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करण सांगवान (बाएं) और सब्यसाची दासः बुलंद आवाज

अगर राजनीति देश को अस्तव्यस्त कर रही हो तो अध्यापक क्या करे? 

क्या कोई अध्यापक विद्यार्थियों को यह कह सकता है कि किसे वोट दिया जाए, किसे नहीं? क्या वह कक्षा में निजी राय व्यक्त कर सकता है, ख़ासकर राजनीतिक राय? इन प्रश्नों पर लोगों की अलग अलग राय है। लेकिन उसके पहले हम यह ध्यान रखें कि  जिस समय हम यह  सवाल कर रहे हैं वह भारत में अध्यापकों पर हमलों, उनकी गिरफ़्तारी, उनको इस्तीफ़ा देने को मजबूर करने या निकाल देने का समय है। यह विश्वविद्यालयों में हो रहा है और दूसरे शैक्षणिक संस्थानों में भी।  
अशोका यूनिवर्सिटी ने अपने अध्यापक डॉक्टर सब्यसाची दास को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर किया क्योंकि उन्होंने एक शोध पत्र की चर्चा सोशल मीडिया में की थी जो भारतीय जनता पार्टी को नागवार गुजरा था।अशोका यूनिवर्सिटी ने कहा कि वह अपने अध्यापकों की सोशल मीडिया सक्रियता को पसंद नहीं करती हालाँकि अध्यापन और शोध में वह किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं डालती। उसके पहले प्रताप भानु मेहता को कुलपति पद से इस्तीफ़ा देने को बाध्य किया गया था क्योंकि अख़बारों में उनके निजी मत से सरकार नाखुश थी।  
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डॉक्टर दास के इस्तीफ़े के आस पास ‘अनकैडेमी’ नामक ऑनलाइन शैक्षिक मंच के क़ानून के लोकप्रिय अध्यापक करण सांगवान को उनके संस्थान ने यह आरोप लगाकर निकाल दिया कि उन्होंने ‘अनकैडेमी’ की आचार संहिता का उल्लंघन किया है जिसके मुताबिक़ कोई अध्यापक अपनी निजी राय से विद्यार्थियों को प्रभावित करने का प्रयास नहीं करेगा। करण सांगवान क़ानून के अध्यापक हैं। अपनी एक कक्षा में भारतीय दंड संहिता को बिना राय मशविरे के आनन फ़ानन में पूरी तरह बदल दिए जाने के सरकारी अध्यादेश पर बात करते हुए उन्होंने छात्रों को कहा कि आइंदा वे सोच समझकर पढ़े लिखे लोगों को वोट दें। ऐसे लोग जो बिना परिणाम जाने सोचे फ़ैसला न किया करें।
इसके बाद बहस दो बातों पर होने लगी। क्या मात्र शिक्षित लोगों को वोट देने का विचार सही है? हम जानते हैं कि शिक्षा और साक्षरता का सीधा रिश्ता नहीं। जो डिग्रीधारी नहीं, वह शिक्षित नहीं, यह कहना ग़लत है। शिक्षित व्यक्ति वह है जो विवेकपूर्ण, तर्कसंगत निर्णय ले सकता हो। आज़ादी के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे कुमारस्वामी कामराज की औपचारिक शिक्षा न के बराबर थी। लेकिन वे आज तक भारत के मुख्यमंत्रियों के इतिहास में सबसे कुशल और सफल मुख्यमंत्री माने जाते हैं। उनके 9 साल के कार्यकाल में राज्य में स्कूल जाने वालों की संख्या 7% से बढ़कर 37% हो गई। स्कूलों में दोपहर के खाने की योजना उन्होंने ही पहले शुरू की। जवाहरलाल नेहरू ने भी एक बार कहा कि अंग्रेज़ी न जाननेवाले कामराज ने तमिलनाडु को सबसे कुशल प्रशासन दिया है। क्या कामराज शिक्षित कहे जाएँगे या नहीं? शिक्षा मात्र साक्षरता आधारित शिक्षा नहीं है जिसका प्रमाण डिग्रियाँ देती हैं।
इससे अलग और महत्त्वपूर्ण बहस  यह है  कि अध्यापक छात्रों को यह बतलाए कि नहीं कि उन्हें किसे वोट देना है।वह अपनी राजनीतिक राय व्यक्त करे या नहीं? अशोका विश्वविद्यालय  या अनकैडेमी का कहना है कि अध्यापकों को अपनी निजी राय विद्यार्थियों के सामने ज़ाहिर नहीं करनी चाहिए। उनका काम श्रेष्ठ ज्ञान विद्यार्थियों को उपलब्ध कराना है। 
