अब कोई हाईकमान ही नहीं है तो लगता है कि कांग्रेस की कमान भी किसी के पास नहीं है। अजीब अराजकता की स्थिति बनी हुई है। जिस कांग्रेस को लोकसभा चुनावों के बाद विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुट जाना चाहिए था, वह जूतों में दाल बाँटती नज़र आ रही है।
चाको-शीला आए आमने-सामने
आमतौर पर कांग्रेस में यह माना जाता है कि हाईकमान की तरफ़ से नियुक्त किया गया प्रभारी पार्टी को ऊपर से मिले आदेशों के आधार पर चलाएगा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी प्रभारी के इशारों पर काम करते रहे हैं। प्रभारियों का अपना अलग जलवा होता है। मगर, इस बार प्रदेश प्रभारी पी.सी. चाको का वास्ता शीला दीक्षित से पड़ा है जिन्होंने दिल्ली में 15 साल तक एकछत्र राज किया और दिल्ली में धुरंधर समझे जाने वाले नेताओं को किनारे लगा दिया। हालाँकि अब कांग्रेस कुछ मंझधार में फंसी नज़र आ रही है तो किसी को कोई किनारा सूझ ही नहीं रहा है।चाको को दिल्ली कांग्रेस में अजय माकन का पूरा समर्थन हासिल है। यही वजह है कि ‘आप’ के साथ गठबंधन के मुद्दे पर भी वह अजय माकन के कारण ही आगे बढ़े।
शीला ने हटाए ब्लॉक अध्यक्ष
लोकसभा चुनाव ख़त्म होने के बाद शीला दीक्षित ने पहले तो हार के कारण ढूंढने के लिए पाँच सदस्यों की एक कमेटी बना दी और इस कमेटी पर चाको को भरोसा नहीं था। इसके बाद इस कमेटी की रिपोर्ट के नाम पर सारे ब्लॉक अध्यक्षों को ही हटा दिया। इनमें से ज़्यादातर अजय माकन के समर्थक हैं और उन्होंने ही इन्हें बनाया था। हैरानी की बात यह है कि इतना बड़ा फ़ैसला लेने के लिए उन्होंने न तो चाको से पूछा और न ही कार्यकारी अध्यक्षों से। यहाँ तक कि यह फ़ैसला करने के लिए इन नेताओं को विश्वास में भी नहीं लिया। यह एक तरह से अजय माकन को शीला की चुनौती थी।चाको ने खुलेआम कह दिया कि वह इस फ़ैसले को नहीं मानते लेकिन शीला दीक्षित ने इससे भी आगे बढ़कर नए ब्लॉक अध्यक्षों की नियुक्ति के लिए पर्यवेक्षक भी नियुक्त कर दिए। ये सारे पर्यवेक्षक भी शीला समर्थक और माकन विरोधी हैं। इस तरह यह फ़ैसला भी चाको के लिए चुनौती बन गया।
शीला ने चाको के इस फ़ैसले के जवाब में इन कार्यकारी अध्यक्षों के पर ही पूरी तरह कतर डाले। हारुन यूसुफ़ और देवेंद्र यादव को ज़िम्मेदारी दे दी कि आप सिर्फ़ डूसू चुनाव कराइए और राजेश लिलोठिया को नगर निगम का काम देखने की ज़िम्मेदारी दे दी।
अब हारुन और देवेंद्र यादव कार्यकारी अध्यक्ष होते हुए भी अदना-सा काम करने लायक रह गए हैं। हारुन और अजय की दोस्ती भी सभी जानते हैं। ये नेता कहते हैं कि वे शीला दीक्षित के फ़ैसलों को नहीं मानते बल्कि एआईसीसी यानी चाको के फ़ैसलों को मानेंगे।
कुल मिलाकर दिल्ली कांग्रेस में अफरा-तफरी का माहौल है। अब सवाल यह है कि कांग्रेस के इस माहौल का नतीजा क्या निकलेगा और उसका फायदा किसे होगा।
दिल्ली में अगर कांग्रेस मजबूत होती है तो बीजेपी को लाभ होता है। लोकसभा चुनावों में भी यही देखने को मिला था। कांग्रेस कमजोर होगी तो पलड़ा ‘आप’ के पक्ष में झुक जाएगा। ज़ाहिर है कि सारे घटनाक्रम से ‘आप’ ही ख़ुश होगी। जो लोग लोकसभा चुनावों में ‘आप’ के साथ समझौते का समर्थन कर रहे थे, इस वक़्त वही कांग्रेस में टकराव के दौरान एक पक्ष बने हुए हैं। पता नहीं शीला दीक्षित को यह बात समझ में आ रही है या नहीं लेकिन सच्चाई यह है कि इस टकराव से वह भी वही कर रही हैं जो चाको गुट चाह रहा है।
सवाल यह है कि कहीं इन दोनों का टकराव जानबूझ कर तो खड़ा नहीं किया जा रहा ताकि कांग्रेस इतनी कमजोर हो जाए कि फिर विधानसभा चुनावों में भी कुछ नेता यह माँग करने लगें कि ‘आप’ के साथ गठबंधन करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। कांग्रेस की वर्तमान हालत तो यही बयान कर रही है कि वैसे ही हालात बनाने की कोशिश की जा रही है।
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