दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल पीएम नरेंद्र मोदी से मिलें और फिर कहें कि बातचीत बहुत अच्छी रही। वह भरोसा भी जताएँ कि मिलकर दिल्ली का विकास करेंगे तो यह बात पचती नहीं है। बात इसलिए नहीं पचती कि आख़िर केजरीवाल को प्रधानमंत्री मोदी पर कब से भरोसा होने लगा। चंद दिन पहले ही तो वह कहते फिर रहे थे कि मोदी-शाह की जोड़ी देश के लिए सबसे ज़्यादा हानिकारक और ख़तरनाक है। एक बार जोड़ी फिर से आ गई तो देश में कभी चुनाव नहीं होंगे। अब उस जोड़ी के आ जाने पर केजरीवाल दौड़े-दौड़े प्रधानमंत्री मोदी को बधाई देने भी जा पहुँचें, मुलाकात को अच्छा भी कहें, मिलकर विकास का भरोसा भी जताएँ और साथ ही आयुष्मान भारत को भी दिल्ली में लागू करने पर विचार की सहमति दे दें, तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है ‘बदले-बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं’।
आख़िर केजरीवाल का यह हृदय परिवर्तन हो रहा है या फिर सब दिखावा है। आपको वह तो याद होगा जब राहुल गाँधी संसद में मोदी जी के गले जा लगे थे। कुछ लोग उसे गले पड़ना भी कह रहे थे क्योंकि उसके बाद राहुल गाँधी ने आँख मारकर ख़ुद ही बता दिया था कि वह मोदी जी की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। कहीं केजरीवाल ने भी ऐसा ही कुछ नहीं किया या वाक़ई वह मोदी जी के नज़दीक जाने की कोशिश कर रहे हैं?
केजरीवाल जितने चालाक हैं, वह कोई भी बात यूँ ही नहीं कह डालते। पिछले छह साल की राजनीति में उन्होंने जैसा चरित्र दिखाया है, उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि केजरीवाल को प्रधानमंत्री मोदी पर कोई भरोसा हो गया है।
जो व्यक्ति उठते-बैठते, खाते-पीते या कहीं भी मोदी जी को कोसने के अलावा कुछ और नहीं करता, उसकी नज़र में भला मोदी जी कैसे भरोसेमंद हो सकते हैं। जो व्यक्ति मोदी जी को ‘कॉवर्ड और साइकोपैथ’ यानी ‘कायर और मनोरोगी’ तक कह सकता हो, वह व्यक्ति मोदी जी की जीत पर बधाई देने पहुँचे और उन पर भरोसा जताए तो फिर यही शक पैदा होता है कि यह ‘कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना’ वाली बात ही है। जो बात समझ में आती है, वह यही हो सकती है कि केजरीवाल के दिमाग में कुछ न कुछ खुराफात ज़रूर चल रही है वरना यह आदमी यूँ ही जाकर मोदी जी को बधाई नहीं दे सकता और फिर ट्विट करके यह नहीं कह सकता कि हम मिलकर दिल्ली का विकास करेंगे। अब तक तो वह यही कहते रहे हैं कि हम दिल्ली का विकास करना चाहते हैं लेकिन मोदी जी करने नहीं देते।
केजरीवाल का ‘निंदा पुराण’
केजरीवाल ने जब राजनीति में क़दम रखा तो फिर उनका ‘निंदा पुराण’ तभी से ही शुरू हो गया था। उन्होंने किसी को भी नहीं बख़्शा। मनमोहन सिंह की सरकार के डेढ़ दर्जन मंत्रियों पर तो उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए ही थे, सोनिया, राहुल और उनके दामाद रॉबर्ट वाड्रा को भ्रष्ट कहने से भी वह नहीं चूके थे। लालू यादव से लेकर विपक्ष के तमाम नेताओं को भी उन्होंने इतनी गालियाँ दी थीं कि जनता को विश्वास होने लगा था कि केजरीवाल तो इन सबसे अलग हैं। बीजेपी नेताओं के बारे में तो वह कल तक इतना कुछ कह चुके हैं कि अगर उनका बस चले तो फिर उन सभी को देश निकाला ही दे दें। दिल्ली में जब उन्होंने शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ 350 पेज की फ़ाइल होने की बात कही और यह भी दावा किया कि आते ही उन्हें जेल भिजवा दूँगा तो जनता को उन पर जैसे ब्लाइंड फ़ेथ हो गया। यही एक वजह थी कि 2013 और 2015 के विधानसभा चुनावों में जनता ने आँख मूँदकर केजरीवाल की झोली वोटों से भर दी।
