देश में नौ अप्रैल से चल रहे सुपर फॉस्ट क्रिकेट गेम आईपीएल में अभी तक किसी भी टीम के किसी भी धुरंधर बल्लेबाज़ ने हैट-ट्रिक नहीं लगाई है, लेकिन पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लगातार तीसरी बार चुनाव जीतने की हैट-ट्रिक लगा दी है।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो ...
यह साफ़ है कि वह किसी कमज़ोर टीम के ख़िलाफ़ नहीं खेल रही थी और विरोधी टीम बीजेपी ने ना केवल अपने धुरंधरों को उनी ख़िलाफ़ गेंदबाज़ी के लिए उतारा था बल्कि मैदान में फील्डिंग भी ज़बरदस्त लगा रखी थी। लेकिन ममता दी ने डिविलियर्स और पोलार्ड की तरह धुआंधार बल्लेबाज़ी की।
नतीजा सामने है, कमज़ोर चुनाव आयोग के सामने की गई रिव्यू अपील भी काम नहीं आई और वो शानदार तरीके से जीत गईं। एक गीत की लाईन याद आ रही है कि खूब लड़ी मर्दानी वो तो ...
युद्ध की तरह चुनाव
खैर, चुनाव है तो किसी एक को तो जीतना ही है, लेकिन यह सिर्फ़ एक आम साधारण सा चुनाव नहीं था। तृणमूल कांग्रेस की विरोधी पार्टी बीजेपी ने इसे युद्ध की तरह लड़ा और अपनी हर शक्ति का इस्तेमाल भी किया।
तृणमूल कांग्रेस पहले दिन से यह आरोप लगाती रही कि चुनाव आयोग ने बीजेपी के इशारे पर आठ चरणों में वोटिंग का कार्यक्रम बनाया, हालांकि इससे पहले भी बंगाल में छह और सात चरणों में चुनाव हुए थे और तब भी ममता बनर्जी ही चुनाव जीती थीं, इस बार भी जीत गईं तो क्या यह आरोप बेमानी हो गया?
दिल्ली में बैठे लोगों ने इस चुनाव को सबसे महत्वपूर्ण मान लिया क्योंकि यह बीजेपी के लिए प्रतिष्ठा के प्रश्न का चुनाव था। तो क्या बीजेपी का चुनाव जीतना ही सबसे अहम काम है देश के लिए और अब अगर पार्टी हार गई है तो क्या आसमान टूटने वाला है।
मैं तो वहीं खिलौना लूंगा
दरअसल बीजेपी ने खुद ही इस चुनाव को आसमान पर टांग दिया था मानो राजकुमार की जिद हो कि मैं तो वहीं खिलौना लूंगा मचल गया....
पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में साल 2016 में बीजेपी को सिर्फ़ तीन सीटें मिली थी तो फिर बीजेपी की आज की हार पर इतनी हाय तौबा क्यों। लेकिन साल 2019 में हुए आम चुनाव में बीजेपी को जब 121 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली तो उसके सपनों को पंख लग गए और वह पूरब के इस भद्रलोक को अपने कब्जे में करने की रणनीति में जुट गई।
बीजेपी के मुताबिक, पिछले दो साल में बंगाल में राजनीतिक हिंसा में उसके 125 से ज़्यादा कार्यकर्ताओं की मौत हो गई, लेकिन लगता रहा कि बीजेपी इससे दुखी होने के बजाय उसे सत्ता की सीढ़ी का रास्ता मानने लगी।
बंगाल में बीजेपी का कोई बड़ा जनाधार नहीं था, कार्यकर्ता नहीं थे और ना ही कोई ठोस कार्यक्रम, यहाँ तक ठीक से बंगाली बोलने और समझने वाला नेता भी नहीं। इसके लिए उसने तृणमूल कांग्रेस में सेंध लगाई और तोड़ फोड़ कर बहुत से नेताओं, विधायकों और कार्यकर्ताओं को अपने पाले में कर लिया।
तोड़फोड़, सेंधमारी की राजनीति
शुरुआत यूं तो मुकल रॉय से हुई थी फिर वो शुभेंन्दु अधिकारी, मिथुन चक्रवर्ती और दिनेश त्रिवेदी तक पहुँच गईं। यह नहीं कहा जा सकता कि बीजेपी आज चुनावी गणित में बंगाल में जहाँ पहुँची है उसमें इन लोगों का कोई योगदान नहीं रहा होगा।
इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि मध्य प्रदेश से निर्वासित हुए नेता कैलाश विजयवर्गीय ने दो साल से ज़्यादा वक्त से मेहनत इस राज्य में की, लेकिन पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष इस सबमें पीछे कहीं छूट गए।
