दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की एक बड़ी ग़लती की वजह से गुरुवार को आनन-फ़ानन में आम आदमी पार्टी की पॉलिटिकल अफ़ेयर्स कमेटी (पीएसी) की बैठक बुलानी पड़ी। बैठक में राज्यसभा सदस्य संजय सिंह को दिल्ली का प्रभारी बना दिया गया। हैरानी की बात यह है कि इन दिनों दिल्ली का सारा भार गोपाल राय अपने कंधों पर लेकर चल रहे थे। वह पूरी दिल्ली में घूम-घूमकर जन-संवाद कर रहे थे और यह माना जा रहा था कि प्रदेश संयोजक होने के नाते दिल्ली के फ़ैसलों में उनकी अहम भूमिका होगी लेकिन एकाएक संजय सिंह को प्रभारी बना दिया गया।
संजय सिंह को प्रभारी बनाने की वजह यह रही कि बुधवार को किराएदारों को बिजली कनेक्शन की सुविधा देने की घोषणा वाली प्रेस कॉन्फ़्रेंस से निकलते हुए अरविंद केजरीवाल की जुबान फिसल गई। राजनीति में कई बार सिर्फ़ एक बात ही दूर तक निकल जाती है।
केजरीवाल से पत्रकारों ने पूछा कि दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष मनोज तिवारी दिल्ली में नेशनल सिटिजन रजिस्टर यानी एनआरसी की मांग कर रहे हैं, इस पर आपका क्या कहना है। केजरीवाल न जाने किस पिनक में थे। उन्होंने कह दिया कि अगर एनआरसी लागू हो गई तो फिर सबसे पहले मनोज तिवारी को दिल्ली से जाना होगा। यह सुनते ही पत्रकार तो सन्न रह गए लेकिन बीजेपी को हाथों-हाथ एक मुद्दा मिल गया।
एनआरसी के जरिए असम में विदेशियों की पहचान की बात कही गई थी और अब बीजेपी हर राज्य में इसे लागू करने की बात कह रही है। निशाना जो भी हो, लेकिन दिल्ली से विदेशियों को निकालते-निकालते केजरीवाल दूसरे राज्यों से दिल्ली में आए लोगों को निकालने की बात कह बैठे। वह या तो एनआरसी का मतलब नहीं समझते या फिर किसी और ग़लतफहमी में इतनी बड़ी बात कह गए।
बीजेपी ने इसे लपक लिया और इसका मुंह पूर्वांचलियों की तरफ़ मोड़ दिया। मनोज तिवारी ने कहा कि केजरीवाल दिल्ली में बसे पूर्वांचलियों को विदेशी मान रहे हैं और इसीलिए वह कह रहे हैं कि मनोज तिवारी को जाना होगा। यह बात पूर्वांचलियों में आग की तरह फैल गई।
राज्यसभा सदस्य संजय सिंह को पूर्वांचली नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया जाता है। इसीलिए केजरीवाल ने डैमेज कंट्रोल करने के लिए संजय सिंह को दिल्ली का प्रभारी बना दिया। वह यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होंने तो दिल्ली की बागडोर ही पूर्वांचली के हाथ में सौंप दी है। पीएसी की मीटिंग में पंकज गुप्ता को प्रचार अभियान का इंचार्ज बनाया गया लेकिन वह इसलिए किया गया कि संजय सिंह की इकलौती घोषणा से सब समझ जाएंगे कि केजरीवाल डैमेज कंट्रोल कर रहे हैं।
वैसे, सिर्फ़ 24 घंटे से भी कम समय में संजय सिंह की नियुक्ति से सारी बात सभी की समझ में आ गई। इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि दिल्ली में पूर्वांचली वोटों का कितना महत्व है और उनके साथ किसी खिलवाड़ के क्या मायने होते हैं। केजरीवाल को यह भी पता है कि अगर पूर्वांचल के वोटर नाराज हो गए तो फिर दिल्ली में आम आदमी पार्टी का कोई आधार ही नहीं बचता। यही वजह है कि वह डैमेज कंट्रोल में जुट गए।
बीजेपी ने जाहिर किये इरादे
आम आदमी पार्टी (आप) को 2015 विधानसभा चुनाव में मिली प्रचंड जीत में पूर्वांचल के वोटों का सबसे बड़ा हाथ रहा है। बिजली हाफ़ और पानी माफ़ का सबसे बड़ा नारा भी उनके बीच ही चला। अब ‘आप’ को कितना नुक़सान हुआ है, इसका अंदाजा अभी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि बीजेपी इस मुद्दे को यूं ही नहीं जाने देगी। बीजेपी ने गुरुवार को ही केजरीवाल के घर के बाहर प्रदर्शन करके यह साफ़ जता दिया है कि जाने-अनजाने पूर्वांचलियों को छेड़कर केजरीवाल ख़ुद ही फंस गए हैं।
तेजेंद्र, शीला को देनी पड़ी थी सफ़ाई
यह पहली बार नहीं है कि पूर्वांचल के वोटों का मुद्दा इतना अहम बना है। मुझे याद है कि एक बार प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उपराज्यपाल तेजेंद्र खन्ना ने कह डाला था कि दिल्ली में रहने वालों को अपने साथ कोई न कोई आईडी प्रूफ़ लेकर चलना होगा। इस पर भारी हंगामा हुआ और माना गया कि दिल्ली से पूर्वांचलियों को निकालने की साज़िश हो रही है। इस पर उन्हें सफ़ाई देनी पड़ी थी।
इसी तरह एक बार शीला दीक्षित ने एक समारोह में कह दिया था कि दिल्ली में जो भी आता है, दिल्ली का होकर रह जाता है और इससे दिल्ली पर बोझ बढ़ता है। बस, सभी उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे। तब शीला को भी सफ़ाई देनी पड़ी थी और कहना पड़ा था कि दिल्ली में इतनी सुविधाएं हैं, इतना आकर्षण है कि लोग दिल्ली के होकर रह जाते हैं।
आख़िर क्या कारण है कि दिल्ली में पूर्वांचल के लोगों का राजनीति में इतना वर्चस्व हो गया है और क्या कारण है कि कोई भी पार्टी उन्हें नाराज करने का जोख़िम नहीं ले सकती?
