भारतीय जनता पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को मौजूदा मोदी सरकार ने भारत रत्न से सम्मानित करने का एलान किया है। आडवाणी इस सम्मान को हासिल करने वाले 50वीं शख्सियत होंगे।
आडवाणी को मिला यह सम्मान गुरु दक्षिणा जैसा लगता है। माना जाता है कि आडवाणी से मिली राजनीतिक दीक्षा के कारण भी पीएम मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं। पीएम मोदी के राजनैतिक सफर में आडवाणी किसी गुरु की तरह रहे हैं।
हालांकि इस सफ़र में बहुत से मोड़ भी आए और उतार चढ़ाव भी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने सार्वजनिक तौर पर कई मौके पर आडवाणी को सम्मानित किया है।
साल 2015 में जब मोदी सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित करने का फ़ैसला किया था, तब उसी वक्त आडवाणी को देश के दूसरे सबसे बड़े सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित करने की घोषणा भी हुई थी। तब के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से उन्हें यह सम्मान हासिल हुआ था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोशल मीडिया पर अपने एक पोस्ट में इस खबर की जानकारी देते हुए आडवाणी के साथ अपनी दो तस्वीरें भी पोस्ट की हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने लिखा, “मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि लालकृष्ण आडवाणी जी को भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा। देश के विकास के लिए उनके योगदान को कोई भूल नहीं सकता । उन्होंने ज़मीनी स्तर से काम शुरु किया था और वे देश के उप-प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे।”
हिन्दुस्तान की राजनीति में आडवाणी ने लंबा सफ़र तय किया है। चालीस के दशक में संघ के स्वयंसेवक से लेकर वाजपेयी सरकार में उप प्रधानमंत्री तक। वो चार बार राज्यसभा के सांसद रहे और सात बार लोकसभा के लिए चुने गए।
1977 में जनता पार्टी सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री बनने से पहले आपातकाल में लंबा समय जेल में बिताया। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अवतार जनसंघ में भी वो अध्यक्ष रहे और बीजेपी के भी सबसे लंबे समय तक और सबसे ज़्यादा बार अध्यक्ष रहने वालों में भी आडवाणी का नाम शामिल है। यह कहना भी ज़्यादा ठीक होगा कि संगठन के नजरिए से आडवाणी के बिना बीजेपी के मौजूदा स्वरूप और नेतृत्व की कल्पना नहीं की जा सकती।
आडवाणी ने “छद्म धर्मनिरपेक्षता” का नया शब्द गढ़ा था
1980 में गठन के बाद हुए 1984 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ़ दो सीटें हासिल करने वाली बीजेपी को 1996 में सरकार बनाने तक पहुंचाने में सबसे अहम भूमिका आडवाणी की रही है। बीजेपी में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, उमा भारती, नरेन्द्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान के अलावा दर्जनों नेता हैं जिन्हें राजनीतिक तौर पर आडवाणी ने गढ़ा है।जनता पार्टी से निकल कर जब भारतीय जनता पार्टी बनी तो वाजपेयी ने उसे “गांधीवादी समाजवाद” का विचार और रास्ता दिखाया, लेकिन पहले ही लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बुरी तरह से हार के बाद एक नया विचार शुरु हुआ और पार्टी ने “गांधीवादी समाजवाद” से “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” का रास्ता अख्तियार किया,जिस पर पार्टी अभी तक आगे बढ़ रही है।
उस वक्त धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का ज़ोर था तब आडवाणी ने “छद्म धर्मनिरपेक्षता” का नया शब्द गढ़कर एक बहस शुरु की । आडवाणी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धर्मनिरपेक्ष का मतलब हिन्दुत्व से घृणा करना या दूर रहना नहीं हो सकता।
आडवाणी के नेतृत्व में ही बीजेपी ने 1989 में राम जन्मभूमि में सक्रिय राजनीतिक भूमिका निभाने का फ़ैसला किया । वह प्रस्ताव खुद आडवाणी ने तैयार किया था और उसके अगले साल वो सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा पर निकल पड़े।
