भारत एक गणतंत्र है और भारत का राष्ट्रपति इस गणतंत्र का मुखिया है। गणतंत्र का अर्थ उस राज व्यवस्था से है जिसमें राजनीतिक शक्ति ‘जनता’ के पास होती है। जनता की शक्ति का प्रतिबिंब भारत की संसद है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारत के लोगों के माध्यम से पर्याप्त तीव्रता से यह घोषणा करती है कि भारत एक ‘लोकतान्त्रिक गणराज्य’ है। ऐसे में जब भारत की संसद पर बात हो और राष्ट्रपति का जिक्र ही न हो तो इसका अर्थ साफ़ है कि लोकतान्त्रिक गणराज्य के मूल्यों के गिरावट का दौर शुरू हो चुका है। परेशानी यह है कि भारत में इन मूल्यों की गिरावट की शुरुआत और उसका उच्चतम स्तर एक साथ एक बिन्दु पर ही खड़ा होने को तैयार है और इस अर्थ में मैं इसे ऐतिहासिक मानती हूँ।
भारत में नई संसद का उद्घाटन होने वाला है। मैं कहूँगी कि भारतीय लोकतान्त्रिक गणराज्य की प्रतिनिधि संस्था का उद्घाटन होने वाला है। लेकिन ताज्जुब यह है कि भारतीय गणराज्य के मुखिया, भारत के राष्ट्रपति, को इसके उद्घाटन के अवसर पर आमंत्रित ही नहीं किया गया है। जिस राष्ट्रपति के बिना संसद आहूत तक नहीं की जा सकती उसे ही आमंत्रित नहीं किया गया।
इस नई संसद का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करने वाले हैं। प्रतीकात्मक रूप से ही सही लेकिन भारत का राष्ट्रपति कार्यपालिका शक्ति का प्रधान होता है; भारत सरकार के सभी कार्य औपचारिक रूप से राष्ट्रपति के नाम से ही किए जाते हैं; राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद के सभी सदस्यों की नियुक्ति करता है; भारत जितनी भी वैश्विक संधियां या समझौते करता है वह सब भारत के राष्ट्रपति के नाम से ही किए जाते हैं, इसके बावजूद नई संसद के उद्घाटन में राष्ट्रपति की अनुपस्थिति निंदनीय है। नई संसद के उद्घाटन समारोह में भारत के राष्ट्रपति की अनुपस्थिति इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत में लोकतांत्रिक मर्यादाओं के लिए कोई जगह नहीं बची है।
भारत के संविधान ने राष्ट्रपति को भारतीय संसद का अभिन्न अंग माना है। पूरा संविधान और उसकी रूपरेखा यह संकेत देती है कि भले ही राष्ट्रपति को ‘नाममात्र’ का राष्ट्रप्रमुख माना गया हो लेकिन उसकी गरिमा को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। संविधान में जैसे ही भारत का क्षेत्र, नागरिकता, मूल अधिकार, नीति निदेशक तत्वों और मूल कर्तव्य गुजरते हैं वैसे ही अनुच्छेद-52 के रूप में राष्ट्रपति का पद सामने आ जाता है। इसके बाद संविधान में बहुत दूर तक जाने पर भी कहीं प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद का जिक्र नहीं मिलता। जबकि भारत के उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष का जिक्र देखने को मिल जाता है। अंततः अनुच्छेद-74(1) में यह बात सामने आती है कि ‘राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा…”। अगले ही पल भारत का संविधान अनुच्छेद-75 के माध्यम से राष्ट्रपति पद की गरिमा को संरक्षित करते हुए कहता है कि “प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा…”।
संविधान का अनुच्छेद-78 भारत के प्रधानमंत्री को उनके कर्तव्य-बोध की जानकारी देते हुए आदेश देता है कि वह राष्ट्रपति को संघ के कार्यकलाप के प्रशासन संबंधी और विधान विषयक प्रस्थापनाओं से अवगत कराएगा। अनुच्छेद-79 आते आते संविधान बनाने वाली संविधान सभा पूर्ण सहमति से इस बात के लिए राजी हो जाती है कि भारतीय “संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी जिनके नाम राज्यसभा और लोकसभा होंगे”। इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति स्पष्ट रूप से संसद का अंग है, संसद का अस्तित्व बिना राष्ट्रपति के संभव ही नहीं है।
