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क्या पाँचजन्य पर शोध हो सकता है ?

“मैंने सुना कि चूँकि उनका विषय कल्याण पत्रिका से संबंधित है, उन्हें चुना नहीं जाएगा।” पीएच डी के लिए दाख़िले के इंटरव्यू ख़त्म हो जाने के बाद एक छात्र ने सवाल किया। वह अपने  मित्र के लिए चिंतित था जिसने कल्याण पत्रिका से जुड़ा विषय शोध के लिए चुना था। नतीजा निकल जाने के बाद उसने आकर कुछ संकुचित भाव से कहा, उनका दाख़िला हो गया है। स्वर में चिंता और शिकायत अब नहीं थी। 
ऐसी आशंका निर्मूल नहीं है। वह विद्यार्थियों के मन में है, यह हम अध्यापकों के लिए अपने बारे में सोचने का विषय है। क्या ‘पाञ्चजन्य’ पर शोध हो सकता है? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर? विद्यार्थियों के मन में दुविधा बनी रहती है। वे तौलते रहते हैं कि कितने अध्यापकों को ये विषय ठीक लगेंगे और कितने इनके लिए अनुकूल नहीं होंगे।  
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इन विषयों पर काम करने के लिए दक्षिणपंथी होना आवश्यक नहीं और इन पर शोध करने का मतलब दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रचार नहीं है। दूसरे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, हर किसी को शोध करने का अधिकार है। विचारधारा शोध के लिए पहली योग्यता या अर्हता नहीं है।
शोध के लिए विषय से लगाव आवश्यक है लेकिन शोधार्थी किसी विचार, लेखक या विचारक का प्रचारक नहीं है या किसी का उद्धारक भी नहीं। यह बात इतनी साधारण है लेकिन हिंदी के अकादमिक संसार को इसे समझना अभी भी बाक़ी है। पिछले कुछ वर्षों से शोधउत्सुक विद्यार्थी इसे ध्यान में रखकर विषय चुनने लगे हैं कि अभी किस विचारधारा का पलड़ा भारी है। चयन करनेवाले अध्यापकों का राजनीतिक या वैचारिक झुकाव उनकी चिंता का दूसरा विषय है।
इसके लिए छात्र नहीं, हम अध्यापक ज़िम्मेदार हैं। पिछले दशकों में हमारे आचरण से विद्यार्थियों ने यह निष्कर्ष निकाला होगा।अध्यापक या तो यह जतलाते हैं कि उनकी कोई विचारधारा नहीं या वे अपनी विचारधारा के प्रति इतने आग्रही होते हैं कि किसी दूसरे स्वर को जगह नहीं देते। कक्षा में अपने से भिन्न मत के प्रति हिक़ारत ही स्वाभाविक माना जाता है। विद्यार्थी में यह आश्वस्ति नहीं कि उसके मत को कक्षा में पूरी तरह जगह मिलेगी या नहीं।किसी प्रश्न का उत्तर लिखते वक्त भी यह आशंका बनी रहती है कि यदि परीक्षक के अनुकूल विचार नहीं हैं तो अंक कम आएँगे।
एक विद्यार्थी ने पूछा कि क्या लेफ्ट या राइट होना ज़रूरी है! उसे उसके सीनियर ने बतलाया था कि किसी एक तरफ़ रहना ही पड़ता है। मेरे इस उत्तर से कि आपका स्वतंत्रचेता  होना पर्याप्त है, उसे न तो भरोसा मिला और न वह आश्वस्त हो पाया। सवाल हवा में तैरता रहा। 
अध्यापकों का दायित्व है कि वे विद्यार्थी के समक्ष अपने आपको निरावृत करते हुए उसे आश्वस्त कर सकें कि अध्यापक का काम सेंसर का नहीं है। उसका काम कक्षा को ऐसी इत्मीनान की जगह में तब्दील करने का है जहाँ वह अपने आग्रहों, पूर्वग्रहों को भी खुलकर ज़ाहिर कर सके। लेकिन अध्यापक का काम यह भी है कि वह विद्यार्थी को अपने आग्रहों की समीक्षा करने के लिए भी प्रवृत्त करे। उसका काम उसे सहलाने का नहीं, चुनौती देने का भी है। अध्यापक का दायित्व है कि वह विद्यार्थी का परिचय ज्ञान के अलग-अलग स्रोत और पद्धति से कराए और उसे ख़ुद अपना चुनाव करने का साहस दे।
शोध किसी भी प्रभुत्वशाली या लोकप्रिय धारणा के अनुसार नहीं किया जाना चाहिए। वह किसी अनिवार्यता के तहत भी नहीं हो सकता। शोध किसी डिग्री के लिए किया जाए या नहीं उसकी प्रवृत्ति स्नातक और परा स्नातक की पढ़ाई में भी होना आवश्यक है। उसका प्रशिक्षण आरंभ से ही ज़रूरी है। 
शोध विचारधाराओं की पुष्टि के लिए नहीं, उनकी जाँच के लिए है। वह जितना सार्वजनिक नहीं, उतना व्यक्तिगत है। वह एक निजी प्रश्न के उत्तर के क्रम में ही किया जा सकता है।
मसलन, क्या ‘कल्याण’ पत्रिका पर शोध का उद्देश्य यह हो सकता है कि हिंदू धर्म का गुणगान किया जाए? या यह साबित करना कि इस पत्रिका ने हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार के लिए काम किया? या वह उसकी आलोचनात्मक परीक्षा हो? 

लेकिन सबसे पहले शोध के पहले विद्यार्थी को ख़ुद से यह पूछना आवश्यक है कि उसे आख़िर उसकी रुचि किसमें है। साहित्य के विद्यार्थी को पूछना होगा कि कविता, कथा साहित्य, निबंध, इनमें से कौन उसकी पहली या सबसे बड़ी पसंद है? इसका पता कैसे चलेगा? इससे कि पाठ्यक्रम के बाहर उसने अपनी रुचि के क्षेत्र में कितनी पढ़ाई की है। प्रायः इस प्रश्न के उत्तर से हमें निराशा होती है। जिसे कविता पसंद है, उसने शायद ही पाठ्यक्रम में प्रस्तावित कवियों के अलावा कुछ पढ़ा है। बल्कि उनकी भी उन्हीं रचनाओं को जो पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं। कथा साहित्य को अपनी पसंद कहनेवालों का भी प्रायः यही हाल रहता है। फिर वे उस क्षेत्र में शोध का विषय कैसे चुनेंगे और शोध कैसे करेंगे? 

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शोध आख़िरकार एक निजी खोज है। अगर कोई अपना सवाल नहीं है, भीतरी बेचैनी नहीं है तो शोध करना भी संभव नहीं। वह कोई राष्ट्रीय या सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति के लिए नहीं किया जाता। वह किसी विचार को ध्वस्त करने या प्रतिष्ठित करने के लिए नहीं किया जाता। वह समाज सुधार के लिए भी नहीं किया जाता। अक्सर हिंदी में शोध को स्त्री सशक्तीकरण या दलित सशक्तीकरण का साधन माना जाता है। इस धारणा से मुक्त होना सच्चे शोध के लिए ज़रूरी है।
शोध एक तरह से अपना कंठ पाने जैसा ही है। निपुण गायकों का अपना कंठ है या नहीं, असली सवाल यही है।
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अपूर्वानंद
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