क्या यह बात स्कूलों और विश्वविद्यालय पर समान रूप से लागू होती है? माना जाता है कि स्कूली विद्यार्थी नाज़ुक दिमाग़ के होते हैं और अध्यापकों का असर उनपर तुरत होता है। अध्यापक को अपनी राय विद्यार्थी पर थोपनी नहीं चाहिए, यह सामान्य मत है। लेकिन अपनी राय किसी के सामने व्यक्त करना क्या उसे किसी पर थोपना है? जब आप अपनी राय किसी के सामने, अगर वह विद्यार्थी हो तब भी, ज़ाहिर करते हैं तो उसे समानता का बोध ही हो सकता है। हाँ! यह आवश्यक है कि अध्यापक और विद्यार्थी दोनों को ही अपनी राय ज़ाहिर करने का मौक़ा हो। मुमकिन है कि विद्यार्थी अध्यापक के सामने  ख़ामोश रह जाए लेकिन अगर अध्यापक ने कक्षा में ऐसा वातावरण बनाया है कि वह अध्यापक से असहमति भी ज़ाहिर कर सके तो अध्यापक की इस पहल से स्वस्थ विचार विमर्श भी शुरू हो सकता है।असहमति के साथ कैसे आपस में बात करें, इसका अभ्यास करना भी शिक्षा का काम है।
अध्यापक अगर अपनी राजनीतिक राय ज़ाहिर करे तो क्या वह अनुचित तरीक़े से छात्रों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है? स्कूली और विश्वविद्यालय के स्तर पर भी अध्यापकों का यह अनुभव है कि छात्र अध्यापक की राय को लेकर थोड़े शंकालु ही हुआ करते हैं।स्कूल या कॉलेज में अलग अलग राजनीतिक रुझानों वाले अध्यापक होते हैं। विद्यार्थी सबकी राय की तुलना भी करते हैं और ख़ुद अपनी राय बनाते हैं। यह बात एक हद तक ठीक है कि अच्छे अध्यापक की राय का वजन अपने विषय और कक्षा के प्रति उसकी गंभीरता के कारण दूसरों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा होता है। लेकिन विद्यार्थी इतनी आसानी से अध्यापक से प्रभावित नहीं होते।
यह मात्र भारत नहीं दुनिया भर के अध्यापकों के बीच बहस का विषय रहा है कि वे किस प्रकार निष्पक्षता बनाए रख सकते हैं। मसलन विज्ञान की कक्षा में पृथ्वी के बनने या विकासवाद के सिद्धांत पर चर्चा के दौरान अध्यापक की निष्पक्षता का क्या अर्थ होगा?अमेरिका में यह चर्चा भी अध्यापक के लिए ख़तरनाक हो सकती है। लेकिन जिसे लेकर सबसे अधिक द्वंद्व होता है, वह है राजनीति। यह ग़लतफ़हमी है कि अध्यापक जब खुले तरीक़े से अपनी राय बतलाए तभी विद्यार्थियों को उसकी राजनीतिक विचारधारा का पता चलेगा। अपने  अध्यापन के अनुभव के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि विद्यार्थी इसका अनुमान  कर ही लेते हैं कि किसकी क्या राजनीति है।लेकिन वे अपने फ़ैसले मात्र अध्यापक के अनुसार नहीं करते। हम भूल जाते हैं कि विद्यार्थी कई प्रभाव क्षेत्रों में एक साथ रहते हैं: अपने परिवार, मित्र और व्यापक समाज के प्रभावों के बीच ही वे अध्यापक की राय पर विचार करते हैं।
अध्यापकों की राय से जितनी परेशानी विद्यार्थियों को नहीं होती उतनी उनके माता पिता या समुदाय को होती है। क्योंकि उन्हें भय होता है कि बच्ची उनके प्रभाव क्षेत्र से बाहर हो नहीं चली जाएगी! वे चाहते हैं कि शिक्षण संस्थान या अध्यापक उनके विचारों की ही पुष्टि करें, उनपर संदेह पैदा करने के लिए कुछ न करें। उदाहरण के लिए रामकथा को ही ले लें। क्या अध्यापक यह बताए या नहीं कि राम के जो अलग अलग चरित्र अलग अलग कवियों ने रचे हैं, उनमें वह किस राम को पसंद करता है। या अलग-अलग रामकथाओं में उसे कौन सी अधिक रुचती है? 
