हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
जीत
हेमंत सोरेन
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कल्पना सोरेन
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‘अवतार किशन हंगल तो बड़ा ख़ूबसूरत नाम है! आपने एंग्लोसाइज़ करके इसे ए के हंगल क्यों कर लिया? क्या फ़िल्म इंडस्ट्री में घुसपैठ की ख़ातिर?’
मेरा सवाल सुनकर वह ज़ोर से ठहाका लगाते हैं।
उन्हें लेकर मेरे भीतर कुछ देर पहले घर कर आए मुग़ालते, एक-एक करके टूटते चले गए।
यह सन 2002 का वाक़या है। हंगल साहब हाल ही में 'इप्टा' के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे। हमारी पहली मुलाक़ात थी। सड़क पर हमारी टैक्सी जितनी तेज़ रफ़्तार से दौड़ रही थी, उससे ज़्यादा रफ़्तार से मेरा दिमाग़ उनकी परिकल्पना की तलाश में भागा जा रहा था। मैं अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में उनका प्रोफ़ाइल ढूँढ रहा था। पचहत्तर से ज़्यादा वसंत पार कर चुके ए के हंगल कभी झुकी कमर वाले एक जीर्ण-शीर्ण बूढ़े का अक्स लेकर उभरते, कभी पति से दुखी होकर ससुराल से लौटी बेटी के कमर झुके 'अभिमान' का पिता बनकर। अचानक बिना पेंशन गुज़र-बसर करता 'दीवार' का एक फटीचर रिटायर्ड स्कूल टीचर मुँह लटकाये सामने आ जाता है तो कभी टटोल-टटोल कर आगे खिसकते 'शोले के नेत्रहीन इमाम की तसवीर दिखाई देने लग जाती है। बहुत सी आकृतियाँ और उनके कोलाज एक-दूसरे के ऊपर चढ़ते-उतरते गड्डमड्ड होते जाते हैं।
यह उनके कोई रिश्तेदार का घर है। शायद भांजे का। नयी दिल्ली के 'साउथ एक्स' की एक कोठी के बड़े से ड्राइंग रूम में मुझे ले जाकर बैठा दिया जाता है।
‘गुड मॉर्निंग शुक्ला जी।’ मैं अभी पानी के गिलास के एक-दो घूँट ही ले पाता हूँ कि मेरे ठीक पीछे ऊपर से ज़ोरदार कड़क आवाज़ बुलंद हुई। मैं हड़बड़ा कर खड़ा हो जाता हूँ। हंगल साहब धड़धड़ाते हुए सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे। साइड रेलिंग पकड़ कर खट-खट करती उनकी हर जवांमर्द पदचाप मेरी परिकल्पना में कुछ देर पहले तक उभर आए ‘झुकी स्पाइन वाले बूढ़े’ के उनके 'पर्सोना' को तार-तार करती जा रही थी। पल भर में वह मेरे सामने आन खड़े होते हैं। हल्के सिंदूरी रंग की झक्कास शर्ट पर कंट्रास्ट टाई, सीधा तना हुआ जिस्म। 'शेक हैंड’ के लिए उन्होंने झटके से हाथ बाहर निकाला।
वह सामने वाले सोफ़े पर बहुत अकड़ के साथ बैठ गए। 'दूरदर्शन' के लिए अपनी शृंखला 'ग्रेट मास्टर्स' के लिए मैं अलग-अलग क्षेत्र की सांस्कृतिक हस्तियों पर डॉक्यूमेंट्री बना रहा था। अभिनेता के रूप में उसमें हंगल साहब भी शामिल हैं। पहले तय हुआ था कि हम कैमरा यूनिट लेकर मुंबई आ जायेंगे। तारीख़ तय करने का ज़िम्मा उनका था।
अचानक एक दिन उनका फ़ोन आता है।
