कोई दल या व्यक्ति चुनाव क्यों जीतना चाहता होगा? थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि लोग चुनाव कुर्सी के लालच में नहीं जीतना चाहते होंगे, यह भी मान लिया जाए कि लोग जनता की सेवा ‘सच्चे मन’ से करना चाहते हैं, एक पारदर्शी सरकार लाना चाहते हैं, भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते हैं और बस सिर्फ एक ‘चौकीदार’ की हैसियत से ही कुर्सी पर बैठेंगे ताकि देश और जनता के साथ न्याय हो सके। यद्यपि यह सब लगभग आदर्श के क़रीब है लेकिन फिर भी थोड़ी देर के लिए माना जा सकता है। अब जब चुनाव जीतने की प्रक्रिया के दौरान कोई नेता जनता के सामने दिए गए अपने भाषण में कहता हो कि “चुनाव में आप कमल का बटन ऐसे दबाओ कि उनको (कांग्रेस को) फांसी दे रहे हो।” तो इससे क्या अंदाजा लगाया जाना चाहिए?
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान के बायतु में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल किया था। मात्र एक विधानसभा चुनाव को जीतने की कोशिश में और कुर्सी को बीजेपी के पक्ष में हासिल करने के लिए, सम्पूर्ण भारत और इसके मूल्यों को शर्मसार कर दिया? मैं बिल्कुल यह नहीं बताऊँगी कि भारत के प्रधानमंत्री के संवैधानिक दायित्व क्या हैं और वह किन-किन संस्थाओं का प्रमुख होता है और साथ ही यह कि वह हर आलोचना के बावजूद भारत की सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधि होता है। कहने को तो भारत के गृहमंत्री अमित शाह भी शाहीनबाग में चल रहे सीएए-एनआरसी प्रदर्शन के ख़िलाफ़ बोल चुके थे कि “ऐसे बटन दबाना कि करंट शाहीनबाग में लगे”। अपने देश के शांतिपूर्ण नागरिक प्रदर्शनों के विरोध में ऐसी अभद्र टिप्पणी, वह भी सिर्फ चुनाव जीतने के लिए, शोभा नहीं देती। इससे भी बदतर भाषा का इस्तेमाल अनुराग ठाकुर कर चुके हैं जिसमें उन्होंने एक समुदाय विशेष को टारगेट करते हुए “देश के गद्दारों को…गोली मारो…” जैसी भाषा का इस्तेमाल किया था।
ऐसी हिंसक और भड़काने वाली भाषाएँ जानबूझकर नेताओं द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं क्योंकि उनके किए गए कार्य उनके वादों से कम पड़ जाते हैं, क्योंकि उनकी अक्षमता उनकी काबिलियत पर भारी पड़ जाती है, क्योंकि वो जनता के ‘बेरोज़ग़ारी और महंगाई’ के खिलाफ ग़ुस्से को किसी समुदाय या विचारधारा के खिलाफ करके उसे घृणा में बदल देना चाहते हैं ताकि उनका अपना सियासी/चुनावी फायदा हो सके।
कुछ लोगों का तर्क यह है कि पीएम मोदी के ख़िलाफ़ भी अन्य दलों के नेताओं द्वारा अभद्र टिप्पणियाँ की गई हैं। यह तर्क अपने आप में रेतीला है। पीएम को जनता भी खराब बोल सकती है, विपक्ष के नेता भी, समाजसेवी भी और पत्रकार भी, क्योंकि इनमें से कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत क्षमता में ‘संस्थान’ का स्वरूप नहीं रखता। लेकिन प्रधानमंत्री स्वयं में एक संस्थान होता है। संस्थाएं सकारात्मक प्रतिक्रिया देती हैं, गालियां और हेटस्पीच नहीं। क्या कभी नरेंद्र मोदी को पीएम मनमोहन सिंह ने गालियाँ दीं? अभद्र टिप्पणियाँ कीं? क्या कभी किसी अन्य पदासीन प्रधानमंत्री ने मंच से अभद्र टिप्पणियाँ कीं? मेरी जानकारी में तो नहीं की! संस्थाएं जिम्मेदारी लेने और लोगों की आलोचना व प्रशंसा सुनने के लिए होती हैं, अपने दायित्व निभाने के लिए होती हैं, जनता के हित में कार्य करने व जवाबदेही के लिए होती हैं न कि प्रतिक्रिया के बहाने अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने के लिए। इस पद की ये कम से कम कीमत है इसे तो चुकाना ही चाहिए, जो चुकाने को तैयार नहीं उसे पार्टी कार्यालय में बैठकर ‘संगठन’ का कार्यभार लेना चाहिए और तब जो चाहें, जैसी चाहें टिप्पणी करे।
जब प्रधानमंत्री अपने भाषण में हिंसात्मक भाषा का इस्तेमाल करता है तब इसकी न कोई माफी हो सकती है और न ही कोई हर्जाना। यह दायित्व के साथ नैतिकता का विषय भी है जिसमें सिर्फ चुनावी लाभ के लिए भारत के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को दांव पर नहीं लगाया जा सकता है।
भारत के प्रधानमंत्री यहाँ की संसदीय व्यवस्था का केन्द्रीय बिन्दु है जहां यह सिर्फ एक पद के रूप में न रहकर एक ‘संस्था’ का रूप धारण कर लेता है। ऐसे में एक संवैधानिक संस्था एक राजनैतिक दल के लिए ‘फांसी’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करती है तो यह न सिर्फ निंदनीय है बल्कि इस टिप्पणी से होने वाला नुकसान भरपाई से परे है। पता नहीं कि नरेंद्र मोदी को इस बात का एहसास है या नहीं कि वो अपनी पार्टी के कार्यकर्ता नहीं बल्कि एक संप्रभु राष्ट्र भारत के प्रधानमंत्री हैं, जिसके अपने कार्य और जिम्मेदारियाँ हैं जिन्हे नकारने की कीमत भारत का लोकतंत्र चुकाएगा। प्रख्यात संविधानविद आइवर जेनिंग्स ने कहा है कि “प्रधानमंत्री उस सूर्य की भांति है जिसके चारों ओर ग्रह परिक्रमा करते हैं। वह संविधान का सूत्रधार होता है। संविधान के सभी मार्ग प्रधानमंत्री की ओर ले जाते हैं”।
भारत के प्रधानमंत्री देश को कहाँ ले जा रहे हैं, हेट स्पीच की ओर? या भारत के संवैधानिक विखंडन की ओर?
