बीते दस सालों में चुनावों में कॉंग्रेस की अनगिनत पराजयों और बहुत सी परेशानियों के बावजूद, तमाम तथाकथित चुनावी चिंतकों की ‘तरीके बदलने’ की सलाह के बावजूद कॉंग्रेस ने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। इसके पीछे कॉंग्रेस का स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास और वर्तमान गांधी-नेहरू की युवा पीढ़ी का ही योगदान है।
इस युवा पीढ़ी की ही कॉंग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने बुधवार को वायनाड, केरल से लोकसभा उम्मीदवार के तौर पर नामांकन भर दिया है। जिस तरह वायनाड ने अपने पूर्व सांसद राहुल गांधी और कॉंग्रेस को अभी तक अपना समर्थन दिया है उससे लगता है कि बहुत जल्दी ही प्रियंका गांधी भी लोकसभा में नजर आयेंगी। कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की विचारधारा से परे जाकर भी यदि सोचा जाए तो प्रियंका गांधी, लोकसभा में एक क़ीमती ‘एसेट’ से कम नहीं होने वाली हैं। एक ऐसे दौर में जब नैतिकता और सच राजनीति से बहुत दूर जा चुके हैं, जहाँ 18 वर्ष से अधिक का प्रत्येक भारतीय नागरिक मात्र एक ‘वोटर’ के रूप में पहचाना और इस्तेमाल किया जा रहा है वहाँ लोकसभा में प्रियंका गांधी जैसे नेताओं का आना एक अहम मोड़ हो सकता है। इसका मात्र एक कारण है वह है मतदाताओं, लोकतंत्र और महिलाओं के प्रति उनका बिल्कुल नया और क्रांतिकारी नज़रिया।
नामांकन भरने के बाद प्रियंका गांधी ने वायनाड के निवासियों के लिए एक बहुत ही संवेदनशील और आत्मीयता से भरा पत्र लिखा। उन्होंने प्रेम और ज़िम्मेदारी से भरे इस पत्र में पहले वायनाड में आई आपदा और वहाँ की परेशानियों का ज़िक्र किया इसके बाद उन्होंने वायनाड के लोगों के चरित्र की बात की। उन्होंने बताया कि किस तरह यहाँ के लोग आपदा के दौर में भी बिना किसी लालच और भय के, बिना किसी पद-प्रतिष्ठा का ध्यान दिए, एक-दूसरे के लिए काम करते रहे और स्थितियों को सामान्य बनाने की कोशिश की। प्रियंका गांधी ने लोगों से जुड़ने के लिए अपनी स्वयं की काबिलियत और योग्यता पर बात न करके वहाँ के ‘लोगों’ की चारित्रिक काबिलियत पर फोकस स्थापित किया। ‘मैं मैं और मैं’ से भरे वर्तमान भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में लोगों की बात करना बिल्कुल नया है। प्रियंका गांधी ने कहा कि वायनाड निवासियों की यही चारित्रिक विशेषता, जिसमें आपसी सहयोग सबसे विशिष्ट है, उनको इस बात के लिए प्रेरित कर गया कि उन्हें यह मौक़ा चाहिए कि वायनाड के लोगों को संसद में प्रतिनिधित्व प्रदान कर सकूँ। जब तमाम नेता सिर्फ़ अपनी योग्यता का ‘शोर’ मचाकर लोगों को डराने में लगे हैं तब कोई ऐसा भी है जो लोगों की योग्यता देखकर स्वयं उनका प्रतिनिधि बनना चाहता है। जहाँ डोनाल्ड काइंडर जैसे अमेरिकी राजनीति विज्ञानी मानते हैं कि विभिन्न समाजों में राजनेता अक्सर वोट हासिल करने के लिए पहचान-आधारित अपीलों का सहारा लेते हैं, अर्थात् वोट लेने के लिए जाति, धर्म और सामुदायिक पहचान का इस्तेमाल करना। वहाँ पर, ऐसे समय में नागरिकों की अच्छाई के लिए उनका प्रतिनिधि बनने की तमन्ना भारतीय राजनीति में मेरे नज़रिये से बिल्कुल नई घटना है।
"‘राजनैतिक महाराजाओं’ जैसा आचरण बर्दाश्त न करें"
कुछ दिन पहले प्रियंका गांधी का एक भाषण बहुत चर्चा में रहा। यह भाषण राजनेताओं और नागरिकों के बीच के संबंधों पर दिया गया था। इस भाषण के माध्यम से प्रियंका गांधी ने लोकतंत्र में व्याप्त ‘राजनैतिक महाराजाओं’ के आचरण को जनता द्वारा बर्दाश्त न करने की वकालत की। प्रियंका गांधी ने बेहद सधे हुए गुस्से में कहा कि- “जनता अपनी पुरानी परंपरा वापस चाहती है जब हर नेता जनता के सामने झुके, और हर नेता यह समझे कि जनता के प्रति उसकी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और सबसे बड़ी जिम्मेदारी यह है कि जनता के सामने सच बोले, जनता को झूठे वादे न करे और जनता के लिए सत्य के रास्ते पर चले...”।
मुझे यह ‘लोकतंत्र को फिर से बचाने का प्रयास’ नजर आता है। एक ऐसा प्रयास जिसमें लोकतांत्रिक मूल्यों और भारतीय नागरिकों को धनपतियों द्वारा तैयार किए गए ‘धनतंत्र’ से बचाना है। एक ऐसा प्रयास जिसमें ‘सत्य’ जैसी राजनैतिक रूप से अछूत मानी जाने वाली बात को राजनीति में स्थापित करने का दृष्टिकोण है।
