5 जनवरी, 2022 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पंजाब के हुसैनीवाला, फिरोज़पुर में एक रैली करने जाने वाले थे जहाँ उन्हें एक राष्ट्रीय शहीद स्मारक का दौरा करना था। लेकिन ख़राब मौसम की वजह से प्रधानमंत्री का हेलिकॉप्टर भटिंडा एयरपोर्ट से उड़ान नहीं भर सका और प्रधानमंत्री की सुरक्षा एजेंसियों ने उन्हें सड़क मार्ग से हुसैनीवाला ले जाने का निर्णय लिया। बीच रास्ते में कुछ किसान अपनी मांगों को लेकर धरने पर थे इसलिए प्रधानमंत्री के काफिले को 15-20 मिनट के लिए बीच में एक ओवरब्रिज पर रुकना पड़ा। जबकि प्रधानमंत्री सुरक्षा प्रोटोकॉल के तहत उनके काफिले को एक मिनट के लिए भी नहीं रोका जा सकता। ऐसी स्थिति में भारत के प्रधानमंत्री को रोकना उनकी सुरक्षा में एक बड़ी चूक की ओर संकेत है।
इस चूक के कारण निश्चित ही उनकी सुरक्षा को लेकर ज़रूरी विचार विमर्श उच्च स्तर पर शुरू हो चुका होगा लेकिन वास्तविक प्रश्न तो यह है कि इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? वास्तव में यह किसकी चूक है?
25 नवंबर, 2019 को केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने, द स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (संशोधन) विधेयक-2019 संसद में पेश किया। यह विधेयक स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप ऐक्ट-1988 में संशोधन करने के लिए पेश किया गया था। संशोधन के बाद अब वर्तमान स्थिति ये है कि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप अर्थात SPG अब सिर्फ वर्तमान प्रधानमंत्री और उनके परिवार की सुरक्षा के लिए ही ज़िम्मेदार है। जबकि संशोधन से पहले यह सुरक्षा, गाँधी परिवार के कुछ सदस्यों व किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री के पद छोड़ने के 5 वर्ष तक दिए जाने के प्रावधान के साथ थी।
वर्तमान परिदृश्य में दो बातें साफ़ है। पहला यह कि SPG का काम सिर्फ प्रधानमंत्री की सुरक्षा करना है और दूसरा यह कि SPG गृह मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करने वाली संस्था है। मेरी नज़र में यदि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई भी चूक होती है तो इसके लिए या तो SPG को ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए या फिर गृह मंत्री/गृह मंत्रालय को। SPG एक प्रोफेशनल संस्था है जो कि नई (1985) नहीं है। उन्हें प्रधानमंत्री की सुरक्षा के सारे प्रोटोकॉल पता हैं लेकिन इसके बाद भी अगर यह संस्था सुरक्षा में चूक कर जाए तो इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
इसकी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए इस संस्था के राजनैतिक प्रधान गृह मंत्री अमित शाह पर। देश की आंतरिक सुरक्षा गृह मंत्री का मुद्दा है, देश में क़ानून-व्यवस्था की ख़राब और असहज स्थितियों के लिए गृह मंत्री किसी भी आईपीएस अधिकारी को निर्देश दे सकता है या अपने यहाँ तलब कर सकता है। पल पल की ख़बर देने वाली इन्टेलिजेन्स ब्यूरो गृह मंत्री के अंतर्गत काम करती है। एसपीजी का डायरेक्टर एक आईजी रैंक का आईपीएस अधिकारी होता है।
ऐसे में वास्तविक ज़िम्मेदारी माननीय गृह मंत्री जी की होनी चाहिए। यदि गृह मंत्री और उसकी संस्थाएँ अपने किसी कार्य को करने में असमर्थ रहती हैं तो उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी कौन लेगा? स्वाभाविक रूप से गृह मंत्री जी।
लेकिन यहाँ स्थिति बिल्कुल उलट है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक के लिए जिन्हें आत्मावलोकन करना चाहिए था वो गृह मंत्री ट्वीट करके लिखते हैं- “पंजाब में जो हुआ वो कांग्रेस की सोच का ट्रेलर है… कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को माफ़ी माँगनी चाहिये”।
Today’s Congress-made happening in Punjab is a trailer of how this party thinks and functions. Repeated rejections by the people have taken them to the path of insanity. The topmost echelons of the Congress owe an apology to the people of India for what they have done.
