पश्चिम बंगाल में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने जा रहे हैं और इस कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य बीजेपी नेताओं के मन में अचानक बंगाल और बंगाल से जुड़ी हर चीज़ के प्रति प्रेम उमड़ने लगा है। अपने इस प्रेम प्रदर्शन में वे अक्सर कुछ ऐसी चूकें कर बैठते हैं जिससे तृणमूल कांग्रेस और दूसरे राजनीतिक दलों को यह कहने का मौक़ा मिल जाता है कि बीजेपी का यह प्रेम केवल दिखावा है और वह न बंगाल को समझती है, न बंगाल की संस्कृति को।
विश्व भारती विश्वविद्यालय के स्थापना शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी के भाषण ने तृणमूल को ऐसा ही एक मौक़ा दे दिया। अपने भाषण में मोदी ने भारतीय राष्ट्रवाद के प्रसार में गुरुदेव रबिंद्र नाथ टैगोर और विश्वभारती की भूमिका का उल्लेख किया जिस पर तृणमूल ने प्रतिक्रिया जताई कि टैगोर तो राष्ट्रवाद को विभाजनकारी मानते थे और उन्होंने धर्म के आधार पर लोगों को बाँटने का कभी समर्थन नहीं किया।
क्या मोदी ने झूठ बोला?
ऐसे में लोगों के ज़ेहन में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या टैगोर वास्तव में राष्ट्रवाद के विरोधी थे और मोदी ने उन्हें राष्ट्रवादी बताकर उनके बारे में असत्य बोला!
मोदी ने कहा, “गुरुदेव ने जिस तरह भारत की संस्कृति से जोड़ते हुए, अपनी परंपराओं से जोड़ते हुए, विश्व भारती को जो स्वरूप दिया, उसने राष्ट्रवाद की एक मज़बूत पहचान देश के सामने रखी।”
क्या इन पंक्तियों में आपको कुछ आपत्तिजनक नज़र आता है? कुछ भी नहीं, क्योंकि भारतीय दर्शन और भारतीय संस्कृति तो टैगोर की हर रचना, हर गीत, हर धुन में नज़र आते हैं।
विश्व भारती इसीलिए तो बाक़ी विश्वविद्यालयों से अलग है कि उसमें पश्चिमी तरीक़े से शिक्षा नहीं दी जाती। वह कुछ-कुछ गुरुकुल की तरह है। अगर इसी भारतीयपने का ही नाम भारतीय राष्ट्रवाद है तो टैगोर राष्ट्रवादी थे और मोदी कुछ ग़लत नहीं कह रहे थे।
ग़लत कहा है तृणमूल ने?
अब सवाल उठता है कि अगर ऐसा है तो तृणमूल क्यों कह रही है कि टैगोर राष्ट्रवाद के विरोधी थे। क्या वह ग़लत कह रही है? जवाब है - नहीं!
दरअसल राष्ट्रवाद एक ऐसी तलवार है जो एक तरफ़ से तो भोथरी है और किसी का कोई नुक़सान नहीं पंहुचाती लेकिन दूसरी तरफ़ से वह तेज़ है और दूसरे का गला काटने को हमेशा उतारू रहती है।
इसे यूँ समझिए कि जब तक राष्ट्रवाद धर्म, जाति, भाषा या संस्कृति के आधार पर किसी जनसमूह को सामान्य तौर पर एक सूत्र में बाँधता है, तब तक वह हानिकारक नहीं है।
जब इन्हीं आधारों पर बना कोई समूह (राष्ट्रीयता या क़ौम) ख़ुद को दूसरे समूहों (राष्ट्रीयताओं या क़ौमों) से बेहतर मानने और घोषित करने लग जाता है, तब इन समूहों में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाती है और तभी यह राष्ट्रवाद अत्यधिक ख़तरनाक हो जाता है। टैगोर इस दूसरे तरह के राष्ट्रवाद के विरुद्ध थे।
राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ टैगोर?
