उस दिन पुणे में था। शायद सितंबर 2019 का महीना था। एमआईटी विश्वविद्यालय के बुलावे पर गया था। कार्यक्रम से फ़ुर्सत मिली तो हिंदुस्तान के सबसे बड़े शोमैन राज कपूर के घर चला गया। आज राज कपूर तो ज़िंदा नहीं हैं, लेकिन पुणे के लोनी में कोई 120 एकड़ का ज़र्रा- ज़र्रा आज भी कपूर खानदान की खुशबू से महकता है।
अरसे तक पूरे परिवार के लिए यह मंदिर से कम नही था। जब नीली आंखों वाला यह जादूगर दुनिया को अलविदा कह गया तो कपूर परिवार के लिए इस विरासत को संभालना एक चुनौती से कम नहीं था ।
कपूर परिवार ने इसके लिए एमआईंटी परिवार के मुखिया विश्वनाथ कराड का चुनाव किया। कपूर खानदान चाहता था कि शैक्षणिक यज्ञ में शामिल किसी नेक इरादे वाले समूह को इसकी चाबी सौंपी जाए। विश्वनाथ जी ने इस परिसर में न केवल राज कपूर की यादों को सहेजा है, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया है।
राज कपूर का घर
एक बेजोड़ सम्प्रेषक को इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी कि वहाँ से सारे संसार को प्रेम और शांति का संदेश संप्रेषित हो। आज उसी परिसर से कराड परिवार विश्व शांति विश्वविद्यालय संचालित कर रहा है। संत ज्ञानेश्वर की धरती से अब ज्ञान का अदभुत झरना बह रहा है ।
मैं राज कपूर के उस आश्रम में जा पहुँचा था। एमआईटी के प्रमुख राहुल कराड ने अपने सहयोगी श्री संकल्प को मेरी सहायता की ज़िम्मेदारी सौंपी। राज कपूर आवास में प्रवेश करते ही मन झूम उठा।
बाएँ तरफ एकदम विशाल शिव मूर्ति ने चौंका दिया। अरे! इसे कहाँ देखा है? याद आया लोकप्रिय गीत 'घर आया मेरा परदेसी' का दृश्य। एकदम वही। दाहिने तरफ नृत्य मुद्रा में नटराज। एक और फिल्म का मशहूर दृश्य आँखों के सामने नाचने लगा।
फिर तो जैसे जैसे अंदर गए राज कपूर हमारे सामने अपनी हर फ़िल्म के अवतार रूप में सामने थे। पत्नी कृष्णा कपूर के साथ। इसके बाद सारी फ़िल्मों के राज कपूर एकदम आदमक़द मुद्राओं में सामने आते गए। पार्श्व में उनके गीत बज रहे थे।
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बेड रूम की ख़ासियत
उनकी फिल्मों की नायिकाएँ, गायिकाएँ, नायक, खलनायक, चरित्र अभिनेता - एकबारगी लगा जैसे समूची फ़िल्म इंडस्ट्री उन मूर्तियों में उतर आई है।
राज कपूर का यह घर ज्यों का त्यों था। कोई बदलाव नहीं किया गया है। राजकपूर का ड्राइंग रूम, स्टडी, परिवार का गपशप केंद्र, बड़ा सा भव्य किचिन, जिसमें एक साथ कम से कम 30-40 लोग साथ बैठकर खा सकते थे।
वह मिनी थिएटर जहां बैठकर कपूर परिवार फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले एक साथ प्रिव्यू करता था और राजकपूर का बेड रूम। देखते ही जी धक्क सा रह गया।
कमरे में कुछ नहीं। केवल एक दरी पर अपने हाथ को मोड़कर सिरहाने लगाकर राज कपूर सोते थे। सारी उमर वे ऐसे ही सोया करते थे। हमारे सामने उनकी एक प्रतिमा लेटी थी। एकदम हूबहू राजकपूर।
'बॉबी' का वह कमरा, जिसमें हम तुम एक कमरे में .....फिल्माया गया सामने था। ' प्रेमग्रंथ' के सारे दृश्य सामने थे और 'राम तेरी गंगा मैली' के तो अनेक शॉट्स हमारे सामने ओके हो रहे थे। कश्मीर के अनेक दृश्य भी यहीं से निकले।
हमारे कानों में राज कपूर की आवाज़ गूँज रही थी - साउंड ,लाइट ,कैमरा, एक्शन। राजकपूर निर्देश दे रहे थे। सच। उस एहसास को शब्दों में बयान करना एकदम नामुमकिन। फिर भी वहाँ की कुछ तस्वीरें आप तक पहुंचा रहा हूँ।
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राज कपूर से वह मुलाक़ात!
उस घर में घूमते हुए मेरे दिमाग़ में भी समानांतर फ़िल्म चल रही थी, यादों की। राज कपूर से इंदौर में मुलाक़ात। शायद मार्च 1986 का महीना था। मैं अगस्त 1985 में इंदौर छोड़कर जयपुर 'नवभारत टाइम्स' ज्वाइन करने चला गया था। लेकिन मेरा कुछ सामान और स्कूटर वगैरह इंदौर में ही रह गया था। मैं उसे लेने छुट्टी लेकर इंदौर आया था।
उसी दिन राज कपूर भी इंदौर आए थे। उनका अमृत महोत्सव मनाया जा रहा था। उस महोत्सव के लिए नई दुनिया के पुराने वरिष्ठ मित्र और जाने माने फ़िल्म समीक्षक श्रीराम ताम्रकार और 'प्रभात किरण' के संपादक मित्र श्री प्रकाश पुरोहित ने राज कपूर का लम्बा साक्षात्कार लिया था। राज कपूर उनसे अच्छी तरह परिचित थे।
मैनें उनसे अनुरोध किया कि वे कृपया 'नवभारत टाइम्स' के लिए एक साक्षात्कार जुगाड़ करा दें। ताम्रकार जी ने बात की। मुझे समय मिल गया। उसी शाम मैं इस शो मेन के सामने बैठा था। सफ़ेद कुर्ते पैजामे में नारंगी गमछा डाले एक दम किसी फ़रिश्ते की तरह । इसके आगे की बातचीत का ब्यौरा पढ़िए।
चटोरे!
