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हेमंत सोरेन
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पराली पर फिर विवाद शुरू हो गया है। दिल्ली में हवा ज़्यादा ख़राब हुई तो पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों को फिर से ज़िम्मेदार बताया जाने लगा। कहा जा रहा है कि ये किसान पराली जला रहे हैं और इस कारण प्रदूषण बढ़ रहा है। राजनीति तेज़ हुई। पर्यावरण की फिक्र करने वाले भी जागे और सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए। सुप्रीम कोर्ट ने भी सेवानिवृत्त जज जस्टिस मदन बी लोकुर के नेतृत्व में मॉनिटरिंग कमेटी नियुक्त कर दी है। कमेटी 15 दिन में रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट क्या आती है और क्या समाधान होगा, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन उससे पहले यह समझ लें कि आख़िर दिक्कत कहाँ है? किसान पराली क्यों जला रहे हैं और क्या पराली जलाने से ही दिल्ली की हवा दमघोंटू हो जा रही है?
पराली यानी धान की फ़सल तैयार होने पर अनाज वाले हिस्से को काट लेने के बाद खेतों में जो उसका बाक़ी हिस्सा बच जाता है, उसका कुछ इस्तेमाल नहीं है। पहले पालतू मवेशी होते थे तो यह उनका चारा होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। मशीनों से खेती हो रही है। पराली से दिक्कत यह है कि किसानों को धान के बाद दूसरी फ़सल बोने के लिए उसे हटाना पड़ता है। किसानों के पास समय कम होता है। धान की कटाई के बाद गेहूँ की फ़सल बोने के बीच क़रीब 30 दिन का ही अंतर होता है। अब इतने दिन में पराली अपने-आप नष्ट तो होगी नहीं। ऐसे में उनके लिए उस पराली को जलाना आसान होता है। हालाँकि पराली जलाने के भी नुक़सान हैं। और शायद किसान भी यह जानते हैं। पराली जलाने से पर्यावरण, स्वास्थ्य और ज़मीन की उर्वरता पर इसका विपरीत असर पड़ सकता है।
किसानी के जानकार और विशेषज्ञ कई ऐसे विकल्प सुझाते हैं, जो इस समस्या से निपटने में मददगार हो सकते हैं। इनमें तीन प्रमुख हैं।
पराली के समाधान के तौर पर कहा जाता है कि पराली को नष्ट करने के लिए जैविक डिकम्पोस्ट का उपयोग किया जाए। कंपनियों ने धान, गेहूँ और गन्ने जैसी फ़सलों के अपशिष्टों को सिर्फ़ 10-14 दिन में जैविक रूप से नष्ट करने की तकनीक विकसित कर ली है। लेकिन किसानों के सामने समस्या इस पर आने वाले ख़र्च को लेकर होती है। ऐसी मशीनें भी विकसित की गई हैं जिनसे खेत में पराली होने पर दूसरी फ़सल की बुआई की जा सके। हैपी सीडर, जीरो टिल ड्रिल, रोटेवेटर जैसी मशीनें बाज़ार में उपलब्ध हैं। लेकिन ऐसी मशीनें खेतों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई जाती नहीं दिखती हैं।
अधिकतर मामलों में किसानों की फ़सलों की क़ीमत उतनी भी नहीं मिल पाती है जितनी लागत लगती है। ऐसे में उनके लिए एक-एक पैसा मायने रखता है। यदि सरकार किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन दे तो इस पर बात बन सकती है।
ऐसी दलील दी जाती है कि अगर एक निर्धारित बोनस राशि पराली न जलाने वाले किसानों को मिले तो उनकी भागीदारी इस चुनौती से लड़ने में बढ़ाई जा सकती है।
वैसे, अभी तक का अनुभव तो यही है कि ऐसे सुझाए गए वैकल्पिक तरीक़े महंगे हैं और किसान उन्हें आसानी से नहीं खरीद सकते हैं। दूसरा तरीक़ा यह था कि क़ानून के ज़रिए किसानों पर दबाव डाला जाए।
