एक तरफ़ तालिबान को पटाने के लिए अमेरिका इमरान ख़ान को फुसलाने की कोशिश कर रहा है और दूसरी तरफ़ तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार अमरुल्लाह सालेह पर हमला बोल दिया है। सालेह राष्ट्रपति हामिद करजई के दौर में अफ़ग़ानिस्तान के गुप्तचर विभाग के मुखिया थे। कुछ वर्षों पहले वह काबुल होटल में मुझसे मिलने आए थे और मैंने उनका रवैया भारत के बारे में काफ़ी मित्रतापूर्ण पाया था। यह अच्छा हुआ कि उनकी जान बच गई। वह घायल हुए और उनके 20 साथी मारे गए।
यहाँ सवाल यह है कि सालेह पर हुए हमले का अर्थ क्या निकाला जाए? पहली बात तो यह कि सालेह ख़ुद तालिबान के सख़्त विरोधी हैं। उन्होंने गुप्तचर विभाग के प्रमुख के तौर पर कई ऐसे क़दम उठाए हैं, जिन पर पाकिस्तान ने काफ़ी नाराज़गी ज़ाहिर की। वह वर्तमान राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथी के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं। उन पर जानलेवा हमले का अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान और तालिबान नहीं चाहते कि सितंबर में होनेवाले चुनाव तक गनी और सालेह जैसे लोग ज़िंदा भी रहें। वे इस चुनाव को एक फ़िजूल की हरकत समझ रहे हो सकते हैं।
यदि तालिबान से अमेरिका और पाकिस्तान बात कर रहे हैं तो वह बात इसीलिए हो रही है कि काबुल की सत्ता उन्हें कैसे सौंपी जाए? यदि सत्ता उन्हें ही सौंपी जानी है तो चुनाव का ढोंग किसलिए किया जा रहा है?
अमेरिका और पाकिस्तान ने तालिबान को चुनाव लड़ने के लिए अब तक तैयार क्यों नहीं किया? वैसे भी आधे अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा है। यदि तालिबान सचमुच अपने पाँव पर खड़े होते और लोकप्रिय होते तो उन्हें चुनाव से परहेज क्यों होता? अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों को यह ग़लतफहमी है कि तालिबान का राज होने पर अफ़ग़ानिस्तान में शांति हो जाएगी।
ज़्यादातर तालिबान लोग गिलजई पठान हैं। उनके शीर्ष नेताओं से मेरा काबुल, कंधार, लंदन और वाशिंगटन में कई बार संपर्क रहा है। उनके सत्तारूढ़ होने पर उनकी स्वायत्तता पाकिस्तान पर बहुत भारी पड़ सकती है। वे स्वतंत्र पख्तूनिस्तान की माँग भी कर सकते हैं। इसके अलावा तालिबान के लौटने की ज़रा भी संभावना बनी नहीं कि काबुल, कंधार, हेरात, मज़ारे-शरीफ़ जैसे शहर खाली हो जाएँगे। अमेरिका अपना पिंड छुड़ाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान को अराजकता की भट्टी में झोंकने पर उतावला हो रहा है।
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