मगर, ग़ौर करें कि उसके बाद केजरीवाल ने क्या नहीं किया। जिन लोगों को दुनिया का सबसे बेइमान बताया, उन्हीं के साथ मंच साझा किया, उन्हीं के साथ गलबइयाँ कीं और फिर उन्हीं के साथ चुनाव में समझौता करने के लिए लालायित हो बैठे। यही नहीं, केजरीवाल ने जितने लोगों को बेइमान कहा, उन सबसे फिर माफ़ी भी माँग ली। उन बीजेपी और कांग्रेस नेताओं से भी माफ़ी माँगने में शर्म महसूस नहीं की जिनपर आरोप लगाकर उन्होंने जनता को अपने पक्ष में किया था।
मोदी पर हमलावर रहे हैं केजरीवाल
अगर ग़ौर करें तो ख़ासतौर पर उन्होंने पीएम मोदी को अपने निशाने पर रखा है। उन्होंने दिल्ली चुनावों में तो ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे वे चुनाव मोदी वर्सेज केजरीवाल के बीच हो रहे हों। हुआ भी यही और जब केजरीवाल को एकतरफ़ा जीत मिली तो उनकी ज़ुबान और भी लंबी हो गई थी। हाँ, कुछ वक़्त के लिए यह ज़ुबान ज़रूर थमी थी-एक बार तब जब वह अपनी ज़ुबान का ऑपरेशन कराकर आए थे और दूसरी बार तब जब दिल्ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी को ज़बरदस्त हार का सामना करना पड़ा था। तब पार्टी के कुछ नेताओं ने उन्हें यह सलाह दी थी कि मोदी विरोध की अति होने के कारण जनता ने आम आदमी पार्टी को वोट नहीं दिया। कुछ दिन बाद इस सलाह का रंग उतर गया और केजरीवाल एंड पार्टी ने फिर से यही कहना शुरू कर दिया कि हम काम करते रहे और वो रोकते रहे।
यह सवाल ज़रूरत दिमाग में घूमता है कि कहीं एक बार फिर केजरीवाल के दिमाग में यही योजना तो नहीं घूम रही। दिल्ली के विधानसभा चुनाव अब ज़्यादा दूर नहीं हैं। अगर बाक़ी चार राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के साथ चुनाव हुए तो अक्टूबर में ही दिल्ली में भी चुनाव हो सकते हैं। अक्टूबर में नहीं तो फिर दिसंबर-जनवरी में तो चुनाव होने ही हैं। अभी बहुत सारे चुनावी वादे बाक़ी हैं। फ़्री वाई-फाई का इंतज़ार है, सीसीटीवी कैमरे बस अब लगने शुरू ही हुए हैं, पिछले साढ़े चार सालों में डीटीसी के बेड़े में एक भी बस नहीं आई, कच्ची कॉलोनियों में अभी बहुत काम बचा हुआ है, मुफ़्त मेट्रो सवारी अभी लटकी हुई है, पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है, यमुना की सफ़ाई का अता-पता नहीं है...वगैरह-वगैरह।
मंशा क्या है?
लोकसभा चुनावों में जनता ने आम आदमी पार्टी को पूरी तरह नकार दिया है। ऐसी सूरत में फिर से यह माहौल बनाना ज़रूरी है ताकि यह लगे कि हम तो सारे काम करना चाहते थे लेकिन केंद्र सरकार हमें काम नहीं करने दे रही। इस आरोप के लिए आधारशिला रख दी गई है। अब इसी आरोप का बड़ा गुब्बारा फुलाया जाएगा। लगता है, यही भूमिका बनाई जा रही है। पहले तो यह कहेंगे कि हमने तो मोदी जी पर भी भरोसा जताया था कि दोनों मिलकर दिल्ली का विकास करेंगे लेकिन फिर भी हमें काम नहीं करने दिया जा रहा। जो भी चुनावी वादे पूरे नहीं हुए या फिर आधे-अधूरे ही पूरे हुए हैं, उन सबका दोष केंद्र पर डाला जाएगा। कहीं इसीलिए तो मोदी जी से मुलाक़ात का बहाना नहीं ढूँढा गया। केजरीवाल ने पिछले छह साल में जो कुछ भी किया है, उसे देखकर यह नहीं माना जा सकता कि जब गले से मिल गए तो सारा गिला जाता रहा। बात तो कुछ और है। वह क्या है, अगले कुछ दिनों में साफ़ हो जाएगा। अभी तो बीजेपी ने पूरे देश में विपक्ष को धराशायी कर दिया है। अभी से उसके ख़िलाफ़ ज़्यादा ज़हर उगलना लोगों को पसंद भी नहीं आएगा। इसलिए अभी मुलाक़ात हुई है, बात हुई है। यह बात दूर तलक जाएगी। मंशा क्या है, अगले कुछ दिनों में साफ़ हो जाएगा।
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