क्या आप बता सकते हैं कि बॉलीवुड में अच्छी फिल्म आख़िरी बार कौन-सी आई थी? या पिछले कुछ वर्षों में ऐसी कितनी फ़िल्में हैं जो सराही गई हैं? इस सवाल का आप जवाब दे पाएँ या नहीं, लेकिन शायद यह बताना मुश्किल नहीं हो कि कौन-सी फ़िल्म विवादों में रही है।
ऐसी फ़िल्म का सबसे ताज़ा मामला 'आदिपुरुष' का है। फ़िल्म अभी नहीं आई है। यह अगले साल आएगी। लेकिन इस फ़िल्म के टीज़र आने भर के बाद से ही हंगामा मचा है। विवाद टीज़र में दिखाए गए किरदारों और उनके वेश-भूषा को लेकर है। रामायण पर आधारित इस फ़िल्म का टीज़र 2 अक्टूबर को अयोध्या में रिलीज किया गया था।
आदिपुरुष में सैफ के रावण वाले लुक को लेकर सबसे ज्यादा बखेड़ा खड़ा हुआ है। हनुमान जी के पहनावे पर भी विवाद है। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने आदिपुरुष के टीजर में हनुमान जी के पहनावे में चमड़े का वस्त्र देखकर नाराजगी व्यक्त की है। उनके मुताबिक़ फ़िल्म के टीजर में राम, रावण और हनुमान का लुक और पहनावा बेहद ग़लत है। इसके अलावा सोशल मीडिया पर आदिपुरुष का बायकॉट किया जा रहा है।
ये तो अभी टीज़र है, फ़िल्म आनी बाक़ी है। क्या यह फ़िल्म इसी रूप में रिलीज़ हो पाएगी और क्या रिलीज होने के बाद यह सिनेमा घरों में इसी रूप में चल पाएगी, यह कहना मुश्किल है। इस पर संदेह तब भी बना रहेगा जब सेंसर बोर्ड से फ़िल्म पास हो जाए।
ऐसा कई फ़िल्मों के साथ हुआ है। कई फ़िल्में सेंसर बोर्ड से तो पास हो गई हैं, लेकिन कुछ लोगों की भावनाएँ आहत हुईं तो फ़िल्म पर आफत आन पड़ी। फ़िल्मों का बहिष्कार किया गया। सिनेमाघरों पर हमले हुए। फ़िल्मों को सिनेमाघरों से हटाने के लिए मजबूर किया गया। फ़िल्म के सीन कटवाए गए। और मनमर्जी से फ़िल्मों को तोड़ा-मरोड़ा गया। इतना सब होने के बाद फ़िल्म में बचा क्या रहेगा! क्या ऐसी काट-छांट के बाद रचनात्मकता रह पाएगी? क्या फ़िल्म की आत्मा बची रह पाएगी?