किसी कविता को पढ़ाते समय आप क्या उसके बारे में अलग-अलग आलोचकों की राय से विद्यार्थियों को अवगत कराना ही अपना कर्तव्य मानते हैं? इसके बाद भी छात्र जानना चाहते हैं कि ख़ुद आपकी उसके बारे में क्या राय है। वह न बतलाकर आप ख़ुद को सुरक्षित कर लेते हैं। ख़ुद को आलोचना के लिए नहीं प्रस्तुत करते। क्योंकि आप जब अपनी राय बतलाएँगे तो विद्यार्थी उसपर भी विचार करेंगे और हो सकता है, वे उसे ठुकरा दें।
यह बात राजनीति के मामले में और भी सही है। आप अपनी राय ज़ाहिर करके एक बहस शुरू कर सकते हैं और विद्यार्थियों को मौक़ा दे सकते हैं कि वे प्रतियोगी विचारों के बीच तुलना करें। जैसे करन सांगवान ने जो कहा उसके बाद उनके विद्यार्थी उनसे पढ़े लिखे नेता होने की अनिवार्यता पर बहस कर सकते थे। वह बहस संविधान के सिद्धांत के विकास की पृष्ठभूमि को समझने के लिए  विद्यार्थियों को प्रेरित कर सकती थी। यह मान लेना मूर्खता है कि सांगवान के कहते ही उनके छात्र नरेंद्र मोदी की जगह राहुल गाँधी को वोट दे देंगे। ज़्यादातर शायद उन्हें नज़रअंदाज़ ही सच तो यह है कि कर देंगे।
लेकिन करन अगर यह न बोलें तो वे अपने पेशे के साथ पूरी ईमानदारी नहीं कर रहे होंगे। यह विचार व्यक्त करना उनका अधिकार है। और यह उनका कर्तव्य भी है। उनकी राय जानना विद्यार्थियों का अधिकार भी है।उसे मानना उनके लिए अनिवार्य नहीं और यह कहना भी अनावश्यक है।
देश, समाज के लिए कुछ ऐसी असाधारण परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें अध्यापकों को अपने ज्ञान के अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपनी निष्पक्षता छोड़नी पड़ती है। जैसे, डॉनल्ड ट्रम्प की पहली उम्मीदवारी के समय अमेरिका के मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि वे देश की जनता को यह राय दे रहे हैं कि वह ट्रम्प को वोट न दे क्योंकि ट्रम्प देश के लिए ख़तरनाक हैं। उन्होंने कहा कि वे अपने पेशे की उस पाबंदी के बावजूद (गोल्डवाटर क़ायदा) यह मत दे रहे हैं जिसके मुताबिक़ बिना किसी व्यक्ति को निजी तौर पर देखे उसके बारे में राय नहीं दे जानी चाहिए। ट्रम्प की बिना निजी तौर पर जाँच किए हुए उनसे जनता को सावधान करना इसलिए ज़रूरी लगा कि पूरे देश का भविष्य दांव पर था और जनता को यह मालूम होना चाहिए कि वे एक आत्मग्रस्त, अस्थिर, बड़बोले व्यक्ति के हाथ अपना देश देने जा रही है।
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अमरीका की साइकोनालिटिकल एसोसिएशन ने अपने सदस्यों को गोल्डवाटर क़ायदे को नज़रअंदाज़ करते हुए ट्रम्प या राजनेताओं के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में सार्वजनिक चर्चा की छूट दी। यह निर्णय ट्रम्प के कारण पैदा हुई असाधारण परिस्थिति के कारण उन्हें लेना पड़ा।उनकी चेतवानी न मानी गई जिसका ख़मियाज़ा अमेरिका ने भुगता।ज्ञान का एक उत्तरदायित्व होता है। मनोवैज्ञानिकों ने उसका निर्वाह किया।
उसी प्रकार जब एक के बाद नोटबंदी, जीएसटी या कोरोना के आरंभिक काल में 4 घंटे की नोटिस पर पूरे देश में तालाबंदी जैसे  निर्णय लिए जा रहे हों, जिनसे देश पूरी तरह अस्तव्यस्त हो जाए तो एक अध्यापक को अपनी निष्पक्षता छोड़कर छात्रों को कहना ही चाहिए कि वह अशिक्षित या अहमक को वोट न दे। ये ऐसा अध्यापन के पेशे के बचे रहने के लिए भी आवश्यक है। करण सांगवान यही कर रहे थे। 
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अपूर्वानंद
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