19,06,657। अख़बार के पहले पन्ने पर सुर्खी के तौर पर यह संख्या नाटकीय लगती है। इसकी कल्पना करते वक़्त और इसे लगाते हुए क्या संपादकों ने एक चुस्त शीर्षक चुनने पर एक-दूसरे की पीठ ठोंकी होगी या एक खामोश आह भरी होगी? यह संख्या कैसे हासिल हुई और इसके क्या मायने हैं? गणित का सवाल होगा, कितने में कितना घटाने से यह 19,06,657 की संख्या मिलेगी?
एनआरसी: ‘बँटवारे के बाद की होने जा रही है सबसे बड़ी ट्रेजेडी’
- वक़्त-बेवक़्त
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- 1 Sep, 2019

यह सब कुछ मैं किनके लिए लिख रहा हूँ? किनके लिए ख़बरनवीस उन लोगों की कहानी लिख रहे हैं जो ख़ुद को भारत के लोग साबित करने में शहीद हो गए? किनके लिए उस सौ साल के बुजुर्गवार की सदी की झुर्रियोंवाली तसवीर छापी जा रही है? यह सब कुछ शायद इस उम्मीद में कि इस भारत में एक हमदर्द दिल कहीं धड़कता होगा।
जवाब तो ऐसे सवाल के कई हो सकते हैं। आप कोशिश करके देखें! लेकिन सवाल गणित का नहीं, राजनीति का है। इसलिए जवाब एक ही है। 19,06,657 प्राप्त करने के लिए 3,30,27,661 से 3,11,21,004 को ही घटाना पड़ेगा। पहली संख्या है आवेदकों की और दूसरी उनकी जिनको भारत नामक राज्य के आधिकारिक प्रतिनिधि ने प्रामाणिक भारतीय माना है। ख़ुद नहीं, उच्चतम न्यायालय की निगरानी में।
गणितीय उत्तर तो बिलकुल ठीक है, लेकिन ऐसा क्यों है कि सालों की मशक्कत के बाद इस नतीजे के आने पर कोई ख़ुश नहीं है? क्योंकि इसका रिश्ता एक शैतानी इच्छा से है। वह इच्छा है दूसरों को उस अधिकार से वंचित करने की जो हमें अपना प्राकृतिक अधिकार लगता है। भारत की नागरिकता का। अधिक सटीक होगा, असम की नागरिकता का।