दिल्ली में महिलाओं को मेट्रो और डीटीसी में मुफ़्त सफर का मजा कब मिल पाएगा, यह तो अभी तय नहीं हो पाया लेकिन दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने अगले चुनावों का एजेंडा ज़रूर तैयार कर लिया है। लोकसभा चुनावों में पूर्ण राज्य का मुद्दा तो फुस्स हो गया, अगले साल के शुरू में होने विधानसभा चुनावों के लिए केजरीवाल ने यह मुद्दा ढूंढ लिया है। जिस तरह पूर्ण राज्य के दर्जे को दिल्ली की हर समस्या की चाबी कहा जा रहा था, उसी तरह अब मेट्रो में मुफ़्त सफर को महिलाओं के लिए गेम चेंजर की तरह पेश किया जा रहा है। महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं का सशक्तिकरण, महिलाओं की आज़ादी, महिलाओं के लिए रोज़गार और प्रदूषण से लड़ने के लिए इस योजना को रामबाण की तरह पेश किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ मेट्रो ने इस योजना पर जो जवाब दिया है और मेट्रो मैन श्रीधरन ने जिस तरह इस योजना का विरोध किया है, उससे यह तय हो गया है कि यह काम आसान नहीं है। केजरीवाल सरकार को इस बात की फ़िक्र नहीं होगी कि यह योजना लागू हो पाएगी या नहीं। उनके हाथ में एक मुद्दा है और साथ में यह आरोप है कि हम तो इसे लागू करना चाहते हैं लेकिन केंद्र सरकार ही लागू नहीं होने देना चाहती।
दिल्ली में दिसंबर 2002 में मेट्रो की शुरुआत हुई थी। मेट्रो ने दिल्ली की दुनिया बदल दी। अब सवाल यह है कि अगर महिलाओं के लिए मेट्रो मुफ़्त हो जाएगी तो फिर उसका क्या नुक़सान होगा? केजरीवाल सरकार इसे महिलाओं के लिए मुफ़्त नहीं मान रही। उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने श्रीधरन के पत्र के जवाब में जो चिट्ठी लिखी है, उसमें कहा है कि दिल्ली सरकार महिलाओं के लिए टोकन ख़रीदकर उसे बाँटेगी तो फिर यह सब्सिडी या मुफ़्त कहाँ से हुआ। मेट्रो का इसमें कोई नुक़सान नहीं है। मेट्रो ने ख़ुद माना है कि अगर महिलाओं की सवारी मुफ़्त हो गई तो फिर महिला यात्रियों की तादाद 50 फ़ीसदी बढ़ जाएगी। इस वक़्त मेट्रो में रोज़ाना क़रीब 25 लाख यात्री सफर करते हैं। इनमें से क़रीब 8 लाख महिलाएँ होती हैं। सवारी मुफ़्त होने के बाद यह तादाद 12 लाख हो जाएगी। इस तरह मेट्रो को क़रीब 4 लाख सवारी रोज़ मिलेंगी। इनके लिए दिल्ली सरकार टोकन ख़रीदेगी। ज़ाहिर है कि मेट्रो को फ़ायदा होगा। वैसे भी तीसरे चरण की समाप्ति के बाद मेट्रो की फुल कैपेसिटी 40 लाख यात्रियों को ढोने की है। अभी 15 लाख यात्रियों को और मेट्रो पर सवार किया जा सकता है।
मेट्रो फ़ायदे या नुक़सान में?