— Amit Shah (@AmitShah) January 5, 2022
130 करोड़ की आबादी के प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक हुई है और गृह मंत्री जी को ट्वीट और ट्विटर पर विपक्षी पार्टियों को कोसने से फुरसत नहीं। जिस कांग्रेस के ‘ट्रेलर’ की बात अमित शाह ने कही वो अपनी पार्टी के दो प्रधानमंत्री ऐसी ही चूकों की वजह से गंवा चुकी है।
एक अन्य बात जिसे मीडिया में अलग तरह से पेश किया जा रहा है लेकिन उसके निहितार्थ बड़े भयावह हो सकते हैं। दैनिक जागरण, हिन्दी पट्टी का एक प्रमुख अख़बार है। 6 जनवरी को इस अख़बार ने अपने फ्रन्ट पेज पर मुख्य ख़बर छापी। उसमें लिखा था “अपने सीएम चन्नी को धन्यवाद कहना कि मैं ज़िंदा लौट आया: प्रधानमंत्री”। अखबार ने इसे स्वतः विश्लेषण के आधार पर सीएम चन्नी के ऊपर ‘कटाक्ष’ घोषित कर दिया।
असल में इस वक्तव्य के दो अहम पहलू हैं। पहला पहलू, या तो भारत के प्रधानमंत्री ने यह बात सीधे शब्दों में कह दिया है, दूसरा पहलू, कि भारत के प्रधानमंत्री एक राजनैतिक कटाक्ष कर रहे थे।
भारत की एक आम और ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते मैं इस बात को मानूँगी कि प्रधानमंत्री जी ने कटाक्ष नहीं किया था उन्होंने गंभीरता से पंजाब के सीएम एस. चरणजीत सिंह चन्नी को धन्यवाद दिया था। ऐसे में यह वक्तव्य बड़ा ही भयावह है। आख़िर प्रधानमंत्री को क्यों लगा कि उन्हें पंजाब के मुख्यमंत्री को धन्यवाद देना चाहिए? क्या उन्हें अपने ही किसी क़रीबी से भय है? ऐसे में गृह मंत्रालय को चाहिए कि वो पीएम के वक्तव्य को कटाक्ष न समझकर इस बात की गंभीरता से जांच करे कि क्यों उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री पर ‘ज्यादा' भरोसा है।
दूसरा पहलू, यह है कि प्रधानमंत्री ने सीएम चन्नी को संबोधित अपना वक्तव्य कटाक्ष या वक्रोक्ति में दिया है। भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान, जो कि एक मित्र राष्ट्र नहीं है, की सीमा से लगे एक संवेदनशील राज्य पंजाब, के मुख्यमंत्री पर अपनी सुरक्षा और जीवन को लेकर किया गया प्रधानमंत्री जी का यह वक्तव्य न सिर्फ संघीय ढांचे को तितर-बितर कर सकता है बल्कि अपने आप में यह देश की एकता और अखंडता को चुनौती भी देता है। ऐसे में इस बात को मानने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए कि 130 करोड़ की आबादी का राजनैतिक प्रधान कोई भी ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना बात करेगा जो भारत की अखंडता को चोटिल कर दे।
हाल के किसान आंदोलन ने पंजाब की जनता को पहले से आक्रोशित कर रखा है, तमाम बीजेपी नेताओं द्वारा किसानों के बारे में दिए गए खालिस्तानी टैग ने किसानों के स्वाभिमान को पहले ही घायल कर रखा है। ऐसे में अगर प्रधानमंत्री इस समय पंजाब के सीएम से ‘जिंदा लौट पाया’ जैसा कटाक्ष करेंगे तो यह सम्पूर्ण पंजाब की देशभक्ति भावना को ठेस पहुँचाने जैसा होगा। मुझे नहीं लगता कि पीएम नरेंद्र मोदी ने ऐसा सोच कर कुछ कहा होगा। इसलिए मेरी नज़र में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को सीधे और सच्चे अर्थों में समझना चाहिए। और इसलिए यह बहुत गंभीर बात है कि पीएम अपनी ही सरकार में, अपनी ही सुरक्षा एजेंसियों और अपने ही गृह मंत्रालय के बीच असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
