिया वही बाद में जोर देकर कहता है कि वह वदन ढंक ले। लेकिन इसके जवाब में दोपदी अपने कपड़े फाड़ लेती है और अधिकारी सेनानायक की ओर चलती है, '... नग्न। ख़ून से लथपथ। घाव भी हैं'। सेनानायक उसकी नाफरमानी से हैरान होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह उसके सामने 'अपने कूल्हे पर हाथ रखकर' खड़ी होती है और हँसती हुई कहती है, 'कपड़े का क्या करें? तुम मेरे कपड़े उतार सकते हो, लेकिन तुम मुझे कैसे कपड़े पहना सकते हो? क्या तुम पुरुष हो?'
इस कहानी में दोपदी को किसी पुरुष द्वारा बचाया नहीं गया है। फिर भी वह सेनानायक के सामने खुद को पीड़ित मानने से इनकार कर अपनी लड़ाई जारी रखती है। इस रूप में जब वह सामने आती है तो सेनानायक के सशस्त्र पुरुष कर्मियों को भी 'डर लगने लगता है'।
दोपदी एक ताक़तवर दिमाग़ और इच्छाशक्ति की महिला है। क्योंकि उसने उस बलात्कार और यौन शोषण से जुड़ी शर्मिंदगी को खारिज कर दिया जो आज भी बेहद प्रचलित है।
इस कहानी में दोपदी का शरीर सत्तावादी शक्ति के प्रयोग और लिंग प्रतिरोध- दोनों को दिखाता है। दोपदी यातना को सहन करती है।
जाहिर है महाश्वेता देवी इस कहानी से यह भी बताती हैं कि कैसे किसी भी संघर्ष या युद्ध का परिणाम महिलाओं को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। वह कहती हैं कि महिलाओं का शरीर पुरुषों के हमले का प्राथमिक लक्ष्य होता है। वह यह बात भले ही नक्सली आंदोलन और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के संदर्भ में करती हैं, लेकिन यह आज के समय में भी हर संघर्ष में सटीक बैठता है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद महिलाओं की स्थिति पर भी यह सटीक बैठता है!
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