दिल्ली सरकार के इन तर्कों पर बात करने से पहले मेट्रो के फ़ायदे और नुक़सान को भी देखना होगा। दिल्ली में 2013-14 के बाद जब मेट्रो का दूसरा चरण पूरा हो गया था तो मेट्रो का ऑपरेशनल यानी परिचालन वाला नुक़सान ख़त्म हो गया था। तकनीकी रूप से देखें तो ऑपरेशनल का मतलब है मेट्रो को चलाने का ख़र्च और टिकट के रूप में प्राप्त आमदनी। 2018 में ऑपरेशनल के हिसाब से मेट्रो 375 करोड़ रुपए के फ़ायदे में है लेकिन मेट्रो इस समय भी भारी क़र्ज़ में डूबी हुई है। उसे जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी का 25 हज़ार करोड़ के क़र्जे़ का भुगतान करना है। उस पर जाने वाला ब्याज, डेप्रिसिएशन और बाक़ी ख़र्चों को मिला लिया जाए तो 2018 में मेट्रो 145 करोड़ के नुक़सान में खड़ी दिखाई देती है। यह तो तब है जब 2017 में मेट्रो का किराया लगातार दो बार बढ़ाया गया और वह लगभग डबल हो गया। केजरीवाल तभी से मेट्रो को अमीरों की सवारी कह रहे हैं और किराए बढ़ने का विरोध करते आ रहे हैं। मेट्रो में दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार की फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी भागीदारी है लेकिन वह कहते हैं कि हम सिर्फ़ ख़र्चे में भागीदार हैं, मेट्रो के परिचालन में नहीं।
1566 करोड़ का अतिरिक्त बोझ
बहरहाल, वह एक अलग विवाद है लेकिन अब अगर मेट्रो को महिलाओं के लिए मुफ़्त सफर के लिए तैयार करना है तो मेट्रो पर 1566 करोड़ रुपए का अलग बोझ आने वाला है। दिल्ली सरकार के प्रस्ताव पर मेट्रो ने दो तरीक़े बताए हैं। पहला तो यह कि सभी महिलाओं को यह सुविधा दे दी जाए लेकिन इसके लिए सॉफ्टवेयर में बदलाव करना होगा जिसमें सालभर लग सकता है। दूसरा प्रस्ताव यह है कि सभी महिलाओं को पिंक टोकन जारी कर दिए जाएँ लेकिन यह भी आसान नहीं है। इसके लिए अलग काउंटर बनाने होंगे और महिलाओं के लिए अलग गेट बनाने होंगे। महिलाओं को बिना पैसे दिए उनको टोकन मिलेगा। इस योजना पर भी मेट्रो के हिसाब से इसमें 8 महीने लगेंगे अभी 170 स्टेशन में टोकन की सुविधा बंद है। इसे फिर से शुरू करना होगा।
सवाल यह है कि महिलाओं के लिए मेट्रो में मुफ़्त सवारी की योजना पर 1566 करोड़ की यह राशि कौन ख़र्च करेगा या उसका बोझ कौन उठाएगा?
केजरीवाल सरकार को भले ही यह लगता है कि मेट्रो अभी 65 फ़ीसदी कैपेसिटी का ही इस्तेमाल कर पाई है लेकिन दुनिया भर में कहीं भी कोई ट्रांसपोर्ट सिस्टम अपने ऑपरेशन का सौ फ़ीसदी इस्तेमाल नहीं कर पाता। देखा यह जाता है कि पीक ऑवर्स में वह कितना बोझ उठा सकती है और उतना उठा रही है या नहीं। इस मामले में मेट्रो की ख़ासतौर पर द्वारका और गुरुग्राम वाली लाइन को देखा जा सकता है। वहाँ पीक ऑवर्स में तिल रखने को भी जगह नहीं होती। ऐसे में यात्रियों की और भीड़ क्या सितम ढाएगी और ख़ासतौर पर महिला यात्रियों को किस तरह की परेशानी झेलनी होगी, यह भी सोचना होगा। उस हालत में महिला सुरक्षा के दावे की तो और धज्जियाँ उड़ जाएँगी।