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जिस राष्ट्रपति के बिना संसद का अस्तित्व ही संभव नहीं है उस संसद के उद्घाटन में उसी राष्ट्रपति की अनुपस्थिति संसदीय लोकतंत्र में आए विकार की पराकाष्ठा की ओर संकेत है।
यह बात समझनी चाहिए कि मूल रूप से इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि संसद का उद्घाटन कौन करता है। लेकिन जो बात जरूरी है वह यह कि संसद सिर्फ कोई भवन नहीं हैं बल्कि लोकतंत्र का अब तक का सर्वोच्च विचार है। यह विचार विभिन्न ऐसी मर्यादाओं से बँधा है जिसकी अवमानना न होने पर यह लोकतंत्र को बिना रुके बिना थके सैकड़ों वर्षों तक संरक्षित कर सकता है। ऐसे में इस विचार को न ‘ओवर-राइट’ किया जाना चाहिए और न ही ‘करप्ट’। लेकिन वर्तमान सरकार द्वारा संसद के इस विचार को विच्छिन्न करने की कोशिश की जा रही है।
संविधान निर्माताओं ने भावी सरकारों द्वारा इस मर्यादा को निभाने के लिए ही संविधान में विभिन्न प्रावधान किए जैसे- संघ की कार्यकारी शक्तियों का प्रधान राष्ट्रपति को बनाया गया; प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा ही करवाई गई; क्षमादान की शक्ति राष्ट्रपति को ही दी गई; राष्ट्रपति द्वारा बजट प्रस्तुत करवाया गया; विभिन्न महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ- उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों, भारत के नियंत्रक महालेखा-परीक्षक(CAG), संघ लोकसेवा आयोग(UPSC)के अध्यक्ष वसदस्यों, एससी-एसटी आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे महत्वपूर्ण पदों की नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा ही की जानी निर्धारित की गईं। यह बात सही है कि इन सभी नियुक्तियों के लिए राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह की आवश्यकता होती है लेकिन मर्यादा यह है कि नियुक्तियाँ राष्ट्रपति के नाम से ही की जायेंगी। संविधान निर्माताओं द्वारा लगभग 3 सालों तक चली बहस के बाद राष्ट्रपति के लिए जिन मर्यादाओं को स्थापित किया गया और उसे संसद के केंद्र में रखा गया उन मर्यादाओं को वर्तमान सरकार तोड़ने की कोशिश करती दिख रही है जिसे रोका जाना चाहिए।
संविधान के दर्शन को समझना अत्यंत आवश्यक है। लोकतंत्र में ‘कानून का शासन’ एक प्राथमिक सिद्धांत है। भारत में यह व्यवस्था संविधान द्वारा दी गई है कि कोई भी विधेयक बिना राष्ट्रपति की अनुमति के कानून नहीं बन सकता। यह सिद्धांत लिंग, जाति, धर्म और जन्मस्थान से परे जाकर सिर्फ न्याय पर ही केंद्रित है जिसकी आशा है कि देश संविधान से संचालित हो जिसे सभी पर समान रूप से लागू होना चाहिए। इस अर्थ में न्यायपालिका के अतिरिक्त राष्ट्रपति को न्याय प्रदान करने की अप्रत्यक्ष शक्ति प्रदान की गई है। यदि राष्ट्रपति चाह लें कि कोई विधेयक जो संसद ने बहुमत से पारित तो कर दिया है लेकिन उस विधेयक के कानून बन जाने से कानून से न्याय का सिद्धांत नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकता है तब वह उस विधेयक के लिए अपनी सहमति रोक सकता है, इस तरह उसकी सहमति न मिलने से संसद का वह विधेयक अनंत काल तक अधिनियम/कानून नहीं बन सकता।
राष्ट्रपति द्वारा नई संसद का उद्घाटन न करवाए जाने को लेकर विपक्ष पूरी तरह से असहमत है और तमाम बड़े राजनैतिक दलों ने मिलकर लोकतंत्र की इस टूटती हुई मर्यादा के समय खुद को संसद के उद्घाटन समारोह से अलग करने का फैसला किया है। भाजपा के प्रवक्ता यह कहने में गर्व महसूस कर रहे हैं कि ‘जिसे आना है आए न आना हो न आए’। एक पार्टी के कुछ टीवी प्रोग्राम प्रवक्ता लोकतंत्र की नई परिभाषा गढ़ने में लगे हैं, बिना यह जाने कि जितनी बार वह ऐसे शब्दों का इस्तेमाल विपक्ष के लिए करते हैं उतनी ही बार वह लोकतंत्र के सभी स्तंभों को कमजोर कर रहे होते हैं। विख्यात न्यायविद, ग्रेनविल ऑस्टिन अपनी किताब “द इंडियन कान्स्टिटूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ अ नेशन” में भारतीय संविधान के सफल होने के कारणों की पड़ताल करते हुए कहते हैं -