इस सवाल का जवाब सेंसर बोर्ड बेहतर तरीक़े से जानता होगा। ऐसा इसलिए कि उसको यह समझने की ज़िम्मेदारी दी गई है कि समाज को फ़िल्मों में क्या परोसा जाए और क्या नहीं, फ़िल्म में क्या कटौती की जाए और किस हद तक फ़िल्म को रेगुलेट किया जाए कि फ़िल्म की आत्मा भी नहीं मरे।
फ़िल्मों को कंटेंट के हिसाब से चार श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी U यानी यूनिवर्सल है। इसके तहत फिल्मों को सभी वर्ग के दर्शक देख सकते हैं। U/A श्रेणी में 12 साल से कम उम्र के बच्चे अपने पैरेंट्स या बड़े लोगों की निगरानी में फिल्म देख सकते हैं। A श्रेणी में सिर्फ व्यस्क लोगों को फिल्म देखने का अधिकार है। S श्रेणी खास वर्ग के लोगों के लिए है।
बहरहाल, सेंसर बोर्ड से फ़िल्म पास होने के बाद भी कई फ़िल्मों को सिनेमाघरों में चलाए जाने के लिए स्यवंभू संगठनों और संस्थाओं की दया पर निर्भर रहना पड़ता है। आम तौर पर ऐसी शिकायतें हाल के कुछ सालों में काफ़ी ज़्यादा बढ़ गई हैं।
अभी अगस्त महीने में ही बेहद क्रिएटिव अभिनेता माने जाने वाले आमिर ख़ान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा का जबरदस्त विरोध हुआ था। इसका बहिष्कार ट्विटर पर टॉप ट्रेंड में शामिल था। फ़िल्म के बहिष्कार का कारण भी अजीबोग़रीब था।
काली फिल्म के पोस्टर को लेकर भी विवाद भी हुआ था। इसमें देवी काली के चित्रण को लेकर आपत्ति की गई थी।
अभिनेता अक्षय कुमार की फिल्म पृथ्वीराज को लेकर भी तनाव बढ़ा था। अखिल भारतीय वीर गुर्जर महासभा ने दावा किया था कि पृथ्वीराज चौहान गुर्जर थे और इसलिए उन्हें फिल्म में राजपूत सम्राट के बजाय गुर्जर सम्राट के तौर पर दिखाया जाना चाहिए।
जाति आधारित एक संगठन करणी सेना का कहना है कि पृथ्वीराज चौहान राजपूत ही थे। करणी सेना ने फिल्म का टाइटल बदले जाने की मांग की थी। करणी सेना ने कहा था कि फिल्म का टाइटल सम्राट पृथ्वीराज चौहान होना चाहिए। करणी सेना ने चेताया था कि अगर फिल्म का टाइटल नहीं बदला गया तो राजस्थान में फिल्म को रिलीज नहीं होने दिया जाएगा। बाद में उस फ़िल्म का टाइटल बदल दिया गया था।
करणी सेना पहली बार तब चर्चा में आई थी जब साल 2008 में उसने फिल्म जोधा अकबर के खिलाफ प्रदर्शन किया था। लगातार विरोध प्रदर्शन के बाद साल 2014 में राजस्थान में इस फिल्म को बैन करना पड़ा था।
2017 में करणी सेना ने फिल्म पद्मावत के खिलाफ भी प्रदर्शन किया था। इसके बाद 2019 में करणी सेना ने कंगना रनौत की फिल्म मणिकर्णिका के खिलाफ भी मोर्चा खोला था।
मशहूर गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर भी दक्षिणपंथियों के निशाने पर रहे हैं। पिछले साल महाराष्ट्र से बीजेपी विधायक राम कदम ने एलान किया था कि जावेद जब तक हिन्दू राष्ट्र की माँग करने वालों की तुलना तालिबान से करने वाले बयान पर माफ़ी नहीं माँगते, उनसे जुड़ी फ़िल्मों को रिलीज़ नहीं होने दिया जाएगा। राम कदम ने कहा था, 'जावेद अख़्तर का बयान न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि संघ और विश्व हिन्दू परिषद के करोड़ों समर्थकों और उस विचारधारा को मानने वाले करोड़ों लोगों के लिए पीड़ादायक व अपमानजनक है।'
तो क्या लोगों की भावनाएँ इतनी आहत हो रही हैं कि फ़िल्मों पर पाबंदी लगाने की नौबत आ जाए? ऐसा क्यों हो रहा है? हाल के वर्षों में ऐसा क्या बदल गया है? हाल में सेंसर बोर्ड पर भी सवाल उठे हैं। मशहूर फ़िल्म कलाकार नसीरुद्दीन शाह मौजूदा भारतीय फ़िल्म उद्योग की तुलना नात्सी जमाने के जर्मन फ़िल्म उद्योग से की है और कहा है कि उस समय की तरह भारत में आजकल प्रोपेगैंडा फ़िल्में बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। पिछले साल सितंबर में 'एनडीटीवी' से बात करते हुए उन्होंने कहा था, 'उन्हें सरकार समर्थक फ़िल्में बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, ये ऐसी फ़िल्में होती हैं जिनमें प्रिय नेता की तारीफ की जाती है।'
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