जिस तरह से भारत की अन्य संवैधानिक संस्थाएं केंद्र सरकार के दबाव में कार्य कर रही हैं उससे संवैधानिक विखंडन का ख़तरा बढ़ गया है। संवैधानिक संस्थाओं का कार्य है संविधान के मातहत होकर कार्य करना, संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करना। लेकिन कुछ महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं जिस तरह कार्य कर रही हैं उससे संवैधानिक-राजनैतिक संकट अवश्यंभावी लगने लगा है।
तमिलनाडु और पंजाब के राज्यपाल अपने-अपने राज्यों में चुनी हुई सरकारों के साथ, जनता के विश्वास के साथ जिस तरह खेल रहे हैं वह उचित नहीं है। यह सिर्फ संघीय ढांचे के लिए संकट नहीं पैदा कर रहा है बल्कि जाने-अनजाने यह भारत के अस्तित्व पर और उसके स्थायित्व पर संकट पैदा करने की तैयारी है। पंजाब, तमिलनाडु और इससे पहले तेलंगाना के राज्यपाल के द्वारा राज्य सरकारों के कार्यकलापों में हस्तक्षेप पर, टिप्पणी करते हुए भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि “राज्य के राज्यपालों को इस सच से अनजान नहीं रहना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं।” साथ ही यह भी कि राज्यपालों द्वारा, एक चुनी हुई सरकार द्वारा बुलाए गए विधानसभा के सत्र को अवैध करार देने की शक्ति ‘आग से खेलने’ जैसी है। एक न्यायालय जिसे संविधान का अभिरक्षक बनाया गया है वह राज्यपाल के विषय में ऐसी टिप्पणी करता है तब यह महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि यह सर्वविदित है कि राज्यों में राज्यपाल मुख्यतया केंद्र के एजेंट की तरह कार्य करते हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी केंद्र पर समझी जानी चाहिए। केंद्र के मुखिया पीएम मोदी हैं इसलिए इसमें कोई अतिरेक नहीं कि यह टिप्पणी अप्रत्यक्ष रूप से पीएम मोदी की सरकार और उन पर की गई है। मुझे नहीं पता कि केंद्र ‘आग से क्यों खेलना’ चाहता है लेकिन यह ख़तरनाक है यह बात तो कोई भी बता सकता है।
भारत के संविधान में वर्णित हर पद खास है, विशेषता से भरा हुआ है जिसमें पद से संलग्न जिम्मेदारियाँ अच्छे से भरी गई हैं। यह बात राज्यपाल के लिए भी सही है और भारत के निर्वाचन आयोग पर भी।
चुनाव आयोग के इस रवैये से विश्वास घट रहा है, निष्पक्षता डूब रही है और लोकतान्त्रिक परम्पराएं नष्ट हो रही हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने हाल ही में चुनाव आयोग को लिखी चिट्ठी में चिंता जताते हुए कहा है कि जब उनके पिता बाल ठाकरे ने ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर वोट मांगे थे तब उनपर 6 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन जब आज गृहमंत्री अमित शाह धर्म के नाम पर, अयोध्या में ‘फ्री दर्शन’ के नाम पर वोट मांग रहे हैं तब उन पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? उद्धव ठाकरे का प्रश्न वाजिब है और इसका उत्तर मिलना चाहिए। तो क्या हुआ अगर चुनाव आयोग को चुनने में पीएम की भूमिका अहम होती है, संविधान चुनाव आयोग को असीमित शक्तियां प्रदान करता है वह भी सिर्फ इसलिए ताकि राजनतिक दलों और जनता के हर वर्ग का विश्वास लोकतंत्र में बना रहे। किसी लोकतंत्र की मजबूती उसकी सैन्य क्षमता और पुलिस तंत्र में नहीं बल्कि संस्थाओं की मजबूती और निष्पक्षता से तय होती है। इसके अभाव में लोकतंत्र ढह जाएगा।
प्रधानमंत्री के भाषणों का चुनावों के दौरान बहककर लोकतान्त्रिक दायरों को तोड़ जाना और राज्यपाल व चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं का केंद्र सरकार व प्रधानमंत्री की तीमारदारी करते हुए दिखना और विपक्ष को ‘जानी दुश्मन’ की तरह देखा जाना, लोकतंत्र में फैल रही एक सड़न का लक्षण है जिसका ‘इलाज’ ‘भारत के लोगों’ द्वारा किया जाना चाहिए वरना आने वाली पीढ़ियों के पास इस सड़न के साथ घुटकर जीने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं बचेगा।
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