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तमाम अटकलों के बावजूद भारत का संविधान इसलिए सफल रहा है क्योंकि यहाँ जितने भी निर्णय लिए गए वह सब लगभग पूर्ण-सहमति पर आधारित थे।
-ग्रेनविल ऑस्टिन, न्यायविद (किताब “द इंडियन कान्स्टिटूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ अ नेशन” में)
इस संदर्भ में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री को यह विचार करना चाहिए कि वह बिना सहमति के लोकतंत्र के संचालन को बहुत दूर तक नहीं ले जा सकते हैं। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका मंत्रिपरिषद की भूमिका के समानांतर चलती है। यह दोनो समानांतर रेखाएं रेलगाड़ी की पटरी की भांति हैं जिसमें लोकतंत्र की गाड़ी चलती है। जब तक यह दोनो रेखाएं साथ चलेंगी लोकतंत्र चलता रहेगा अन्यथा इसके ढह जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सोचना चाहिए और जनता को बताना चाहिए कि विपक्ष और तमाम संविधान विशेषज्ञों के विरोध के बावजूद वह ही क्यों नई संसद का उद्घाटन करने की जिद कर बैठे हैं?
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी बाजपेई के कार्यकाल के दौरान एनसीईआरटी के प्रमुख रहे जगमोहन राजपूत का एक लेख एक हिन्दी अखबार में छपा था जिसमें वह अपनी शिक्षाविद की छवि से बाहर निकलने की उत्कंठा में शब्दों के स्राव को नहीं रोक सके और यह कहना जरूरी समझा कि विपक्ष नई संसद के उद्घाटन पर ‘सस्ती राजनीति कर रहा है’ और यह भी कहा कि ‘नए संसद भवन के उद्घाटन को लेकर विपक्ष में जो व्याकुलता देखी जा रही, वह हताशा की ही अभिव्यक्ति है”। जगमोहन राजपूत शब्दों के अवांछित स्राव को रोक नहीं पा रहे थे और यह भी भूल गए कि भारत के लिए जिस प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अपनी जान दे दी उसके नाम पर दिल्ली स्थित कनॉट प्लेस का नाम यदि राजीव चौक रख दिया गया तो यह काम अनैतिक हो गया! उन्होंने भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री के विषय में थोड़ा ‘निरपेक्ष’ अध्ययन किया होता तो जानकारी दे पाते कि भारत कहाँ और किस दिशा की ओर अग्रसर है!
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वास्तविकता तो यह है कि विपक्ष द्वारा प्रधानमंत्री के इस कृत्य का विरोध पूर्णतया प्राकृतिक और संविधान को बचाने वाला है। यदि इस विरोध को जारी नहीं रखा जाता है तब तो संविधान के सभी पद, शक्तियां और दायित्व सिर्फ प्रधानमंत्री ही तय करने लगेंगे।
लोकतंत्र को कमतर करके आँकने की प्रवृत्ति पीएम मोदी में नई नहीं है। यह उनकी आदत है इसके उदाहरण याद किए जा सकते हैं जब उन्होंने देश की संसद में खड़े होकर सिविल सोसाइटी को ‘आन्दोलनजीवी’ कहकर अपमानित किया और विपक्ष को खत्म करने के लिए ‘कॉंग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा दिया, यह सब किसी भी रूप में लोकतंत्र की बढ़ोत्तरी को प्रोत्साहित करने वाला नहीं है। उनके ही कानून मंत्री (जिन्हें हाल मे हटाया गया है) द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय के बारे में गरिमा-विहीन टिप्पणी करना लोकतंत्र को कमजोर करने के उदाहरण हैं। सड़कों से सिविल सोसाइटी खत्म यानि सरकार के खिलाफ आंदोलन खत्म, संसद से विपक्ष खत्म यानि सरकार में शामिल लोगों की मनमानी पर रोकटोक खत्म और न्याय देने के लिए एक ‘आज्ञाकारी’ न्यायपालिका के निर्माण के प्रयास के बाद लोकतंत्र कैसे बच पाएगा? इसे कौन बचा पाएगा?