वैश्य, पंजाबी समुदाय का रहा दबदबा
अब से 20 साल पहले की दिल्ली को देखें तो दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस में दो समुदायों का दबदबा था और वे थे वैश्य और पंजाबी। आमतौर पर वैश्य पुरानी दिल्ली के बाशिंदे थे और पंजाबियों में ज़्यादातर विभाजन के बाद दिल्ली आकर बसे लोग थे। दिल्ली बीजेपी में केदारनाथ साहनी, बलराज मधोक, विजय कुमार मलहोत्रा, मदन लाल खुराना, चरती लाल गोयल, कंवरलाल गुप्ता वगैरह या तो पंजाबी थे या फिर वैश्य। इसी तरह कांग्रेस में भी एच.के.एल. भगत, किशोर लाल, जगप्रवेश चंद्र, ओमप्रकाश बहल और अब अजय माकन यानी पंजाबी लॉबी हावी रही है। हालांकि कांग्रेस में कभी चौ. ब्रह्यप्रकाश, ब्रजमोहन शर्मा, मीर मुश्ताक अहमद, सुभद्रा जोशी वगैरह भी छाए रहे लेकिन कुल मिलाकर कमान हमेशा ही वैश्य या पंजाबियों के हाथों में रही।
दिल्ली के हालात अब बदल चुके हैं। खासतौर पर 80 और 90 के दशक में दिल्ली में बड़े पैमाने पर अवैध कॉलोनियां बनीं। यूपी और बिहार से बड़ी संख्या में लोग दिल्ली आए और इन कॉलोनियों में उन्होंने सिर छुपाने का आसरा बनाया। धीरे-धीरे उनकी तादाद बढ़ती चली गई और साथ ही बढ़ता चला गया राजनीतिक रुतबा।
आज दिल्ली में एक करोड़ 43 लाख वोटर हैं और माना जाता है कि इनमें से क़रीब 50 लाख पूर्वांचल से संबंध रखते हैं। अब दिल्ली की राजनीति का दामन पंजाबी और वैश्य समाज के हाथ से छिटककर पूर्वांचल के वोटरों के हाथों में चला गया है।
लालबिहारी तिवारी को बनाया था मंत्री
पूर्वांचली वोटों को अपनी तरफ़ खींचने का सबसे पहला प्रयास बीजेपी ने किया था जब उन्होंने 1993 की खुराना सरकार में लालबिहारी तिवारी को मंत्री बनाया था। बाद में उन्हें 1998 के लोकसभा उपचुनाव में पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार भी बना दिया गया और उन्होंने शीला दीक्षित को मात भी दे दी। उसके बाद से पूर्वांचल वोटों का मतलब और उसकी ताक़त राजनीतिक दलों को समझ आने लगी।
कांग्रेस ने 2009 में महाबल मिश्रा को पश्चिमी दिल्ली से उम्मीदवार बनाकर पूर्वांचली वोटों को अपनी तरफ़ खींचने का पासा फेंका था और कांग्रेस को सफ़लता भी मिली थी।
आज अगर दिल्ली के इलाक़ों को देखें तो बुराड़ी, किराड़ी, संगम विहार, पटपड़गंज, विकासपुरी, उत्तम नगर, द्वारका, मटियाला, नज़फगढ़, घोंडा, बादली, पालम, बदरपुर, लक्ष्मी नगर, सीमापुरी, करावल नगर, रिठाला, बवाना, नांगलोई, मंगोलपुरी और सुलतानपुरी समेत कुल मिलाकर 22 ऐसी सीटें हैं जिनमें पूर्वांचल के वोटों का बोलबाला है। यह माना जाता है कि इन सीटों पर पूर्वांचल के वोटर जीत-हार पर बड़ा असर डालते हैं।
दिल्ली की 70 में से अगर एक-तिहाई सीटों पर पूर्वांचली निर्णायक स्थिति में हों और कुल मिलाकर 50 लाख वोटर हों तो फिर उन्हें नाराज करने का जोख़िम कोई कैसे उठा सकता है।
यही वजह है कि जब केजरीवाल के मुंह से अचानक निकल गया कि मनोज तिवारी को दिल्ली से जाना होगा तो उस वक़्त वह भूल बैठे कि इस लिहाज से तो वह ख़ुद भी दिल्ली के नहीं हैं। दिल्ली की 75 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी बाहर से दिल्ली में आकर बसे लोगों की है। केजरीवाल ने एनआरसी का ग़लत मतलब निकालकर उन सब लोगों को भी शक के दायरे में ला खड़ा किया है।
संजय सिंह को दिल्ली की बागडोर सौंपकर केजरीवाल अब पूर्वांचल के वोटरों को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। हो सकता है कि अब लिट्टी-चोखा का सामूहिक भोज भी हो। उनके घरों में जाकर रातें भी बिताएं और उन्हें अपना बनाने की कसमें भी खाएं। केजरीवाल उन्हें पटाने के लिए कोई भी नौटंकी कर सकते हैं लेकिन क्या बीजेपी और कांग्रेस यह तमाशा देखते रहेंगे या फिर वे इस मुद्दे को चुनावों तक जिंदा रखेंगे, अब यही देखना महत्वपूर्ण होगा।
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