पश्चिम बंगाल चुनाव में तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी में से किसका पलड़ा भारी है? इसका जवाब बीजेपी और तृणमूल तो अपने-अपने नज़रिए से देंगे और वे दावे भी कर रही हैं कि चुनाव उनकी पार्टी ही जीतने जा रही है। लेकिन तृणमूल कांग्रेस के लिए काम कर रहे चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर क्या मानते हैं?
प्रशांत किशोर बीजेपी की रणनीति को कैसे देखते हैं और वह कैसा प्रदर्शन कर पाएगी? इसका पता इसी बात से चलता है कि वह कहते हैं कि यह एक अनूठा चुनाव है क्योंकि पिछले 30-35 सालों में बंगाल में सत्तारूढ़ पार्टी को एक राष्ट्रीय सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा चुनौती नहीं दी गई है। वह कहते हैं कि जब वामपंथी सत्ता में थे तो उन्हें सत्तारूढ़ कांग्रेस द्वारा कभी चुनौती नहीं दी गई थी। यह पहली बार है जब बंगाल एक क्षेत्रीय सत्तारूढ़ पार्टी को एक राष्ट्रीय सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा चुनौती दी जा रही है, जो किसी भी क़ीमत पर जीतने के लिए उतारू है।
प्रशांत किशोर बीजेपी की रणनीति को पाँच बिंदुओं में बाँटकर देखते हैं। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि बंगाल में बीजेपी की रणनीति के पाँच स्तंभ हैं। उन्होंने कहा, ‘एक है ध्रुवीकरण। दूसरा, वे ममता बनर्जी को बदनाम करना चाहते थे और उनके ख़िलाफ़ व्यापक ग़ुस्सा पैदा करना चाहते थे। तीसरा, उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए सभी साधनों का इस्तेमाल किया कि एक राजनीतिक इकाई के रूप में टीएमसी का पतन हो। चौथी रणनीति अनुसूचित जातियों का समर्थन हासिल करने की रही है। पाँचवाँ, वे मोदी की लोकप्रियता भुनाना चाहते हैं।’
इन पाँच स्तरों पर बीजेपी कितनी सफल रही है? इस पर प्रशांत किशोर कहते हैं कि अब वे सभी पाँच मामलों में अलग-अलग स्तर पर सफल रहे हैं।
प्रशांत किशोर कहते हैं कि दूसरा पहलू ममता बनर्जी को बदनाम करने का है। वह मानते हैं कि ममता की अब 10 साल की सरकार है तो कुछ हद तक एंटी-इंकंबेंसी यानी सत्ता-विरोधी चीजें होना लाजिमी है।
वह कहते हैं, ‘...निश्चित रूप से टीएमसी के ख़िलाफ़ एंटी इंकंबेंसी है। कुछ हद तक थोड़ा ग़ुस्सा भी हो सकता था। लेकिन, यदि आप पूरे बंगाल की यात्रा करते हैं तो आप पाएँगे कि ग़ुस्सा ज़्यादातर स्थानीय टीएमसी नेताओं के ख़िलाफ़ है और तब भी बड़े स्तर पर लोग दीदी पर भरोसा करने के लिए तैयार हैं। और क्योंकि यह दीदी का चुनाव है, तृणमूल अपनी जमीन बनाए रखेगी।’
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‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में वह कहते हैं कि ‘तीसरा हिस्सा टीएमसी का पतन है। फिर यह राष्ट्रीय मीडिया द्वारा ऊबाऊ तरीक़े से बार-बार यह बताने की कोशिश की गई है कि तृणमूल से पलायन हो रहा है... वे (भाजपा) सभी साधनों का उपयोग लोगों को ग़लत तरीक़े से अपने पक्ष में करने के लिए करते हैं, और वे 30 विधायक और सांसदों के साथ ऐसा करने में सफल रहे हैं।’
प्रशांत किशोर कहते हैं कि तृणमूल जितनी बड़ी है उसके लिए 20-25 विधायकों को खोना बड़ी बात है, लेकिन यह पार्टी का पतन नहीं है। प्रशांत किशोर ऐसे लोगों के पार्टी छोड़ने के कारणों में से एक यह भी बताते हैं कई लोग ख़ुद को प्रमुख पदों पर नहीं पाते थे और इसलिए उन्होंने पार्टी छोड़ दी।
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तृणमूल के चुनाव रणनीतिकार के अनुसार चौथा, नामसुद्र व मतुआ समुदाय का मुद्दा है और बड़ा एससी समुदाय भी। वह कहते हैं, ‘नागरिकता संशोधन क़ानून को लोकसभा चुनावों में अपना वोट पाने के लिए घोषित किया गया था। एससी के भीतर एक बहुत बड़ा समुदाय नामसुद्र ने बीजेपी के लिए वोट दिया था। लेकिन बंगाल में बाद के उपचुनावों में, यहाँ तक कि नामसुद्र-बहुल क्षेत्रों में भी वे हार गए। तब से वे सीएए को कमतर तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। क्रोनोलॉजी के बारे में कोई चर्चा तक नहीं है जो हमने पहले सुना गया था।’
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...और अंत में मोदी की लोकप्रियता। मुझे मानना होगा कि वह काफ़ी लोकप्रिय हैं... वह शायद सबसे लोकप्रिय बीजेपी नेता हैं। (लेकिन बंगाल में) वह दीदी से ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हैं। और एक चुनाव में जहाँ मुख्यमंत्री चुने जाने की बात होती है, शायद हमें फ़ायदा होगा।
प्रशांत किशोर, चुनावी रणनीतिकार
क्या स्थानीय नेताओं के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी भावना और ग़ुस्सा टीएमसी की संभावनाओं को प्रभावित करेगा?
इस सवाल के जवाब में प्रशांत किशोर कहते हैं, 'हाँ, यह एक फैक्टर है और इसीलिए यह प्रयास है कि इसे कम से कम किया जाए। लगभग 60% ब्लॉक अध्यक्ष अब नए हैं। 80 से अधिक विधायकों को हटा दिया गया है। मुझे आशा है कि उन सभी चीजों ने इसे कम करने में योगदान दिया है... मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि हर कोई आपकी सरकार का प्रशंसक बन जाएगा, लेकिन यह निश्चित रूप से यदि कोई ग़ुस्सा था तो उसको कुछ कम करने में मदद करेगा।’
बंगाल में जाति फैक्टर के सवाल पर वह कहते हैं, ‘पहचान की राजनीति हमेशा से थी। यह सवाल है कि आप इसे कितना खेलते हैं। मैं भारत के किसी ऐसे राज्य में नहीं गया हूँ जहाँ जाति/पहचान कोई फैक्टर नहीं है। इन चुनावों में बंगाल के एससी सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर हैं। इसका कहने का मतलब यह नहीं है कि राजबंशी और नामसुद्र मौजूद नहीं हैं। वे हमेशा मौजूद रहे, पार्टियों ने उन पर भी ध्यान दिया। लेकिन अब इसे कुछ ज़्यादा आगे लाया जा रहा है... ठीक वैसे ही जैसे हमने यूपी और बिहार में देखा है।’
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