पुलिस की हिंसा को सिर्फ़ पुलिस सुधार कार्यक्रम से नहीं रोका जा सकता। वह कुछ वैसी ही सामाजिक व्याधि है जैसे दहेज के लिए की जानेवाली हिंसा या हत्या। वह ताक़तवर के पास हिंसा के अधिकार पर सवाल करके ही दूर की जा सकती है। ताक़त के बेजा इस्तेमाल के ख़िलाफ़ सामाजिक जागरुकता के ज़रिए ही।
यह क़ानूनी मसला तो है, लेकिन यह हिंसा के प्रति सामाजिक नज़रिए का सवाल है। पुलिस का नज़रिया तबतक नहीं बदल सकता जबतक समाज का ताक़त के इस्तेमाल को लेकर रवैया नहीं बदलता।
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चर्चा की ताज़ा वजह तमिलनाडु में हुई दो ‘हत्याएँ’ हैं। तमिलनाडु के तुतिकोड़ी के क़रीब साकुंतलम शहर में पुलिस हिरासत में पिता पी. जेयराज और बेटे बेनिक्स की ‘हत्या’ के ख़िलाफ़ राज्य में आक्रोश की ख़बर है। जगह जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। आज चेन्नई के एक मित्र ने बताया कि तमिलनाडु के दूध विक्रेता पुलिसवालों के घर दूध की सप्लाई न करने का फ़ैसला करने पर विचार कर रहे हैं।
मामला क्या है?
इन दोनों ख़बरों का रिश्ता समझने की ज़रूरत है। दुकानदार पिता- पुत्र की पुलिस हिरासत में मौत को अख़बार पुलिस द्वारा बदले की क़ार्रवाई बता रहे हैं। मोबाइल फ़ोन की दुकान करनेवाले 62 साल के जेयराज ने लॉकडाउन में दुकान बंद करने के सवाल पर पुलिस पर कोई टिप्पणी कर दी थी। इसकी ख़बर मिलते ही पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई। पिता के बारे में यह ख़बर मिलने पर जब बेनिक्स थाने पहुँचा तो उसने देखा कि पिता को पुलिसवाले बुरी तरह मार रहे हैं। उसने उन्हें रोकने की कोशिश की। उसका नतीजा उसे मिला।दोनों को ही बुरी तरह ज़ख़्मी करने के बाद पुलिस गिरफ़्तारी के लिए उन्हें मैजिस्ट्रेट के पास ले गई। उसने इन दोनों को सामने से देखने की ज़हमत भी मोल न ली। पहली मंज़िल से झाँक कर इन्हें पुलिस हिरासत में भेज दिया। इस बीच इनका खून बहता रहा। कोई 8 बार कपड़े बदले गए। दो रोज़ में ही पहले पिता और फिर बेटे की मौत हो गई।
मित्र के मुताबिक़ दूसरी चर्चा यह है कि शायद पुलिसवालों ने इनसे मोबाइल फ़ोन ज़बरदस्ती ले लिया था, जिसके पैसे माँगने की जुर्रत इन्होंने कर दी थी। पुलिस ने उसी हिमाक़त के लिए इन्हें सबक़ सिखलाया। दूध विक्रेताओं की शिकायत यह है कि लॉकडाउन के दौरान उनसे पुलिसवाले वसूली कर रहे हैं।
दूध विक्रेता पुलिसवालों के घरों में दूध न देकर वसूली के ख़िलाफ़ अपना विरोध ज़ाहिर कर रहे हैं। क्या इससे पुलिस का तरीक़ा बदलेगा या इस विरोध की क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी?
पुलिस हिंसा क्यों सामान्य है?