वास्तव में प्रधानमंत्री की सुरक्षा कैसे होती है? कैसे राज्यों के प्रशासनिक अमले के साथ समन्वय (कोऑर्डिनेशन) किया जाता है? क्यों और कब यह सामंजस्य/समन्वय बाधित होता है? आखिरी समय पर कौन अंतिम निर्णय लेता है? आम जनमानस के लिए यह समझना लगभग असंभव है। लेकिन उसके बावजूद उसे मोटे तौर पर यह समझने का पूरा हक है कि देश के राजनैतिक प्रधान की सुरक्षा कैसे ख़तरे में आई।
इतने संवेदनशील मुद्दे को लेकर भी अगर सत्ता पक्ष विपक्ष पर प्रश्न लादकर ‘संन्यास’ की ओर लौटना चाहता है तो बेहतर होगा कि वो ‘राजनैतिक संन्यास’ अर्थात इस्तीफा दे। सुरक्षा में चूक के कई कारण गिनाए जा सकते हैं, कुछ कारण सत्ता पक्ष देगा कुछ विपक्ष। लेकिन अहम बात यह है कि भारत के प्रधानमंत्री की सुरक्षा किसी राजनैतिक वाद विवाद का प्रश्न नहीं है। यह वक़्त है ज़िम्मेदारी तय करने का। प्रधानमंत्री की सुरक्षा किसी राज्य का विषय नहीं है और न ही इसे राज्यों के ऊपर टालकर भागा जा सकता है।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा पूरे देश में एक अत्यंत सुरक्षित और गतिमान गलियारे की मांग करता है। इसे लाचार और अस्वस्थ मंत्रालयों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। अगर प्रधानमंत्री की बात में गंभीरता है तो अब गृह मंत्रालय और एसपीजी के मुख्यालयों में ‘दर्पण’ लगाने का वक़्त आ गया है जिससे वो स्वयं का आकलन शुरू कर दें।
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd ARC) की रिपोर्ट शीर्षक ‘शासन में नैतिकता’ में आयोग ने मंत्रियों (जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल हैं) के लिए स्पष्ट अनुशंसा करते हुए कहा है कि “मंत्रियों को… सिविल सेवकों से इस प्रकार से कार्य करने के लिए नहीं कहना चाहिए जिससे सिविल सेवकों के कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारी के साथ विवाद उत्पन्न हो”। प्रधानमंत्री की सुरक्षा उनके ‘मन की बात’ का प्रतिबिंब नहीं है। सुरक्षा अधिकारियों को इस बहाने से बाहर आना पड़ेगा कि प्रधानमंत्री ने ‘जिद’ की थी।
“हाउस ऑफ़ कार्ड्स” वेब सीरीज में अमेरिकी राष्ट्रपति, फ्रैंक अंडरवुड और ब्रिटिश वेब सीरीज “बॉडीगार्ड” में महत्वाकांक्षी होम सेक्रेटरी, जूलिया मोंटागुए, से उनकी सुरक्षा को लेकर उनके सुरक्षा अधिकारियों का लड़ जाना एक मिसाल है। इसी स्तर की मिसाल भारत के सुरक्षा अधिकारियों को भी स्थापित करनी चाहिए क्योंकि भारत पहले ही इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी जैसे प्रधानमंत्रियों को सुरक्षा चूकों की वजह से खो चुका है और अगर अब यह चूक फिर हुई तो भारत कभी अपने आपको माफ़ नहीं कर पाएगा।
लोकतंत्र के मूल में ‘मंत्रीय उत्तरदायित्व’ का सिद्धांत अंतर्निहित (इनबिल्ट) है। यह सिद्धांत किसी भी असहज स्थिति में मंत्री के इस्तीफ़े की मांग करता है न कि अधिकारियों के।
लोक प्रशासन में यह सिद्धांत भी स्थापित है कि जो जनता के विश्वास का उपभोग करेगा उसी को अविश्वास के परिणाम भी झेलने होंगे। अविश्वास के समय अधिकारियों की बलि चढ़ाने वाला सिस्टम कायर और लालची लोगों से भरा होता है। पार्टियों, कार्यकर्ताओं और जनता के दिमाग़ में यह बात बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए कि मंत्री को नागरिकों का विश्वास सिर्फ़ ‘कुर्ता पैजामा सदरी’ धारण करने के लिए नहीं मिला है। उन्हें काम करना होगा ज़िम्मेदारी लेनी होगी और असफल रहने पर अपने पद को त्यागना होगा। यही पॉलिटिकल मोरालिटी है। क्या गृह मंत्री इस राजनीतिक नैतिकता का पालन करेंगे?
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