क्या लिखें? और क्यों लिखें? आपके लिखे पर जब आपके मित्र आपको बता रहे हों कि वह व्यर्थ है, कि आपका लिखना कुछ वैसा ही है जैसे एक अँधे कुँए में अंदर मुँह करके कोई पुकार रहा हो, आपकी आवाज़ दीवारों और तलहटी से टकरा कर आप तक लौट आती है। आप किसी को संबोधित नहीं कर रहे, जैसे ख़ुद से बात किए जा रहे हैं। इस बात का क्या लाभ?
मैं अकेला रह जाऊं तो भी मेरा मार्ग स्पष्ट है: महात्मा गाँधी
- वक़्त-बेवक़्त
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- 19 Aug, 2019

महात्मा गाँधी को एक औरत ने सलाह दी कि उन्हें अब हिमालय पर चले जाना चाहिए क्योंकि वह अप्रासंगिक बातें बोल रहे हैं। फिर भी गाँधी बोलते रहे और वही बोलते रहे जो लोगों को नापसंद था, जिससे लोग सहमत नहीं थे। गाँधी ने यह नहीं सोचा कि वह अलोकप्रिय हो रहे हैं। अकेले पड़ जाने का ख़तरा उठाकर भी वही बोलना जो नैतिक और उचित लगता है, गाँधी का रास्ता था। अपूर्वानंद का यह लेख अगस्त 2019 में प्रकाशित हुआ था।
अपने ही तरह के लोगों से बात करते रहने और उन्हीं से अपनी बात की तस्दीक कराते रहने से एक तसल्ली तो मिल सकती है लेकिन क्या आप एक नया श्रोता, नया पाठक बना पा रहे हैं? क्या आप अपनी बात किसी भी नए व्यक्ति तक पहुँचा पा रहे हैं? क्या कोई भी नया शख़्स आपकी राय से सहमत हो पा रहा है?