‘शुक्लाजी! अ गुड न्यूज़ फ़ॉर यू। मैंने आपकी यूनिट का ख़र्च और झंझट कम कर दिया है। (फलाँ) तारीख़ को मुझे एक मीटिंग में दिल्ली आना है। मेरी मीटिंग तीन दिन सेकेण्ड हाफ़ में है। पहला हाफ़ आपके नाम रहेगा। आपका काम तीन हाफ शिफ्ट में हो जायगा न?" उन्होंने पूछा।
"जी।" जवाब में मैंने कहा।
मैं मुतमईन था। हमारा शूट 2 दिन में निबट जाना था। तीसरे (यानी पहले) दिन का इस्तेमाल हम उनसे एक इनफॉर्मल मीटिंग के तौर पर कर लेंगे। हमारी आधी रिसर्च हालाँकि हो चुकी थी लेकिन उनसे मिलने पर हमें उम्मीद थी कि कुछ अतिरिक्त रिसर्च सामग्री और फुटनोट्स हमारे हाथ लगेंगे।
हमारे इंटरव्यूअर पत्रकार वीएम वडोला (जो बाद में मशहूर सिने अभिनेता बन गए) और मेरे सहायक और रिसर्च हेड नीरज जोशी मेरे साथ थे। बैठते ही मैंने ऊपर वाला सवाल दाग़ा और उन्होंने ज़ोर का ठहाका लगाया।
‘नहीं-नहीं फ़िल्म के लिए नाम बदलने की ज़रूरत तो हीरो-हीरोइन को पड़ती है, कैरेक्टर आर्टिस्ट को नहीं। और मैं तो वैसे भी बुढ़ापे में फ़िल्मों में शरीक हुआ था। फ़िल्मों से पहले बॉम्बे 'इप्टा' की स्टेज पर दस-ग्यारह साल ए के हंगल के तौर पर ही बिता चुका था…।’ कुछ देर वह अतीत में झाँकते रहे। ‘…आपकी बात सही है। कराची में एक ज़माने में मैं अवतार किशन हंगल ही हुआ करता था। उससे पहले पेशावर में लोग मुझे अवतार ही कहते थे।’
यूँ तो कश्मीरी पंडित होने के नाते उनके पुरखे कश्मीर में ही रहते थे लेकिन कोई डेढ़ सौ साल पहले उनके दादा पेशावर में आकर बस गए थे। वह असिस्टेंट कमिश्नर थे, लिहाज़ा उनके बाद दादी के सरकारी मुलाज़िम के वारिसान होने के सिफ़ारिशी पत्र की ख़ातिर पिता पंडित हरीकिशन हंगल को भी सरकारी नौकरी मिल गयी। माँ इन्हें 5 साल की उम्र में छोड़ कर चल बसीं। इनसे बड़ी 2 बहनें थीं। पिता संगीत और नाटकों के बड़े शौक़ीन थे और देखने जाते समय वह छोटी सी उम्र के अवतार को ले जाना न भूलते।
पेशावर ब्रिटिश विरोधी राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था जो बालक और (बाद में) किशोर अवतार को बहुत आकर्षित करता था। नतीजतन उनके मेट्रिकुलेशन पास करने के बाद जब पिता ने उनकी नौकरी का सिफ़ारिशी आवेदन कमिश्नर को दिया और कमिश्नर ने उस पर ‘हामी’ की टिप्पणी लिख दी तो किशोर अवतार की आँखों के सामने देश प्रेमी और उन पर हुए बर्बर ब्रिटिश अत्याचार घूमने लगे। “मैंने पिताजी से अंग्रेज़ों की ग़ुलामी करने से साफ़ इंकार कर दिया। मैंने कहा कि मैं कुछ ‘स्वतंत्र’ क़िस्म का काम करना चाहता हूँ।”
‘राष्ट्रीय भावनाओं को ग्रहण करने के मामले में आप अभिमन्यु से कम नहीं?' मेरा सवाल समझ नहीं पाते। माथे पर सिकुड़न और आँखों में ‘क्वेश्चन मार्क’ उग आते हैं। मैं अपनी गाँठ खोलता हूँ- ‘पैदाइश भी पंद्रह अगस्त की?’ उनका ज़ोरदार ठहाका गूँजता है।
‘ओह...अच्छा…!’