यह सब कुछ भारत के लिए इतना स्वाभाविक है कि खबर पर ध्यान सिर्फ़ हिंसा के नए तरीक़े के ब्योरे के कारण ही जाता है। विरोध प्रदर्शन भी तमिलनाडु में हो पाता है तो शायद इसलिए कि दोनों ‘ग़लत’ समुदाय के सदस्य न थे। इसीलिए सारी राजनीतिक पार्टियाँ भी इस सवाल पर एकजुट हैं। सरकार ने फ़ौरन किंचित सम्मानजनक मुआवज़ा भी दिया है और तुतिकोड़ी की सांसद कनिमोड़ी ने भी अपनी ओर से परिवार को सहायता का ऐलान किया है।कनिमोड़ी ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को लिखे एक ख़त में पिछले दो साल में पुलिस हिरासत ने 15 मौतों का ज़िक्र करते हुए शिकायत की है कि इनमें से एक की भी अब तक चार्जशीट नहीं दाखिल की गई है।
पुलिस क्रूरता
तमिलनाड़ु की पुलिस विशेष रूप से क्रूर है, यह वहाँ के मित्रों से सालों से सुनता आया हूँ। आप कोई सभा नहीं कर सकते क्योंकि पुलिस इसकी इजाज़त ही नहीं देती। लेकिन पुलिस क्रूरता तमिलनाडु का विशेषधिकार नहीं है।इन दो ‘हत्याओं’ की ख़बर के साथ ही ‘यूनाइटेड एनजीओ कैम्पेन अगेन्स्ट टॉर्चर’ की रिपोर्ट की ख़बर भी आई। इसके मुताबिक़ अकेले 2019 में न्यायिक और पुलिस हिरासत में 1,731 लोग मारे गए हैं।
इनमें से पुलिस हिरासत में 125 लोग मारे गए। सबसे अधिक 14 तमिलनाडु में और उसके बाद पंजाब में 11। इनके बाद बिहार का नम्बर है। लेकिन यह अखिल भारतीय संस्कृति है। गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, केरल, छत्तीसगढ़, हरियाणा, उत्तराखंड, झारखंड और दूसरे राज्य इस बीमारी से बरी नहीं हैं।
पीट-पीट कर मार डाला
इस ख़बर के दिन ही एक और समाचार मिला। उत्तर प्रदेश के बदायूँ के भद्रा गाँव में गोकुशी की पड़ताल के नाम पर मुसलमानों के घरों पर छापे और तोड़फोड़ के बाद जेयराज से 3 साल बड़े 65 साल के पेशे से राजमिस्त्री अब्दुल बशीर को पुलिस ने पीट-पीट कर मार डाला है, इसकी रिपोर्ट राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वीकार की है।ठीक इसी समय ख़बर मिली कि हापुड़ में प्रदीप तोमर की पुलिस हिरासत में कथित हत्या के अभियुक्त सारे पुलिसकर्मियों को बरी कर कर दिया गया है। प्रदीप के 10 साल के बेटे ने बताया था कि किस तरह पुलिस ने उसकी मौजूदगी में उसके पिता को यातना दी।
पिछले साल के अंतिम महीनों में इसकी चर्चा रही लेकिन धीरे धीरे यह सामाजिक स्मृति से निकल गई। उस वक़्त तोमर के परिजनों और समुदाय के लोगों ने विरोध भी किया था। अब वे क्या करेंगे और मीडिया भी इस ख़बर का क्या करेगी, यह पता चल ही जाएगा।
हम जब यह बात कर रहे हैं, हिमांशु कुमार सूचना देते हैं कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर में सुरक्षाबल के सदस्यों द्वारा मार डाले गए 17 आदिवासियों की याद के कार्यक्रम में सोनी सोरी के जाने से वहाँ की पुलिस को परेशानी हो रही है। हमें नहीं मालूम कि इस हत्याकांड का इंसाफ़ अब तक हुआ या नहीं।
तमिलनाडु में पुलिस द्वारा दी गई यातना से हुई मौतों से अगर हम पुलिस की हिंसा पर कुछ फ़ैसलाकुन तरीक़े से सोचना शुरू करें तो भी शायद वे मौतें बेकार न जाएँ। लेकिन शायद ही ऐसा हो। इसकी वजह क्या है?