राज कपूर ने बताया कि उनके ख़ानदान में सभी चटोरे रहे। इसलिए बचपन और पचपन की उमर में सभी मुटिया जाते हैं। अलबत्ता जवानी में पूरा ख़ानदान दुबला पतला रहा है। पापा जी यानी पृथ्वीराज कपूर नियमित रूप से अखाड़े में वर्ज़िश करते थे। पर राजकपूर को इसका शौक़ कभी न हुआ।
माँ स्कूल के टिफ़िन में पराठा और ऑमलेट देती थी। रोज़ दो आने की पॉकेट मनी मिलती थी।
चटोरे राजकपूर टिफ़िन तो बाँटते दोस्तों में और ख़ुद आसपास की तीन- चार दुकानों में खाने पीने चले जाते। अब दो आने में तो पेट भरता नहीं था। इसलिए रोज़ उधारी करनी पड़ती। दो आने में बमुश्किल एक ही दूकान की देनदारी चुक पाती थी।
इसलिए एक दो उधारी हरदम बनी रहती।
जब यह रक़म बढ़ जाती तो फिर एक फॉर्मूला काम आता। एकाध क़िताब गुमा दी जाती। माँ कहती,अरे ! अभी हाल में ही तो अँगरेज़ी की किताब ख़रीदी थी। फिर खो दी। बड़ी मासूमियत से वे उत्तर देते, 'आपको याद नहीं। वह तो गणित की क़िताब खोई थी।' पर आख़िर हर महीने कितनी किताबें कोई बच्चा खो सकता था।
वे अपनी इन शरारतों का बयान करते तो उस समय मुझे तीसरी कसम के उस राजकपूर की याद आती जो वहीदा रहमान को एक तालाब में नहाने से बड़े भोलेपन से मना करता है और कहता है, 'आप यहाँ मत नहाओ। यहाँ कुँआरी लड़कियाँ नहीं नहातीं।'
हॉकी-फ़ुटबॉल का शौक
राजकपूर को हॉकी और फुटबॉल खेलने का बड़ा शौक था। उनके एक पैर का घुटना चटका हॉकी में और एक हाथ फुटबॉल में टूट गया। बोले, 'अब तक दुखता है भाई। आपने कभी ध्यान नहीं दिया होगा कि मेरा बायाँ हाथ फ़िल्मों में कम सक्रिय रहता था।'
जैसे कि मैंने बताया पापाजी को अखाड़े में वर्ज़िश करने की आदत थी। राज कपूर दस साल के थे तो फुटबॉल खेलने के दरम्यान हाथ टूट गया। दर्द से कराहते - रोते राज कपूर टूटा हाथ लिए अखाड़े जा पहुँचे। पापाजी वहाँ कसरत कर रहे थे। उन्होंने रोते हुए बेटे पर ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन अखाड़े के कारिंदों ने देखा तो टूटे हाथ को गोबर और मिट्टी से बाँध दिया। बिसूरते राज वहाँ से चले आए। हाथ को ठीक होने में महीनों लगे।
हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह को हॉकी खेलते बहुत देखा। बेटन कप में। इन महान ओलिम्पिक खिलाड़ियों की सोहबत में वे बहुत समय तक रहे। कितने लोग जानते हैं कि राजकपूर हॉकी टीम के गोलकीपर हुआ करते थे, क्योंकि मोटे थे और तेज़ दौड़ नहीं पाते थे।
हाथ -पाँव तुड़ा बैठे राज कपूर का इससे यह नुक़सान हुआ कि उनका तबला और हारमोनियम छूट गया।
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पहला प्रेम
दिन गुजरते रहे। उनकी जिंदगी में स्त्री और संगीत कैसे दबे पाँव दाख़िल हो गए, ख़ुद राजकपूर को पता ही नहीं चला। वे 18-19 साल के हुए तो पापाजी के नाटकों में अभिनय शुरू कर दिया। पृथ्वी थिएटर के एक नाटक 'दीवार' में राज ने नायक रामू का क़िरदार अदा किया था।उनकी हीरोइन थी हेमवती सप्रू। हेमवती का नाटक में नाम था लक्ष्मी। लक्ष्मी बड़ी बड़ी आंखों वाली बेहद सुंदर लड़की थी। वह कुशल नृत्यांगना थी। दीवार के बाद यह जोड़ी जेल यात्रा में भी साथ साथ आई ।
एक दिन साहस करके राज कपूर ने विवाह का प्रस्ताव रख दिया । अफ़सोस! हेमा ने आमंत्रण ठुकरा दिया और किसी अन्य से ब्याह रचा लिया। राजकपूर की हालत ख़राब हो गई। उनका दिल टूट गया।
हालत इतनी बिगड़ी कि पिता यानी पृथ्वीराज कपूर को चिंता होने लगी। वे तुरंत किसी अन्य लड़की की खोज में जुट गए। इस क्रम में मध्य प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी की बेटी का प्रस्ताव आया। तब मध्यप्रदेश का गठन नहीं हुआ था। राजकपूर से लड़की के बारे में बताया गया तो बड़ी मुश्किल से राज़ी हुए। उन्होंने शर्त रखी कि वे पहले लड़की को देखने जाएँगे ।
(इससे आगे की कहानी पढ़िए कल।)
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