कुछ क्षण रुक कर बोलते हैं।
‘बात यह है कि डेट ऑफ़ बर्थ मालूम नहीं थी। फ़िल्मी पत्रकार पूछते-आपकी जन्मतिथि कब की है, हम छापेंगे तो हमारे पाठक आपके लिए हमें बधाइयाँ भेजेंगे। मैंने कहा कोई भी डेट लिख दे। नहीं नहीं स्पेसिफिक बताइये। तो मैंने कह दिया- पंद्रह अगस्त। चल निकली यही डेट। मिलने लगीं फ़िल्मी बधाइयाँ। हा हा!
वह दिल्ली अपनी बहन के पास आ गए। वहाँ उन्होंने अपने बहनोई के एक टेलर दोस्त की शागिर्दी में 'गारमेंट कटिंग' का काम सीखा। बहनोई का दोस्त लन्दन से 'ड्रेपिंग' की ट्रेनिंग करके लौटा था। 2 साल बाद वह पेशावर लौटे और वहाँ टेलरिंग की दुकान खोल ली।
हंगल साहब बताते हैं कि कराची में उनकी टेलरिंग की दुकान नहीं चली। कुछ दिनों बाद कराची के पॉश इलाक़े में बसी 'ईसरदास एंड संस' की आलीशान टेलरिंग शॉप में वह 4 सौ रुपये महावार की तनख्वाह पर 'चीफ़ कटर' की नौकरी पा गए। शॉप के ग्राहकों में अँग्रेज़ फौजी अफ़सर और भारतीय ‘प्रबुद्ध’ होते थे। हंगल साहब यहाँ सूट-बूट में बड़े ठसके के साथ होते और इन अंग्रेज़ और अंग्रेज़ीदाँ ग्राहकों को 'डील' करते।
'फ़न्ने खाँ' वह पचहत्तर साल गुज़ार चुकने के बावजूद आज भी बने घूमते हैं। उनकी ड्रेस छू कर पूछता हूँ- ‘क्या अभी भी अपना गेटअप ख़ुद डिज़ायन करते हैं?’
ठहाका लगाते हैं। ‘अब टाइम कहाँ मिल पाता है यार।’ बाँह आगे फैलाकर शर्ट की आस्तीन दिखाते हैं- ‘मेरे शागिर्द के हाथ की सिली है। उसी के हाथ का पहनता हूँ।’
कराची की दुकान के मालिक ने इन्हें दो तोहफ़े दिए। एक तो वह देर शाम इन्हें शास्त्रीय संगीत की महफ़िलो में ले जाने लगा और दूसरा, मौक़ा-नज़ाक़त के मद्देनज़र उसने अवतार किशन से बदल कर इनका नया नामकरण 'ए के हंगल' कर दिया।
अपनी कॉलोनी में उन्होंने 'हार्मोनिका क्लब' खोला जिसमें संगीत की मासिक महफ़िलें सजतीं। बड़े ग़ुलाम अली, छोटे ग़ुलाम अली और आशिक़अली (बेग़म अख़्तर के उस्ताद) जैसे लोग शिरकत करने लगे। इन्हीं दिनों उन्होंने 'पारसी थिएट्रिकल कम्पनी' की प्रस्तुतियों में आग़ा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद बेताब के पारसी नाटक देखे। यहीं से उनके भीतर का अभिनेता जागा और आगे चलकर वह शहर के थिएटर ग्रुप 'श्री संगीत प्रिया मंडल' में शामिल होकर नाटक करने लग गए।
कराची की सड़कों पर आते-जाते उनकी मुलाक़ात मार्क्स और लेनिन से हुई। दोनों दाढ़ीज़ार अवतार किशन हंगल के ज़हन की 'साफ़-सफ़ाई' करने में जुट गए। पहली बार वह दुनिया को नए इंच टेप से नाप रहे थे। दुनिया उन्हें ग़म और तकलीफ़ों के गहरे समंदर में डूबती-उतराती दिखी। उनके भीतर किनारों को ढूँढने की आस जागी। वह दर्ज़ी थे। सुबह से शाम भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे कपड़ों की दुनिया से बाबस्ता होते आए थे लेकिन अब आकर उन्होंने महसूस किया कि 'लाल रंग' उनका 'फ़ेवरेट' बन चुका है। कराची एक औद्योगिक शहर था। इसके रीतिरिवाज़ औद्योगिक शहरों वाले थे- पूंजीवादी संस्कृति वाले। हंगल साहब बताते हैं-
