पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया है कि राज्य के वोटरों पर तृणमूल कांग्रेस की पकड़ कमजोर होने की बजाय और मजबूत हुई है। भाजपा की ओर से बड़े पैमाने पर चलाए जा रहे आक्रामक चुनाव अभियान और प्रतिकूल मुद्दों के बावजूद पार्टी ने न सिर्फ अपनी पिछली सीटें बचाए रखी हैं, उसने भाजपा और कांग्रेस की सीटें भी छीन ली हैं। दूसरी ओर, यहां सीटें बढ़ाने का सपना देख रही भाजपा अपनी पिछली सीटों में से एक-तिहाई बचाने में नाकाम रही है। राज्य में उसकी ओर से सरकार के ख़िलाफ़ उठाए जाने वाले संदेशखाली, नागरिकता क़ानून और तमाम घोटाले जैसे मुद्दे भी तृणमूल कांग्रेस को पछाड़ने में नाकाम रहे।
लेकिन आखिर ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, भाजपा के खिलाफ मुकाबले में ममता बनर्जी शुरू से ही एक ठोस रणनीति पर आगे बढ़ रही थीं। उन्होंने इसी रणनीति के तहत यहां इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों-कांग्रेस और सीपीएम के साथ हाथ मिलाने की बजाय अकेले तमाम सीटों पर लड़ने का फैसला किया था। आखिरकार उनका फैसला सियासी तौर पर बेहद फायदेमंद साबित हुआ है।
बंगाल में भाजपा की ओर से उठाए गए मुद्दे बेअसर साबित हुए हैं। पार्टी ने संदेशखाली में तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेताओं की ओर से महिलाओं के यौन उत्पीड़न को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था। वह इस मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस और उसकी सरकार के खिलाफ आक्रामक तरीक़े से प्रचार कर रही थी। पार्टी ने एक कथित पीड़िता को ही इलाक़े की बशीरहाट सीट पर अपना उम्मीदवार बनाया था। लेकिन राजनीति में पहली बार क़दम रखने वाली उस महिला को पराजय का सामना करना पड़ा है। दरअसल, इस मुद्दे पर एक स्टिंग वीडियो ने रातोंरात पूरी तस्वीर ही पलट दी। उसमें भाजपा के स्थानीय नेता को यह कहते हुए दिखाया गया था कि पूरा मामला सुनियोजित है और महिलाओं को पैसे देकर रेप और उत्पीड़न की फर्जी शिकायतें दर्ज कराई गई हैं। उसके बाद ममता बनर्जी ने इस मामले को बंगाल की महिलाओं की अस्मिता से जोड़ते हुए इसे अपने सियासी हित में भुनाना शुरू किया और उनको इसका फायदा भी मिला। संदेशखाली मुद्दे की धार कुंद करने के लिए पार्टी ने यहां अपने पिछले उम्मीदवार नुसरत जहां को भी बदल दिया था।
भाजपा ने करोड़ों मतुआ वोटरों को ध्यान में रखते हुए चुनाव से ठीक पहले जिस नागरिकता संशोधन कानून को लागू किया था उसके खिलाफ ममता भ्रामक माहौल बनाने में कामयाब रहीं। उन्होंने इसे नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस से जोड़ दिया। इसी वजह से मतुआ वोटरों ने इसके तहत नागरिकता का आवेदन ही नहीं किया। अब तक महज आठ लोगों ने इस कानून के तहत नागरिकता हासिल की है। भाजपा को उम्मीद थी कि इससे उसे एक करोड़ से ज्यादा मतदाताओं का व्यापक समर्थन मिलेगा। मतुआ समुदाय राज्य की कम से कम पांच सीटों पर निर्णायक स्थिति में है।
भाजपा हर चरण से पहले अपने मुद्दे बदलती रही। उसका कोई भी मुद्दा स्थायी नहीं रहा और नतीजों से साफ़ है कि आम वोटरों पर उनका कोई खास असर नहीं हो सका।
पार्टी के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने महज शुभेंदु अधिकारी पर भरोसा कर गलती की। इसके अलावा दलबदलुओं को टिकट देकर पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गई।
साथ ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष की सीट बदल दी गई। इसकी वजह से उनको पराजय का सामना करना पड़ा। इससे पार्टी में असंतोष फैला। इस चुनाव में दो नेताओं की साख भी दांव पर लगी थी। तृणमूल के सेनापति कहे जाने वाले सांसद अभिषेक बनर्जी और भाजपा की ओर से विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी। चुनावी नतीजों ने जहां पार्टी के सेनापति के तौर पर अभिषेक की स्थिति को बेहद मजबूत बना दिया है वहीं शुभेंदु के राजनीतिक भविष्य पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अब बंगाल में ममता बनर्जी केंद्र सरकार और भाजपा के प्रति और आक्रामक रुख अख्तियार करेंगी। उन्होंने नतीजे सामने आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इस्तीफे की मांग उठा दी।
विश्लेषकों का कहना है कि वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी चुनाव मोदी बनाम ममता था। लेकिन लोगों ने मोदी की गारंटी का नकारते हुए ममता के वादों और उनकी सरकार की योजनाओं के प्रति ही पहले से मजबूत भरोसा जताया है।
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