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि “विपक्ष का रवैया लोकतंत्र को खत्म करने वाला है”। विपक्ष द्वारा केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री के तरीकों का विरोध कब से अलोकतांत्रिक हो गया? क्या सरकार द्वारा विरोध को अलोकतांत्रिक कहा जाना अपने आप में अलोकतांत्रिक नहीं है? देश को कमजोर करने वाला नहीं है?
देश के लोगों को हमेशा याद रखना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र की मजबूती और बढ़ता हुआ वर्चस्व दूसरे देशों के स्वागत-सत्कार की परंपराओं का मोहताज नहीं है। किसी राष्ट्र के प्रमुख द्वारा प्रधानमंत्री का पैर छू लेना कोई नई बात नहीं है लेकिन इसका व्यापक प्रचार-प्रसार जरूर एक नई बात है जोकि भारत के वर्तमान नेतृत्व की अंतर्निहित कमियों और असुरक्षाओं का परिणाम है जिसे सम्पूर्ण राष्ट्र पर थोपे जाने की कोशिश की जा रही है। इतने असुरक्षित नेतृत्व के सामने एक मजबूत विपक्ष और कंक्रीट से बनी संस्थाओं का टिके रहना बहुत जरूरी है। इसी प्रकार से सेंगोल को लोकतंत्र की इमारत में स्थापित करने से लोकतंत्र को बल मिलने की दलीलों को भी कमजोर नेतृत्व का संकेत माना जाना चाहिए।
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‘सेंगोल’ से भारत के लोकतंत्र की ताकत को न ही कोई गति मिल सकती है और न ही इसके न रहने पर लोकतंत्र कमजोर हो जाता है। भारत के लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है हर धर्म, जाति व लिंग से ताल्लुक रखने वाली भारत की जनता और भारत का संविधान। यदि भारत की जनता के किसी प्रतीक को या संविधान के किसी प्रतीक को सेंगोल की जगह इस्तेमाल किया जाता तो कहीं बेहतर संदेश जाता!
संदेश तब भी बेहतर जाता यदि नई संसद के उद्घाटन के पहले भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह तय कर लेते कि नई संसद किसी ऐसे व्यक्ति को अंदर नहीं जाने देगी जिसके खिलाफ यौन शोषण का आरोप हो! जैसे कि भाजपा के सांसद ब्रजभूषण सिंह, जिसके खिलाफ देश का गौरव बढ़ाने वाली महिलायें जंतर मंतर पर इसलिए प्रदर्शन कर रही हैं क्योंकि उनका मानना है कि ब्रजभूषण सिंह ने कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए कई लड़कियों का यौन शोषण किया है जिसमें कई लड़कियां ऐसी भी हैं जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति(पदेन सभापति) संसद में राज्यों और विपक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब भी किसी राज्य के मुख्यमंत्री या संसद में विपक्ष को केंद्र सरकार के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करना होता है और संरक्षण की आवश्यकता होती है तो वह भारत के राष्ट्रपति के समक्ष ही अपना निवेदन लेकर जाते हैं। ऐसे में नई संसद में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की अनुपस्थिति देश के संघीय ढांचे को कमजोर करने के साथ साथ केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को गैर-आनुपातिक रूप से प्रबल करने की आकांक्षा की ओर संकेत है जिसे लोकतान्त्रिक माध्यमों से हर हाल में रोका जाना चाहिए। संसद नागरिकों की सर्वोच्च लोकतान्त्रिक संस्था है और राष्ट्रपति भारत का ‘प्रथम नागरिक’ है। यदि नागरिकों की इस संस्था का उद्घाटन भारत के ‘प्रथम नागरिक’ करते तो संदेश बड़ा और दूरगामी होता!
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