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लोकतंत्र में चुनाव को 'युद्ध' मानने की गलती नहीं करनी चाहिये

बीते दिनों एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखा कि “लोकतंत्र में चुनाव किसी युद्ध से कम नहीं होते”। लेखक के विचारों का सम्मान करते हुए भी मुझे इस बात से गहरी असहमति है कि लोकतंत्र में चुनावों को युद्ध के साथ जोड़कर देखा जाए। भले ही यह सुनने में बहुत आकर्षक लगता हो लेकिन जरा सोचकर देखिए ‘सुन जु’ या मैकियावेली को लोकतंत्र में शामिल करने के क्या खतरे हो सकते हैं। युद्ध शब्द आते ही हिंसा परछाई की तरह शामिल हो जाती है। चाहे युद्ध दो सेनाओं के बीच हो, दो विचारों के बीच या फिर लोकतंत्र में दो दलों के बीच, हिंसा अपना स्थान बना ही लेती है।  
अंतर्राष्ट्रीय युद्धों में ‘आचरण’ के कुछ नियम बनाए गए हैं जिन्हे वियना कन्वेशन के नाम से जाना जाता है। भारत जैसे लोकतंत्र में अगर चुनावों को युद्ध मानते हैं तो यहाँ भी आचरण के लिए ‘आचार संहिता’ जैसी व्यवस्था की गई है। यह इत्तेफाक नहीं है कि जिस तरह वियना कन्वेन्शन अपने उद्देश्यों की पूर्ति में असफल रहा है वैसे ही आचार संहिता भी असफल रही है। कारण है, चुनावों को युद्ध की तरह समझना। 
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युद्ध किसी आचरण को ध्यान में रखकर नहीं लड़े जा सकते, युद्धों का सिर्फ एक ही उद्देश्य होता है और वह है जीत, ‘किसी भी कीमत पर’। जब सत्ता हासिल करने के लिए कोई भी कीमत चुकाने की तैयारी हो जाती है तब अहंकार और हिंसा का मिश्रण तैयार होता है जिसके सामने इंसान, तंत्र और व्यवस्था कोई मायने नहीं रखती। बस सत्ता की प्राप्ति ही एक मात्र गंतव्य हो जाता है भले ही रास्ते में कितने लोग कुचलते चले जाएं, कितनी ही मर्यादा क्यों न टूटती चली जाए, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 
आखिर यह ‘युद्ध’ के रूप में लिए जाने का ही तो परिणाम है कि महीनों तक सड़क में बैठी रहीं महिला पहलवान जिस व्यक्ति, बृजभूषण शरण सिंह, के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं, जिस व्यक्ति ने उनका शारीरिक शोषण किया था, जिसे पार्टी से बाहर निकालने की गुहार लगाई जा रही थी और गुहार किसी छोटे मोटे नेता से नहीं, ये गुहार भारत के प्रधानमंत्री से लगातार लगाई जा रही थी।
लेकिन अंततः सबकुछ दरकिनार करके, मर्यादा को तोड़कर, नैतिकता को ताक पर रखकर, बीजेपी ने इस आदमी के बेटे करण को कैसरगंज लोकसभा सीट से टिकट दे दिया। सिर्फ चुनावी लाभ के लिए, किसी तरह बस जीत जाने की जिद के लिए, जिसे युद्ध कहा जाता है, महिला अस्मिता को नकार दिया गया।

महिलाओं के उत्पीड़न को वैधानिक बना दिया गया। उन लोगों की हिम्मत को पंख दे दिए गए जो उच्च राजनैतिक पदों पर बैठकर महिलाओं का सिर्फ शोषण करने को तैयार रहते हैं।


सोचिए अगर यह युद्ध न होता तो क्या होता? बीजेपी महिला पहलवानों की बातों को सुनकर बृजभूषण शरण सिंह की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता को रद्द कर देती, पीएम मोदी खुलकर यह बयान देते कि उनकी पार्टी में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है, तो समाज में एक संदेश जाता, महिलाओं में सुरक्षा की सुगंध जाती, और बलात्कारियों में भय की सुनामी। लेकिन यह सब तब होता न, जब चुनाव युद्ध नहीं होता, जिसे हर कीमत पर जीतना ही है। पर क्या कहें दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है।
चुनाव युद्ध है इसीलिए शायद चाहे ‘अपने लोग’ जितना अपराध कर लें, उस पर खामोशी जरूरी हो जाती है, वरना युद्ध ‘हार’ जाने का खतरा पैदा हो सकता है।
बृजभूषण पीएम मोदी के दल का सदस्य है इसलिए पीएम खामोश रहे, कर्नाटक का सांसद प्रज्ज्वल रेवन्ना पीएम मोदी के नेतृत्व वाले NDA का हिस्सा है इसलिए पीएम खामोश रहे, मणिपुर में बीजेपी की सरकार है इसलिए पीएम खामोश रहे। आखिरकार यह कैसा व्यवहार है? मन में यह भाव कि ‘जीत हर कीमत पर’, अपराध पर चुप रह जाने की और यौन शोषण के आरोपों को ध्यान न देने की शक्ति प्रदान करते हैं। जब पीएम को यही शक्ति चाहिए थी तो ‘नारी शक्ति’ की बात करना क्यों जरूरी था? शायद उनके लिए नारी शक्ति वो है जिसमें स्त्री चूल्हे के सामने से हटकर अब गैस के सामने बैठ गई है, जो शौच के लिए बाहर जाती थी अब घर में जा रही है लेकिन अगर वो पहलवान बन जाती है, सरकारी नौकरी पा जाती है, घर से बाहर निकलना शुरू कर देती है और पुरुषों को जवाब देना शुरू कर देती है तो वो नारी शक्ति की परिभाषा में नहीं आएगी। 
यूट्यूब चैनल्स जिनसे एक आशा थी कि वो एक ऑल्टर्नेट मीडिया बनकर सामने आ रहे हैं, वो भी यदाकदा ही सामाजिक समस्याओं पर बहस करवाते दिखेंगे, साल के 365 दिन वहाँ सिर्फ चुनाव यानि ‘युद्ध’ पर ही चर्चा होती दिखेगी। वो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि चुनाव लोकतंत्र का एक हिस्सा भर है।

