मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एक मुक़दमे के दौरान वकील प्रशांत भूषण को ‘पॉज़िटिव’ रहने की सलाह दी। पॉज़िटिव की हिंदी सकारात्मक है, लेकिन इस शब्द का इस्तेमाल करते ही कई लोग इसे कठिन या क्लिष्ट बताकर नाक भौं सिकोड़ लेंगे। हम लेकिन अभी भाषा पर बात नहीं कर रहे हैं, न्यायमूर्ति के सकारात्मकता के आग्रह पर कुछ सोच रहे हैं।
सकारात्मकता : हुक़्म मानने की मानसिकता या आज़ादी की?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 22 Jan, 2019

मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एक मुक़दमे के दौरान वकील प्रशांत भूषण को ‘पॉज़िटिव’ रहने की सलाह दी। प्रधानमंत्री के अधिकतर समर्थक तो अक्सर विरोधियों को नकारात्मक क़रार देते रहते हैं। क्या नकारात्मक कहने की जगह शायद आलोचनात्मक कहना अधिक मुनासिब नहीं होगा?
न्यायमूर्ति ने कहा, ‘मुझे यक़ीन है कि आप इस दुनिया को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाना चाहते हैं। ऐसा करने का एक तरीक़ा यह है कि आप चीज़ों को सकारात्मक रवैये से देखना शुरू करें। चीज़ों को नकारात्मक दृष्टि से न देखें। चीज़ों के प्रति सकारात्मक नज़रिया अपनाएँ। दुनिया काफ़ी बेहतर जगह हो जाएगी। कल से ही ऐसा करके देखिए।’
जैसा पुराने समय से दस्तूर चला आ रहा है, महाजन इस किस्म की कोई बात अपने सामने वाले को छोटा दिखलाने के लिए करते हैं तो आसपास के सारे लोग हँसकर उनकी अभ्यर्थना करते हैं। उस समय इसके अलावा उस व्यक्ति के पास भी चारा नहीं होता कि वह इस अपमान को सकारात्मक बनाने के लिए ख़ुद भी उस हँसी में शामिल हो जाए। सो, न्यायमूर्ति की ऊँची कुर्सी से दी गई इस नसीहत पर अदालत में हँसी फैल गई और प्रशांत भूषण को भी हँसना पड़ा।
- प्रशांत भूषण उन कुछ लोगों में हैं जिन्हें नकारात्मक कहा जाता है। वह हमेशा किसी चीज़ के ख़िलाफ़ ही दिखलाई पड़ते हैं। खासकर, अदालतों में तो वह सरकारों के ख़िलाफ़ नकारात्मक रुख़ लेकर ही पेश होते रहे हैं। उसी तरह अरूंधती राय जैसी लेखकों के बारे में शिकायत की जाती है कि उन्हें कभी कुछ अच्छा दीखता ही नहीं।
नकारात्मकता क्यों?
अभी कुछ रोज़ पहले प्रधानमंत्री ने एक बाज़ारी गुरु का पुरस्कार कबूल करते हुए तसवीर खिंचवाई और इस पर उनके सभी मंत्रीगण वाह-वाह कर उठे मानो उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल गया हो! जबकि उस गुरु ने अपने कुछ नुमाइंदों को यह ईनाम प्रधानमंत्री तक पहुँचाने को भेज दिया था, ख़ुद आने की जहमत भी न उठाई। चूँकि इस पुरस्कार का नाम कभी सुना न गया था और न जिसके नाम पर पुरस्कार है, वह भी कोई पहचाना नाम न था तो कुछ फ़ितूरी पत्रकारों ने खोजबीन करके यह बताया कि कैसे यह एक मज़ाक-सा ही है! उन्होंने बताया कि यह व्यक्ति विद्वान् भी नहीं है और कैसे यह दरअसल एक बाज़ारी हिकमत भर है, तो बजाय इसका जवाब देने के प्रधानमंत्री के दल के लोग शिकायत करने लगे कि आलोचकों को नकारात्मकता फैलाने के अलावा कुछ आता ही नहीं। वे प्रधानमंत्री से जुड़ी किसी भी चीज़ में कुछ भी सकारात्मक देख पाने में अक्षम हैं।
- उसी तरह पिछले दो साल से सरकार कहे जा रही है कि नोटबंदी और जीएसटी से खुशहाली आ गई है लेकिन लोग हैं कि शिकायत किए चले जा रहे हैं। सरकार लोगों को इसे सकारात्मक नज़रिए से देखने को कह रही है जैसे वह 'आधार' जैसी व्यवस्था की सकारात्मकता का प्रचार कर रही है। लेकिन रितिका खेड़ा या उषा रामनाथन या ज्यां द्रेज़ जैसे लोग उसे नकारात्मक निगाह से देखने पर अड़े हुए हैं!
‘सरकारें जनता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा’
'वायर' में रोहित कुमार ने ठीक ही लिखा है कि सकारात्मकता की माँग उतनी निर्दोष नहीं है जितनी दीखती है। ऐसा क्यों हैं कि अक्सर यह माँग, या सलाह जो खाते-पीते या ताक़तवर लोग हैं, वही देते हैं? और क्यों प्रायः यह सलाह माली तौर पर भी और दूसरे मामलों में जो कमज़ोर हैं उन्हें ही दी जाती है?
रोहित कुमार ने यह भी ठीक लिखा है कि जो इस सकारात्मकता की माँग को मानने से इनकार करते हैं उनके सोचने के तरीक़े को नकारात्मक कहने की जगह शायद आलोचनात्मक कहना अधिक मुनासिब होगा। रोहित का तर्क है कि आलोचनात्मक रवैया जनतंत्र के लिए अनिवार्य है क्योंकि यह तथ्य इतिहास सम्मत है कि सरकारें जनता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। वे उसे यक़ीन दिलाना चाहती हैं कि उनका हर कदम जनहित में है और ऐसा करके वे उसकी आज़ादी छीन लेती हैं। इसलिए सरकार के हर कदम को सकारात्मक नहीं आलोचनात्मक तरीक़े से देखना अपनी आज़ादी कायम रखने के ऐतबार से अधिक ठीक होगा।
‘सकारात्मक सोच’ का प्रचार एक बड़ा उद्योग
न्यायमूर्ति कह सकते हैं कि हमने तो मज़ाक किया था, लेकिन वास्तव में यह मज़ाक नहीं है। इसलिए कि ‘सकारात्मकता’ एक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विचार के रूप में न सिर्फ़ पिछली सदी के मध्य से स्थापित की गई है बल्कि धीरे-धीरे ‘सकारात्मक सोच’ का प्रचार एक बड़ा उद्योग बन गया है। अमेरिका इसका गढ़ है और अमेरिकियों को ख़ुद को सकारात्मक, ख़़ुशमिज़ाज कहलाने में गर्व का अहसास होता रहा है। लेकिन एक दशक पहले जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था, जो इस सकारात्मकता का आधार थी या उसी पर टिकी थी, भरभरा कर गिर पड़ी तो मालूम हुआ कि अवसाद अमेरिकी जीवन का उतना ही बड़ा सत्य है।