उनकी रथयात्रा अयोध्या तो नहीं पहुच पाई क्योंकि तब बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने 23 अक्टूबर को समस्तीपुर में उन्हें गिरफ्तार कर रथयात्रा पर ब्रेक लगा दिया, लेकिन वो आंदोलन नहीं रुका, बल्कि उसकी रफ्तार और ताकत में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई।
25 सितम्बर को जब सोमनाथ से लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरु की तो उसके संयोजक नरेन्द्र मोदी थे। आडवाणी का तब भी मकसद ना केवल रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का था बल्कि हिन्दुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने का रहा।
1992 में 6 दिसम्बर को आडवाणी बीजेपी के दूसरे नेताओं के साथ अयोध्या में मौजूद थे,लेकिन वो बाबरी मस्जिद ढहाने वालों को रोक रहे थे और जब ढांचा गिर रहा था, तब आडवाणी ने उत्तरप्रदेश के अपने ही मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को इस्तीफ़ा देने की सलाह दी थी। और 6 दिसम्बर को अपने जीवन का सबसे दुखद दिन कहा तो बहुत से लोगों ने उनकी आलोचना भी की।
आडवाणी के राजनीतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम रहा जब 1995 में उनका नाम हवाला कांड में लिया गया। आडवाणी ने ना केवल तुरंत लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया बल्कि ऐलान भी किया कि वो अपना नाम बेदाग़ हो जाने तक चुनाव नहीं लड़ेंगे।
इसी वजह से 1996 में जब पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार बनी तो उसमें आडवाणी नहीं थे। जबकि 1995 में आडवाणी ने ही वाजपेयी को बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था। उस पर तब बहुत हैरानी जताई गई थी क्योंकि तब आडवाणी अपने राजनीतिक शिखर पर थे।
तब आडवाणी को देना पड़ा था इस्तीफा
1998 से 2004 तक वाजपेयी सरकार में वो ना केवल नंबर दो पर रहे,बल्कि एनडीए गठबंधन को चलाने में भी उनकी अहम भूमिका रही। वह 2002 में उप प्रधानमंत्री बने और इसी साल नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बचाए रखने में भी उनकी अहम भमिका रही जबकि वाजपेयी ऐसा नहीं चाहते थे। बहुत से लोग मानते हैं कि आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा पूरी नहीं हो पाई जबकि उस वक्त संघ ने भी इस ओर कोशिश की थी।
आडवाणी के राजनीतिक सफ़र का सबसे मुश्किल दौर तब आया जब वह 2005 में अपनी पाकिस्तान यात्रा पर गए। इस दौरान वह जिन्ना की मजार पर गए और वहां जाकर जिन्ना को सेक्यूलर लीडर कहा। इसके बाद संघ ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी। पाकिस्तान से लौटने पर आडवाणी को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा भी देना पड़ा।
उसके बाद यूं तो 2009 में उन्हें बीजेपी ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया,लेकिन कामयाबी नहीं मिली। 2014 में बीजेपी में मोदी युग शुरु हुआ और उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी गांधीनगर सीट अमित शाह को मिल गई।
इसके बाद नब्बे के दशक में हिन्दू ह्रदय सम्राट माने जाने वाले आडवाणी का राजनीतिक एकाकीपन का दौर शुरु हो गया । प्रधानमंत्री मोदी उनके जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने पहुंचते रहे। राम जन्मभूमि आंदोलन में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले आडवाणी राम मंदिर के 2020 में हुए भूमि पूजन समारोह में दिखाई नहीं दिए और ना ही 22 जनवरी 2024 को राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में।
मगर हो सकता है कि गुरु की जीत और श्रेष्ठता अपने शिष्य के विजेता और सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने में होती हो और भारत रत्न का सम्मान उसकी गुरु दक्षिणा भी। आडवाणी जी को बहुत बधाई भी और शुभकामनाएं भी।
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