पराली जलाने की समस्या का एक समाधान यह ढूंढा जाता है कि पराली जलाने वालों पर कार्रवाई की जाए। लेकिन अब तक यह देखा गया है कि इसका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होता है। काफ़ी सख़्ती के बाद अधिकारियों ने पिछले साल कार्रवाई की थी। पराली जलाने वाले किसानों पर ऐसी कार्रवाई की ख़ूब ख़बरें आई थीं। लेकिन लगता है इसका असर बिल्कुल भी नहीं हुआ।
नासा की सैटेलाइट इमेजरी में पंजाब के अमृतसर, पटियाला, तरनतारन और फिरोजपुर के पास और हरियाणा के अंबाला और राजपुरा में खेत की आग दिखाई दी है। पंजाब में पिछले साल की इसी अवधि के 1,217 की तुलना में इस सीजन में अब तक 3,517 खेत में आग के मामले सामने आए हैं। हरियाणा में पिछले साल की इसी अवधि में 1,072 के मुक़ाबले 1,710 पराली जलाए दाने के मामले आए हैं। यानी कार्रवाई के बावजूद पिछले साल की तुलना में इस साल खेतों में आग लगाने के मामले बढ़े हैं। इससे यह भी पता चलता है कि क़ानून के डंडे से कुछ हुआ होता तो देश की बड़ी-बड़ी समस्याएँ सुलझ चुकी होतीं।
बहरहाल, अब आते हैं कि दिल्ली में प्रदूषण के लिए पराली कितनी ज़िम्मेदार है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण के लिए पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पराली जलाने को ज़िम्मेदार बताते रहे हैं। उनका कहना रहा है कि ऑड ईवन, डीजल जनरेटर बंद करने, डिफॉगिंग सिस्टम और ऐसे ही दूसरे उपायों के बावजूद स्थिति नहीं सुधर रही है क्योंकि पराली का जलाया जाना जारी है। केजरीवाल की इन बातों में कुछ सच्चाई तो है लेकिन यह पूरा सच नहीं है।
प्रदूषण के लिए पराली को ज़िम्मेदार बताने वाले इस तर्क पर यह कहकर सवाल उठाए जाते रहे हैं कि दिल्ली में प्रदूषण के लिए पराली तो एक छोटा-सा कारण है, इससे बड़े कारण तो दूसरे हैं।
केजरीवाल के विरोधी भी यही तर्क देते हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि दिल्ली की वायु गुणवत्ता में पड़ोसी राज्यों में खेत की आग का असर फ़िलहाल केवल 4% है और बाक़ी स्थानीय स्रोतों से है। उन्होंने कहा कि एक तरफ़ ठूंठ जल रहा है, दूसरी तरफ़ कचरा। उन्होंने कहा कि लेकिन 95% स्थानीय कारकों से प्रदूषण है।
कुछ ऐसी ही बात एक ताज़ा रिपोर्ट में भी कही गई है। प्रदूषण को मापने का पैमाना पीएम 2.5 है। पीएम यानी पर्टिकुलेट मैटर वातावरण में मौजूद बहुत छोटे कण होते हैं जिन्हें आप साधारण आँखों से नहीं देख सकते। गुरुवार को दिल्ली में पीएम 2.5 के स्तर पर प्रदूषण में 6 फ़ीसदी हिस्सा पराली जलाने के कारण था।
इस पूरे मामले में सवाल तो कई उठते हैं लेकिन सबसे अहम सवालों में से एक यह है कि किसानों की जितनी ग़लती है उससे कहीं ज़्यादा उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया तो नहीं जा रहा है? प्रदूषण को लेकर जब दिल्ली में सख़्ती की जाती है तो हंगामा हो जाता है, लेकिन क्या पराली वाले मामले में सख़्ती बरतने पर भी वैसा ही हंगामा होता है? यदि ऐसा नहीं है तो क्या लगता है कि समाधान ढूँढने में किसी की दिलचस्पी है? क्या अपनी सहूलियत के लिए दूसरों को बलि का बकरा बनाकर कोई समाधान निकाला जा सकता है?
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