योजना में हैं कई पेच
इस बात से कोई इनकार नहीं कर रहा कि केजरीवाल ने ठीक चुनावों से पहले यह सुविधा देने की घोषणा करके राजनीतिक दाँव खेला है। उन्हें पता है कि यह योजना आसानी से लागू नहीं होगी। इसलिए वह अपने दोनों हाथों में लड्डू देख रहे हैं। योजना लागू हो गई तो पूरा श्रेय केजरीवाल को मिलेगा और नहीं हो पाई तो ठीकरा केंद्र और बीजेपी के सिर पर फोड़ा जाएगा। केजरीवाल मेट्रो में सफर करने को महिला सुरक्षा से जोड़ रहे हैं लेकिन उनसे यह कोई नहीं पूछ रहा कि उन्होंने महिला सुरक्षा के लिए हर डीटीसी बस में मार्शल बिठाने का जो वादा किया था, उसका क्या हुआ। बहुत कम बसों में यदा-कदा ही वे नज़र आते हैं। इधर मेट्रो के 70 फ़ीसदी से ज़्यादा स्टेशन दिन में भी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं हैं। आए दिन ये ख़बरें आती हैं कि अंधेरा होने के बाद तो स्थिति बहुत ही ख़राब हो जाती है। केजरीवाल इसका सारा दोष पुलिस पर नहीं मढ़ सकते क्योंकि दिल्ली के डार्क स्पॉट्स को ढूंढने और उन्हें सुरक्षित करने की ज़िम्मेदारी तो दिल्ली सरकार पर भी है। बिजली विभाग तो दिल्ली सरकार के पास ही है। इसके अलावा मेट्रो की लास्ट माइल क्नेक्टिविटी का मामला भी दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। इन स्टेशनों पर पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुहैया कराने में दिल्ली सरकार पूरी तरह नाकाम रही है।
इसलिए मेट्रो में सफर करने वाली महिला सिर्फ़ मेट्रो में ही तो नहीं बैठी रहेगी। उसे बाहर भी निकलना है या मेट्रो स्टेशन तक भी पहुँचना है। आख़िर उस रास्ते पर महिला सुरक्षा की क्या स्थिति है, इस पर केजरीवाल सरकार ने कभी कुछ नहीं सोचा है। इस बात का भी कोई मज़बूत आधार नहीं है कि अगर मेट्रो की मुफ़्त सवारी होगी, तभी महिलाएँ नौकरी के लिए निकलेंगी या फिर उनके घर का सारा अर्थशास्त्र ही मेट्रो में मुफ़्त सवारी से सुधर जाएगा।
केजरीवाल की यह योजना क्यों?
‘बिजली हाफ़ और पानी माफ़’ के नारे पर वह 2015 का चुनाव जीती थी लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में सातों सीटों पर बुरी तरह हारने के बाद उसे अहसास हुआ कि उस खैरात का असर ख़त्म हो गया है। अब जनता की जेब में और पैसा डालना होगा। दिल्ली सरकार पिछले पाँच सालों में सिर्फ़ बिजली की सब्सिडी के नाम पर प्राइवेट कंपनियों को 10 हज़ार करोड़ रुपए की सब्सिडी दे चुकी है। दिल्ली जल बोर्ड जो 500 रुपए सालाना फ़ायदे में था, 1500 करोड़ के नुक़सान में दब चुका है। सिग्नेचर ब्रिज़ को दिल्ली सरकार सबसे ख़र्चीली योजना मानती है और उस पर 1600 करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे। ज़रा हिसाब लगाइए कि जितनी राशि सब्सिडी में लुटाई जा रही है, उससे दिल्ली में कितना इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा हो जाता। आज दिल्ली की सड़कों की हालत बहुत ख़राब है। दिल्ली में सफ़ाई व्यवस्था चौपट हो चुकी है, क्योंकि दिल्ली सरकार नगर निगमों को इतना पैसा ही नहीं देती कि उसके सफ़ाई कर्मचारियों की सैलरी ही दी जा सके।
