तालिबान ने जितनी जल्दी और आसानी से अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा कर लिया क्या उतनी आसानी से उसे चला भी पाएगा? क्या अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था ऐसी है जिसे तालिबान संभाल सके? ये सवाल इसलिए क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी रही पश्चिमी देशों की आर्थिक सहायता और कर्ज बंद होने वाले हैं। इसके संकेत उस ख़बर से भी मिलते हैं जिसमें अमेरिका ने अपने देश के बैंकों में जमा अफ़ग़ानिस्तान के ही 9.5 बिलियन डॉलर (7 ख़रब रुपये) रिजर्व को फ्रीज कर दिया यानी रोक दिया है। आईएमएफ़ ने भी ऐसा ही क़दम उठाया है। तो तालिबान अफ़ग़ानिस्तान को कैसे चला पाएगा? क्या सिर्फ़ अफीम का नशा बेचकर?
यह परेशानी तालिबान के सामने सबसे बड़े संकट के तौर पर आने वाला है। ऐसा इसलिए कि अफ़ग़ानिस्तान की हालत ही कुछ ऐसी है।
एक तो यह देश बेहद ग़रीब है। केवल 12% भूमि कृषि योग्य है। वहाँ की क़रीब आधी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। देश की जीडीपी का आकार भी ऐसा है जो तालिबान के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में होगा। अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी के बारे में 2019 में आईएमएफ ने कहा था कि आर्थिक सहायता जीडीपी का लगभग 40% है। अब यदि किसी देश का जीडीपी आधा से कुछ ही कम दूसरे देशों की आर्थिक सहायता पर निर्भर हो और वे देश यदि हाथ खींच लें तो उस अर्थव्यवस्था का क्या हस्र होगा? देश में तालिबान के आने के बाद पश्चिमी देश यही करेंगे। इसके संकेत भी मिलने लगे हैं।
अमेरिका ने अपने बैंकों में पड़े अफ़ग़ानिस्तान के 9.5 बिलियन डॉलर रिजर्व को इसलिए फ्रीज़ कर दिया है कि तालिबान उस फंड तक पहुँच नहीं सके। इस अघोषित कार्रवाई की रिपोर्ट सबसे पहले 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने मंगलवार को अपनी रिपोर्ट में दी थी। रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी प्रशासन के एक अधिकारी ने बताया, 'संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ़ग़ान सरकार के केंद्रीय बैंक की कोई भी संपत्ति तालिबान को उपलब्ध नहीं कराई जाएगी।'
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बाइडन प्रशासन तालिबान पर दबाव बनाने के लिए अन्य कार्रवाई पर भी विचार कर रहा था।
'ब्लूमबर्ग' ने भी एक रिपोर्ट दी है कि तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार को धन तक पहुँचने से रोकने के प्रयास के तहत वाशिंगटन ने काबुल को नकदी की आपूर्ति को रोक दिया।
अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में 20 वर्षों में 8 बिलियन डॉलर यानी क़रीब 5.9 ख़रब रुपये ख़र्च कर चुका है। और अब बाइडेन प्रशासन ने अपने हाथ वहाँ से वापस खींच लिए। समझा जाता है कि पश्चिमी देश शायद ही तालिबान को आर्थिक मदद दे पाएँगे।
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संयुक्त राष्ट्र ने अनुमान लगाया था कि मादक पदार्थों की तस्करी ने अफ़ग़ानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीप में 6-11% योगदान दिया। लेकिन मादक पदार्थों की तस्करी इस देश में आर्थिक मदद के साथ-साथ निवेश को भी हतोत्साहित करेगी।
इसका मतलब है कि जीडीपी की विकास दर पर ख़तरा मंडरा रहा है। यह इससे भी जाहिर होता है कि जब जब उसकी आर्थिक सहायता बढ़ी है उसकी विकास दर बढ़ी है। 2003 और 2012 के बीच आर्थिक सहायता ज़्यादा मिली थी तो विकास दर औसतन क़रीब 7% थी। बाद में जब मदद कम हुई तो विकास दर 2-3% के बीच गिर गई।
अब एक बड़ी मुश्किल अफ़ग़ानिस्तान के सामने चालू खाता घाटा भी है जो आधिकारिक अनुदान निकाल देने पर सकल घरेलू उत्पाद का 27.5% है।
हालाँकि, तालिबान के पास चीन और पाकिस्तान के रूप में सहयोगी हो सकते हैं जैसा कि इन देशों ने तालिबान के प्रति समर्थन जताया है और उसको मान्यता देने के संकेत दिए हैं।
लेकिन इसमें भी एक पेच यह है कि खुद पाकिस्तान की हालत इतनी ख़राब है कि वह आर्थिक मदद शायद ही कर पाए। चीन इस मामले में मदद को हाथ आगे बढ़ा सकता है। लेकिन अभी तक अफ़ग़ानिस्तान में चीन ने न तो कोई बड़ी आर्थिक मदद भेजी है और न ही कोई निवेश किया है। लेकिन चीन को अपने शियजियांग प्रांत के वीगर मुसलमानों को लेकर तालिबान से गारंटी मिलने के बदले में चीन कुछ भी करने के लिए तैयार हो सकता है। इससे भारत को हाशिए पर रखने का पाकिस्तान का लक्ष्य भी पूरा होगा।
चीन एक और वजह से तालिबान को मदद को आगे आ सकता है। एक दशक पहले पेंटागन के एक अध्ययन ने 1 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की अप्रयुक्त खनिज संपदा का अनुमान लगाया था। इसमें सोना, तांबा और शायद सबसे महत्वपूर्ण लिथियम जैसे खनिज शामिल हैं। यदि इस बारे में कुछ सौदा होता है तो चीन खनन अधिकारों के बदले में अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था को प्रभावी रूप से नियंत्रित करेगा।
इसके बावजूद तालिबान को पता है कि सिर्फ़ चीन पर निर्भरता उसके लिए परेशानी का सबब रहेगी। तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक सहायता के लिए पश्चिमी देशों की मदद की भी ज़रूरत होगी। इसमें तालिबान को भारत से मदद मिल सकती है क्योंकि यह पश्चिमी देशों को विश्वास में ले सकता है। यानी अफ़ग़ानिस्तान में भारत की उम्मीद अभी भी बाक़ी है!
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