पुलिस हिंसा को समर्थन
‘दिल्ली पुलिस लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं’, ‘मोटे मोटे लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं।’ ये नारे अभी तीन महीना पहले दिल्ली में हुई हिंसा के दौरान सुने गए। नारे लगाने वाले मानते हैं कि मुसलमानों को सबक़ सिखलाने में पुलिस उनके साथ है।इसके दो महीना पहले जब जामिया मिल्लिया इसलामिया और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में पुलिस ने जुल्म बरपा किया था तो उसे न सिर्फ़ जनसमर्थन मिला था, बल्कि अदालत ने भी उसपर विचार करने से इंकार कर दिया था।
उत्तर प्रदेश में नागरिकता के नए क़ानून का विरोध करनेवालों पर, जिनमें ज़्यादातर मुसलमान थे, पुलिस की ज़्यादती और अत्याचार की भी वाहवाही हुई थी।
पुलिस क्रूरता पर हाहाकार नहीं
फ़ैज़ान को घेरकर मारते हुए पुलिस की तसवीर अभी धुंधली नहीं हुई है। फ़ैज़ान मारा गया। वह भी उस वक़्त पुलिस की गिरफ़्त में था।जो मुसलमान या ईसाई झेलते हैं, वह दलित जाने कब से सहते आए हैं। दो साल पहले भारत बंद के दौरान 2 अप्रैल को दलितों पर पुलिस ने वैसे ही क़हर बरपा किया जैसे हाल में मुसलमानों पर। इसपर भी कोई हाहाकार न दीखा।
इसका अर्थ यह है कि पुलिस का इस्तेमाल एक तरह की हिंसा को बनाए रखने के लिए किया जाता रहा है। यह सिर्फ़ उस हिंसा को नहीं, बल्कि पुलिस की हिंसा के अधिकार को औचित्य प्रदान करता है।
पुलिस मनोबल?
पुलिस की हिंसा पर चर्चा को यह कहकर रोका जाता है कि वह बहुत मुश्किल हालात में काम करती है, कि उसका मनोबल नहीं गिराना चाहिए, आदि, आदि। उत्तर प्रदेश में नागरिकता के क़ानून के विरोध को कुचल देने के बाद दिसंबर में प्रधानमंत्री ने लोगों से पुलिस का सम्मान करने का आह्वान किया।संकेत बहुत साफ़ था। वह ऐसी पुलिस की जय कहने का हुक्म था जो मुसलमान विरोधी है। जो मारे गए थे, उनके प्रति सहानुभूति का एक शब्द भी किसी सरकारी प्रतिनिधि के मुँह से नहीं निकला।
इसका अर्थ यह है कि अगर बहुसंख्यकवादी राज्य की स्थापना के लिए पुलिस का इस्तेमाल किया जाएगा तो बाक़ी जगह भी उसकी हिंसा को रोकने का कोई उपाय नहीं है।
हम अमेरिका से क्यों नहीं सीखते?
भारत में शायद इसी कारण पुलिस जुल्म का सामूहिक विरोध संभव नहीं होगा। लेकिन आज के क्षण से वह वक्त भी शायद ही आए जब इस विषय पर हम बात कर सकें।अमरीका में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के बाद उठे तूफ़ान ने वहाँ की पुलिस के भीतर आत्मवालोकन शुरू किया है। अमरीका में गोरों और काले लोगों में इस सवाल पर बड़ी एकजुटता दिखलाई पड़ रही है। पुलिस में पश्चाताप। इससे बदलाव की उम्मीद बनी है। भारत में दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दीखता।
यहाँ का समाज अनेक स्तरों पर विभाजित है और ताक़तवर के लिए पुलिस उपयोगी साधन है। इसलिए शक्तिशाली वर्ग के आग्रह, दुराग्रह पुलिस में आना लाज़िमी है। दोनों ही एक दूसरे का वर्चस्व न टूटे, इसके लिए मिलकर काम करते रहेंगे।
सवाल यही है जो रघुवीर सहाय ने 1973 में लिखा था कि पुलिस का अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ भाड़े के सिपाहियों की तरह इस्तेमाल बंद हो। भारत की पुलिस भारत की जनता की पुलिस होनी चाहिए। वह अभी वह नहीं है। और वह इसलिए नहीं है कि भारत की जनता एक नहीं है।
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