जब वो कहती हैं कि ‘जनता का मूड बदल गया है’ तब वो एक नई क़िस्म की राजनीति को प्रोत्साहित करती हुई नज़र आती हैं, जिसमें नेता और उनके चुनावी मैनेजर की वातानुकूलित कमरों में बैठकर आम भारतीय नागरिकों को ठगने की नीति विफल की जा सके और देश को अधिक नागरिकोन्मुखी लोकतंत्र से सजाया जा सके। एक तरह से प्रियंका राजनेताओं को जनता के प्रति अधिक से अधिक जवाबदेह बनाने की बात कर रही हैं। यह वर्तमान में एक नई बात है। पर ऐसा नहीं है कि दुनिया में कभी इस पर बात नहीं हुई। रॉबर्ट डॉल जैसे शोधकर्ताओं का मानना है कि
“
लोकतांत्रिक संस्थाएं तब सबसे अच्छी तरह से काम करती हैं जब मतदाता राजनेताओं को जवाबदेह ठहरा सकते हैं।
रॉबर्ट डॉल, शोधकर्ता
इसीलिए तो जब वो वायनाड की जनता को संबोधित करती हैं तो सबसे पहले वहाँ की ‘बहनों’ को संबोधित करती हैं इसके बाद ‘भाइयों’ को। भले ही यह प्रतीकात्मक हो लेकिन क्रांतिकारी है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यह तब भी उतना ही क्रांतिकारी था जब प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों का कार्यभार सम्भाला था और कॉंग्रेस के चुनाव को महिला प्रधान बनाने की ठान ली थी। यह अलग बात है कि कॉंग्रेस चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी लेकिन उन्होंने चुनावों में जो लकीर खींच दी थी वह अप्रत्याशित थी। भले ही महिलाएं कम चुनकर आई हों लेकिन चुनाव के दौरान कोई ‘दयाशंकर’ किसी ‘मायावती’ को अपशब्द कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका। कारण था प्रियंका गांधी का ‘लड़की हूँ लड़ सकती हूँ’ का क्रांतिकारी और ज़रूरी नारा। चुनाव महिला केंद्रित नहीं हो सका लेकिन उन्होंने महिलाओं को लेकर एक ऐसा स्तंभ खड़ा कर दिया कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपमानजनक बातें भी नहीं दिखी। उन्होंने चुनाव में महिलाओं को एक अलग समुदाय, एक अलग पहचान और वोटरों के ऐसे समूह के रूप में खड़ा करने की कोशिश की, जो जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति से अलग काम कर रहा था। किसी प्रयोग की अपेक्षित सफलता में कमी को उसकी उपयोगिता से जोड़कर देखना समझदारी नहीं है। आख़िर उन्होंने क्यों 40% महिलाओं को विधानसभा में भेजने का सपना देखा? आख़िर क्यों उन्होंने सोचा कि एक ऐसी विधायिका क्यों न बनाई जाये जहाँ महिलाएं बराबरी से खड़ी दिखें, जहाँ किसी महिला के मुद्दे को पार्टी और विचारधारा के नाम पर दबाया न जा सके।
मतलब यह कि पूरे देश में महिला आयोग को जितनी शिकायतें मिलीं उसकी आधी से अधिक सिर्फ़ एक ही प्रदेश, UP, से मिलीं। क्या ऐसा प्रदेश महिलाओं के लिए सुरक्षित माना जा सकता है?
महिलाओं को लेकर की जाने वाली पहलें, कॉंग्रेस के डीएनए का हिस्सा हैं, फिर चाहे बात संविधान में संशोधन (73वें, 74वें) के माध्यम से महिलाओं को 33% राजनैतिक आरक्षण प्रदान करने का हो या फिर प्रियंका गांधी की उस प्रतिबद्धता का जिसमें उन्होंने 40% महिलाओं को यूपी विधानसभा चुनावों में उम्मीदवार बनाया। जवाहरलाल नेहरू कहा करते थे कि "महिलाएं समाज का आधार हैं, उनके बिना किसी भी समाज की कल्पना अधूरी है"। लेकिन इस आधार के निर्माण के लिए राजनैतिक प्रतिबद्धता भी ज़रूरी है। हार और जीत एक क्षण की बात है लेकिन आगे बढ़कर एक क्रांतिकारी प्रयास को ज़मीन पर उतार देना दूरदर्शिता की पराकाष्ठा है। प्रियंका गांधी ने इस आधार को खड़ा करने की कोशिश की, मटमैली और दशकों से सड़ रही, ठहरी हुई भारतीय राजनीति को बेहतर बनाने की कोशिश की है।
प्रियंका गांधी के लोकसभा में पहुँचते ही महिलाओं को संसद में एक ऐसी आवाज़ मिल सकेगी जिसे किसी शोर या विचारधारा के बोझ में दबाना असंभव होगा। संसद में जो माहौल है वहाँ महिला आरक्षण को बिना हाथ में दिए प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इसकी मिठाई खाना चाहती है। आज तक यह सरकार यह नहीं बता सकी कि जिस महिला आरक्षण विधेयक को पारित किया गया वह धरातल पर कब उतरेगा? ऐसे में कोई ऐसा चाहिए जो सरकार से आँख में आँख डालकर महिला हितों की बात कर सके, लोकतंत्र, सच्चाई और राजनीति में विनम्रता पर बोल सके। देश की 50% आबादी के लिए प्रियंका गांधी की आवाज निश्चित ही बेहद महत्वपूर्ण है, ख़ासकर ऐसे दौर में जब बलात्कार और महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा को सरकार की विचारधारा के नजरिये से देखा जाता है। आशा है कि यह सब बदला जा सकेगा।
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