दिल्ली सरकार का बजट 30 हजार करोड़ से 60 हजार करोड़ हो चुका है लेकिन नगर निगम को पैसा देते वक़्त वे 2013 से तुलना करते हैं। इस दौरान दिल्ली में कितनी नई कॉलोनियाँ बन गईं, कितनी जनसंख्या बढ़ गई या सफ़ाई मद पर कितना ख़र्च बढ़ गया, यह कभी नहीं सोचा। एक मूल सवाल यह है कि क्या दिल्ली की सफ़ाई ज़रूरी है या फिर महिलाओं की मुफ़्त सवारी। मुफ़्त सवारी पर इस साल के बाक़ी छह महीनों में ही दिल्ली सरकार पर 800-900 करोड़ का ख़र्च आ जाएगा, इतनी राशि ख़र्च करके अगर दिल्ली सरकार दिल्ली की सफ़ाई करा देती तो क्या वह ज़्यादा ठीक नहीं होता लेकिन उससे वोट मिलेंगे, यह तय नहीं है। आज सारी दुनिया में सब्सिडी ख़त्म करने वाली अर्थव्यवस्थाएँ बनाई जा रही हैं लेकिन दिल्ली सरकार उल्टी दिशा में चल रही है। ऐसा लगता है कि सिर्फ़ खैरात बाँटकर ही वोट ख़रीदे जा सकते हैं। अगर नीयत साफ़ है तो सिर्फ़ ज़रूरतमंदों को सब्सिडी मिले-यह नीति क्यों नहीं बनाई जाती।
मेट्रो मैन श्रीधरन ने आशंका ज़ाहिर की है कि मुफ़्त सवारी की यह योजना सिर्फ़ दिल्ली में नहीं रुकेगी, दूसरे राज्यों में भी लोग यही माँग करेंगे।
दिल्ली मेट्रो के एक्ट में मुफ़्त सवारी या सब्सिडी का कोई उल्लेख ही नहीं है। हालाँकि दिल्ली सरकार का कहना है कि हम मुफ़्त सवारी नहीं माँग रहे लेकिन सच्चाई यह है कि दिल्ली सरकार के पास तो जनता के टैक्स का भरपूर पैसा है और वह सब्सिडी में लुटा भी सकती है लेकिन दूसरे राज्यों में जब यह माँग उठेगी तो वे सरकारें क्या करेंगी? उन पर तो मुफ़्त सवारी का दबाव पड़ेगा तो सीधा असर दूसरी योजनाओं पर होगा। आख़िर इस पहलू को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।
डीटीसी में मुफ़्त सवारी कैसे?
दिल्ली सरकार पर इसलिए भी शक होता है कि वह मेट्रो के साथ-साथ डीटीसी में भी महिलाओं की सवारी मुफ़्त करना चाहती है। डीटीसी में मुफ़्त सवारी तो वह आज भी कर सकती है क्योंकि ट्रांसपोर्ट विभाग उसके अपने पास है लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही। इसकी बजाय वह मेट्रो पर जोर देकर टकराव को बढ़ा रही है। यह बात दीगर है कि दिल्ली में डीटीसी की 3 हज़ार बसें ही सड़कों पर आती हैं जबकि 13 हज़ार बसों की ज़रूरत है। जब से आप सरकार आई है, पिछले पाँच सालों में डीटीसी के बाड़े में एक भी बस नहीं आई। महिलाओं को बसों में मुफ़्त सवारी ठीक वैसी ही है जैसे मुफ़्त पानी। पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। ऐसे में मुफ़्त पानी का कोई मतलब ही नहीं रहा। इसी तरह अगर बस ही नहीं होगी तो फिर मुफ़्त सवारी का क्या अर्थ रह जाएगा।
कुल मिलाकर केजरीवाल सरकार की निगाहें महिलाओं को सुविधा देने की तरफ है लेकिन निशाना अगले विधानसभा चुनावों में वोट लेने पर है। अब देखना यही है कि वह इस बार सफल होती है या नहीं।
अपनी राय बतायें