दरअसल बंगाल का यह चुनाव बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने लड़ा। पूरी रणनीति अमित शाह देखते रहे, टीएमसी से आने वाले हर बड़े नेता के लिए अमित शाह ने मंजूरी दी और यह सिलसिला तब जाकर कहीं रुका जब प्रदेश स्तर पर कुछ बाहरी नेताओं का विरोध बीजेपी कार्यकर्ताओं ने किया।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे. पी. नड्डा शालीन राजनेता माने जाते हैं, जाहिर है उनकी कार पर हमले के अलावा वे कभी चर्चा में नहीं रहे।
मीडिया के बहुत से बड़े चैनल एक्जिट पोल तक ममता बनर्जी के सामने मोदी और अमित शाह की जो फोटो लगा रहे थे, उन्होंनें वोटो की गिनती की हवा देखते देखते उसे बदल कर नड्डा का चेहरा लगा दिया, क्या अब इन चुनावों में हार की जिम्मेदारी नड्डा पर डाली जानी चाहिए।
मजबूत विपक्ष
लेकिन आलोचकों को दूसरा पहलू भी देखना चाहिए कि पिछली विधानसभा चुनाव में जिस पार्टी का कोई नामलेवा नहीं था, सिर्फ तीन विधायक थे वो आज सौ के करीब पहुंच गईं। विधानसभा में वो भले ही सरकार में नहीं बैठ पाई हो, लेकिन सत्ता में बैठे लोग अब उसकी आवाज़ को नज़रअंदाज नहीं कर सकते हैं, एक ताकतवर विपक्ष की भूमिका में वो दिखाई देगी। युद्ध का नतीजा भले ही इतिहास बनाता हो, लेकिन कैसे और कितनी ताकत और बहादुरी से लड़ा गया यह भी अहम होता है।
प्रधानमंत्री मोदी और शाह की रणनीति ने एक झटके में बीजेपी को बंगाल में ताकवर बना दिया। रही बात अमित शाह के नारे - इस बार दो सौ पार, तो सब जानते हैं कि इस तरह के नारे कार्यकर्ताओं और वोटर में मनोवैज्ञानिक माहौल पैदा करने के लिए होते हैं और सौ तक पहुँचने के लिए भी दो सौ की बात करना ज़रूरी होता है।
एक और अहम बात कि बीजेपी नेतृत्व ने पूरी राजनीति की दिशा को बदल दिया है। अब अल्पसंख्यकों के भरोसे की राजनीति पर चुनाव नहीं लड़े जा रहे। अब अरविंद केजरीवाल को हनुमान चालीसा और ममता बनर्जी को चंडी पाठ करना पड़ रहा है। राहुल गांधी जनेऊधारी ब्राह्मण और ममता बनर्जी शांडिल्य गोत्र वाली हिंदू हो गई हैं यानी बीजेपी चुनाव भले ही हार गई हो, लेकिन उसने अपने हिंदुत्व के एजेंडा को फोकस में ला दिया है।
बीजेपी के लिए बंगाल में मुश्किल इसलिए हुई क्योंकि यहाँ ममता मुसलमानों के वोट के साथ सॉफ्ट हिंदुत्व को लेकर आगे बढ़ गई, लेकिन बीजेपी ने मुसलमानों को साथ लाने की कोशिश नहीं की और हिंदुओं का ध्रुवीकरण ज़्यादा करने में कामयाब नहीं हुई।
क्षेत्रीय क्षत्रपों से हार
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, राजस्थान में अशोक गहलोत, केरल में पिनारायी विजयन, दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल, पंजाब में अमरिन्दर सिंह, झारखंड में हेमंत सोरेन और अब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी। हर जगह क्षेत्रीय नेताओं से हार का सामना करना पड़ा है।
आखिरी बात – बीजेपी भले ही पश्चिम बंगाल का चुनाव हार गई हो, लेकिन इससे उसकी ज़िम्मेदारी कम नहीं होती। राज्य में सबसे पहले कोरोना की लड़ाई में उसे ज़्यादा सक्रिय भूमिका निभानी होगी और भले ही वहां डबल इंजन की सरकार नहीं बन पाई हो, लेकिन यह देखना होगा कि बंगाल की रफ्तार कम नहीं हो पाए। कहते हैं कि गिरते हैं शह सवार ही मैदान- ए-जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले। एक मुबारकबाद तो बनती है शानदार कोशिश के लिए।
अपनी राय बतायें