“
यहाँ दो ही तरह के लोग रहते थे। या तो छोटे-बड़े उद्योगपति और व्यवसायों के मालिकान या फिर उनके मातहत मज़दूरी और रोज़गार करने वाले मज़दूर और कर्मचारी। मुझे समझ में आने लगा- इंसानों के दो ही मजहब और दो ही जातियाँ हैं- अमीर या ग़रीब।
ए के हंगल
उन्होंने समझ लिया कि आज़ादी सिर्फ़ अंग्रेज़ों से नहीं, लूट और शोषण पर टिके इस सिस्टम से भी चाहिए। कराची ने उन्हें यह सब सोचने को मजबूर किया। उनकी ज़िंदगी में यह शहर एक उस्ताद की मानिंद दाख़िल हुआ, उन्हें हर नई बात की तालीम देता। उस्ताद कब और कैसे महबूबा बन गया, उन्हें पता ही न चला। कराची उनसे मोहब्बत करने लगा, उन्हें कराची से इश्क़ हो गया।
मेरा कराची का ज़िक्र छेड़ना हंगल साहब के लिए यादों के समंदर में गोते लगाने को काफ़ी था। कराची की उनकी यादें सपनों की माफ़िक, बेहद लंबी लेकिन दिलचस्प थीं। हमारा दो राउंड का चाय-नाश्ता ख़तम हो गया लेकिन वे चुकने का नाम न लेतीं। इसी औद्योगिक शहर ने उन्हें मशहूर दर्ज़ी (कटर) बनाया तो इसी ने उन्हें ट्रेड यूनियन नेता।
यहाँ रहकर ही उन्होंने 'कराची टेलरिंग वर्कर्स यूनियन' को पैदा किया और इसी ख़ातिर आगे चलकर नौकरी गँवाई। यहीं हंगल साहब का परिचय 'इप्टा' से हुआ। जिस शहर में उन्होंने कम्युनिज़्म को गले लगाया, उसी शहर में उनको पिता से जुदाई लेनी पड़ गयी। हलकी सी बीमारी के बाद ही वह रुख़सत हो गए।
हंगल साहब के निधन के मुद्दत बाद 'इप्टा' के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने 'इप्टा' प्रतिनिधिमंडल की सन 2005 की लाहौर-कराची यात्रा का एक विवरण मुझे सुनाया। इस यात्रा में वह हंगल साहब के साथ थे। कराची के एक जलसे में हंगल साहब की मुलाक़ात उनके पुराने साथी सोवो ज्ञानचंदानी से हुई। हंगल सन 49 में कराची कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव थे और सोवो उप सचिव। राकेश बताते हैं ‘दोनों की आँखों से आँसुओं का झरना दस मिनट तक बहता रहा। यह कबीर-रैदास भेंट सदृश्य था। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े ख़ामोश निगाहों से एक-दूसरे को देखते रहे, वे आँखों ही आँखों में 56 साल के मिलने-बिछड़ने के सारे गिले-शिक़वे हल करने की कोशिश कर रहे थे।’
उनकी ज़िंदगी के तमाम अहम फ़ैसलों का मुक़म्मल क़लमबन्द बयान था कराची। उनकी ‘जान’ था कराची। सन 47 में देश विभाजन के शुरू के 2 साल तक वह कराची में ही टिकने की कोशिश करते रहे लेकिन लगातार गिरफ़्तारी और यातनाओं के बाद आख़िरकार ज्यों ही जेल से छूटे, 12 घंटे के भीतर पत्नी और बेटे के साथ वह बॉम्बे जाने वाले जहाज़ में चढ़ गए।
(अगले अंक में जारी… )
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