दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग चल रही है। आप, बीजेपी और कांग्रेस तीनों दलों ने अपने चुनाव अभियान में कोई कसर नहीं छोड़ी क्योंकि इनकी साख दाँव पर लगी है। आप पिछले दो चुनावों से रिकॉर्ड सीटें जीत रही है और कहा जा रहा है कि इस बार उसके प्रदर्शन पर आप का भविष्य निर्भर करेगा। बीजेपी लोकसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन करने के बावजूद दशकों से सत्ता से दूर है और यह चुनाव यह तय करेगा कि जहाँ से देश की सत्ता चलती है वहाँ बीजेपी की हैसियत क्या इतनी कम है। कांग्रेस अपनी खोयी ज़मीन पाने के लिए संघर्ष कर रही है और यह चुनाव इसके अस्तित्व की लड़ाई को दिखाएगा।
तीनों ही दलों के लिए साख इतनी ज़्यादा दाँव पर है कि इस चुनाव को उनके लिए 'करो या मरो' जैसी स्थिति कहा जा रहा है। तो सवाल है कि आख़िर तीनों दलों के लिए इतनी साख दाँव पर क्यों है और चुनाव में इन तीनों दलों की मौजूदा स्थिति क्या है।
पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अगुआई वाली आप लगातार तीसरी बार सत्ता में बने रहने की कोशिश कर रही है, जबकि भाजपा राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता हथियाने की कोशिश में है। पिछले दो चुनावों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल सका, लेकिन वह भी कड़ी टक्कर की तैयारी कर रही है और उसे उम्मीद है कि वह चौंकाने वाली जीत हासिल करेगी।
आप की साख दाँव पर क्यों?
2013 में सत्ता में आने के बाद आप ने कभी खुद को बदलाव लाने वाला बताया था, लेकिन अब भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही है। केजरीवाल ने खुद को ईडी द्वारा पहले गिरफ्तार किए जाने के बाद लगभग छह महीने जेल में बिताए और बाद में कथित दिल्ली आबकारी नीति घोटाले में उनकी भूमिका के लिए सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किया गया। पिछले साल सितंबर में उन्हें जमानत मिली। केजरीवाल के सहयोगी और दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने भी आबकारी नीति मामले में 17 महीने से अधिक समय जेल में बिताया। एक अन्य पूर्व मंत्री सत्येंद्र जैन और राज्यसभा सांसद संजय सिंह को भी गिरफ्तार किया गया और वे जमानत पर बाहर हैं।
मोहल्ला क्लीनिक, सरकारी स्कूलों में सुधार, बिजली और पानी की सब्सिडी सहित केजरीवाल का कल्याणकारी मॉडल आप का मुख्य आधार है। यह दिल्ली मॉडल ही था जिसने आप को गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के वोट बैंक पर कब्ज़ा कराया और कांग्रेस की हवा निकालने में मदद की। कांग्रेस को कभी इन वर्गों का काफ़ी समर्थन प्राप्त था। भाजपा को उच्च मध्यम वर्ग और पंजाबी और व्यापारिक समुदाय का समर्थन प्राप्त है। इसको अपने वोट बैंक में इस तरह की गिरावट का सामना नहीं करना पड़ा है।
भाजपा ने अपना पूरा ध्यान भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आप पर हमला करने और सीएम आवास के जीर्णोद्धार 'शीशमहल' को लेकर केजरीवाल को व्यक्तिगत रूप से निशाना बनाने पर केंद्रित किया। आप पहली बार भ्रष्टाचार के मोर्चे पर इतनी आलोचनाओं का सामना कर रही है।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने अपने एक साप्ताहिक कॉलम में लिखा है, 'यह चुनाव अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के लिए लगभग अस्तित्व की लड़ाई है। नीरजा ने लिखा, 'अगर केजरीवाल दिल्ली हार जाते हैं तो पार्टी को अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ सकता है। एक पराजित आप भाजपा के लिए आसान शिकार बन जाएगी और यह टूट सकती है या यहां तक कि बिखर भी सकती है।'
बीजेपी के लिए क्या?
पंजाब को छोड़कर दिल्ली उत्तर भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां पिछले दो दशकों में भाजपा ने सत्ता का स्वाद नहीं चखा है। लेकिन, पिछले तीन दशकों में भाजपा के वोट शेयर पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि पार्टी ने अपना एक बड़ा जनाधार बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है।
1998 से दिल्ली में सत्ता से बाहर होने के बावजूद, भाजपा छह विधानसभा चुनावों में कभी भी 32% के वोट शेयर से नीचे नहीं गिरी।
इस बार, बीजेपी ने दिल्ली में अपना अब तक का सबसे आक्रामक अभियानों में से एक चलाया। पार्टी का मानना है कि उच्च मध्यम वर्ग, व्यापारिक और पंजाबी समुदायों के बीच उसका वोट शेयर बरकरार है और उसे पूर्वांचली मतदाताओं के एक बड़े हिस्से का भी समर्थन प्राप्त है। और अब यह निम्न मध्यम वर्ग, दलितों और गरीबों में सेंध लगाने के लिए ठोस प्रयास कर रही है।
बीजेपी के लिए यह चुनाव महत्वपूर्ण है क्योंकि दिल्ली, जिसमें बड़ी संख्या में प्रवासी आबादी है और हिंदी पट्टी की राजनीति को भी प्रभावित करती है। नीरजा चौधरी ने लिखा है, 'यही वह जगह है जहाँ भाजपा का सबसे अधिक दांव लगा है और जहाँ से उसे देश को नियंत्रित करने की शक्ति और क्षमता मिलती है।'
कांग्रेस की क्या मुश्किल?
दिल्ली में कांग्रेस का उत्थान और पतन किसी नाटकीय घटना से कम नहीं है। पार्टी 1998 में दिल्ली में सत्ता में आई थी, लोकसभा चुनावों में उसे हार का सामना करना पड़ा था। दिल्ली में भी भाजपा ने सात में से छह सीटें जीती थीं। कांग्रेस की एकमात्र विजेता मीरा कुमार करोल बाग सीट से थीं। वास्तव में, शीला दीक्षित जो सीएम बनीं, पूर्वी दिल्ली सीट पर भाजपा के लाल बिहार तिवारी से हार गई थीं।
लेकिन नवंबर 1998 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 47.76% वोट शेयर के साथ 70 में से 52 सीटें जीतीं और कांग्रेस सरकार के मुखिया के रूप में शीला दीक्षित ने 15 साल तक दिल्ली की कमान संभाली। यह सत्ता 2013 में ख़त्म हो गई, जब कांग्रेस सिर्फ आठ सीटों पर सिमट गई, और शीला दीक्षित खुद केजरीवाल से हार गईं।
2015 में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा, जब वह खाता खोलने में विफल रही और उसका वोट शेयर 10% से भी कम हो गया। पिछले विधानसभा चुनावों में पार्टी और भी पीछे चली गई, उसे केवल 4.26% वोट मिले, जबकि उसके 66 में से 63 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।
इस चुनाव से पता चलेगा कि क्या कांग्रेस वास्तव में राष्ट्रीय राजधानी की राजनीति में हाशिये पर है या फिर लगातार दो चुनावों में खाता न खोल पाने के बाद फिर से उभर सकती है।
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