टैगोर राष्ट्रवाद के आधार पर आर्थिक और सैनिक तौर पर श्रेष्ठ बनने की होड़ के ख़िलाफ़ थे, क्योंकि यही दुनिया में अलग-अलग देशों के बीच संघर्ष का कारण बनती है और बनी भी। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध राष्ट्रीयताओं के ही संघर्ष थे जिसके भयंकर परिणाम दुनिया ने देखे और झेले। नस्ल और धर्म के आधार पर आज भी हम दुनिया में हिंसक घटनाएँ देख रहे हैं। वे भी राष्ट्रवाद के सैनिकीकरण का परिणाम हैं।
अब हम देखते हैं कि बीजेपी के राष्ट्रवाद की बुनियाद में क्या है? उसके दो स्तर हैं। एक तरफ़ उसकी सारी राजनीति हिंदू धर्म की श्रेष्ठता और हिंदुओं के एकीकरण से प्रेरित है, ताकि देश में हिंदुओं का वर्चस्व स्थापित किया जाए। दूसरी तरफ़ वह पड़ोसी देशों से श्रेष्ठता की लड़ाई में भारतीय राष्ट्रवाद का भरण-पोषण कर रही है, युद्धोन्माद पैदा कर रही है। दोनों का नतीजा संघर्ष और मनमुटाव ही है। टैगोर इस तरह के संघर्ष और मनमुटाव पैदा करने वाले राष्ट्रवाद के विरुद्ध थे।
टैगोर का राष्ट्रवाद मानवकेंद्रित और मानवता आधारित था जहाँ न कोई श्रेष्ठ है, न ही कोई कमतर। उनका राष्ट्रवाद पूरी दुनिया को एक मानता था। इसीलिए तृणमूल का यह कहना सही है कि टैगोर विभाजनकारी राष्ट्रवाद के विरोधी थे।
विश्वबंधुत्व
रोचक बात यह है कि ख़ुद मोदी ने अपने भाषण में यह बात मानी है। ऊपर हमने उनकी स्पीच का जो हिस्सा पढ़ा, उसके ठीक बाद वे कहते हैं -
“…साथ ही उन्होंने विश्वबंधुत्व पर भी उतना ही ज़ोर दिया। गुरुदेव चाहते थे कि भारत में जो सर्वश्रेष्ठ है, उससे दुनिया को भी लाभ हो और दुनिया में जो अच्छा है, उससे दुनिया भी सीखे।”
अब अगर मोदी के भाषण के दोनों टुकड़ों को जोड़कर हम पढ़ें तो कहीं कुछ विसंगति नज़र नहीं आती, न ही हम कह सकते हैं कि उन्होंने टैगोर को ग़लत रूप में प्रस्तुत किया। परंतु चूँकि माहौल चुनावी हो गया है, इसलिए उनके हर वचन, हर क़दम को राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। यहाँ तक कि उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि उन्होंने बंगाल चुनाव के कारण टैगोर जैसी दाढ़ी बढ़ाई है।
इसलिए यदि कोई कहे कि मोदी ने अपनी स्पीच में टैगोर को राष्ट्रवादी घोषित करके टैगोर को बीजेपी की आक्रामक राष्ट्रवादी विचारधारा से जोड़ने की कोशिश की है, तो उसका संदेह अस्वाभाविक नहीं है।
फ़ाउल!
बीजेपी सरदार पटेल और बाबा साहेब आंबेडकर के साथ ऐसा कर चुकी है।
यही कारण है कि बंगाल में चल रहे राजनीतिक फ़ुटबॉल मैच में तृणमूल इन दिनों बीजेपी के हर मूव को शक की दृष्टि से देख रही है और बीजेपी के हर शॉट पर फ़ाउल-फ़ाउल चिल्ला रही है। वह साबित करना चाहती है कि बंगाल, बंगालियों और बंगाल की प्रतिभाओं को उससे बेहतर कोई नहीं जानता, नही जान सकता है, न सम्मान कर सकता है।
विडंबना यह है कि एक तरफ़ तो तृणमूल बीजेपी के विभाजनकारी राष्ट्रवाद का विरोध कर रही है लेकिन दूसरी तरफ़ ख़ुद आज वैसी ही विभाजनकारी बंगाली उपराष्ट्रीयता का पोषण कर रही है और भीतरी बनाम बाहरी (पढ़ें - बंगाली बनाम ग़ैर-बंगाली) को अपनी चुनावी रणनीति का ख़ास हिस्सा बना रही है।
क्या टैगोर इस विभाजनकारी बंगाली उपराष्ट्रवाद का समर्थन करते?
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