लोकतंत्र सिर्फ चुनाव नहीं है।


जब कोई देश युद्ध में होता है तो वो दैनिक जीवन के तमाम आयामों को नकार देता है, मसलन- उसके देश में भुखमरी के क्या हालात हैं, उसके यहाँ नागरिक स्वतंत्रता की क्या स्थिति है, उसके देश के लोगों का रहन-सहन का स्तर क्या है आदि। भारत में जो पार्टी सत्ता में है, कहा जाता है कि वो हमेशा चुनावी मोड में रहती है, इस पार्टी के लिए चुनाव का  मतलब युद्ध, और युद्ध का मतलब समस्याओं को नकारते रहने का मौका। 
पीएम मोदी को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं कि लद्दाख में बढ़ता असंतोष अस्थिरता को जन्म दे सकता है, क्योंकि पीएम जानते हैं कि लद्दाख में चीनी घुसपैठ को वो समय आने पर नकार देंगे, जैसा कि वो पहले भी कर चुके हैं। प्रतिष्ठित संस्था, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स(RSF), द्वारा जारी प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत दो स्थान तो ऊपर उठा है लेकिन स्कोर के मामले में लगभग 5 अंक लुढ़ककर पाकिस्तान से भी नीचे चला गया है।
RSF ने भारत को प्रेस स्वतंत्रता के मामले में ‘अत्यंत गंभीर’ स्थिति वाली श्रेणी में रखा है। जिस तरह वर्तमान बीजेपी की सरकार ने 2023 में आए इसी सूचकांक को पूरी तरह नकार दिया था उसी तरह इस बार भी नकार देगी। आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब RSF यह कहता है कि “जिस राजनैतिक सत्ता को प्रेस स्वतंत्रता का अभिभावक होना चाहिए था उसी की वजह से पूरी दुनिया में इस पर खतरा मंडरा रहा है”। भारत की मीडिया की हालत के बारे में RSF का कहना है कि- 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से मीडिया, भारत में एक अनाधिकारिक इमरजेन्सी की हालत में पहुँच गया है। 

भारत में भुखमरी और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली को 5 किलो राशन और आयुष्मान योजना के नीचे दबाने की कोशिश की गई है।


जिस तरह 5 किलो राशन से जीवन नहीं चल सकता वैसे ही एक परिवार में मात्र 5 लाख रुपये देकर पूरे परिवार को इस महंगाई में स्वस्थ नहीं रखा जा सकता। जब राजस्थान की उस समय की गहलोत सरकार 25 लाख रुपये दे सकती है तो भारत सरकार ये पैसा क्यों नहीं वहन कर सकती? आखिर इस देश के संसाधनों पर पहला हक यहाँ के नागरिकों का ही तो है। जब देश का नागरिक, मुख्यरूप से गरीब, बीमारी से मरते रहेंगे तो इसका क्या अर्थ होगा कि भारत किस नंबर की अर्थव्यवस्था का देश बन गया है। 

5 किलो राशन 21वीं सदी के भारत की महत्वाकांक्षा बन गई है, इससे असहनीय तथ्य कुछ और नहीं हो सकता।


नीति आयोग के एक सदस्य विनोद के पॉल का कहना है कि भारत सरकार प्रतिव्यक्ति लगभग 3 हजार रुपये खर्च कर रही है और यह बड़ी बात है। क्या कोई बता सकता है कि 3000 रुपये से साल भर में कितना इलाज संभव हो सकता है? क्या कोई बता सकता है कि डॉक्टर-रोगी अनुपात जब मात्र 0.7 ही है तो कितने लोग सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवा पाते होंगे और कितने लोग लाइन में लगे लगे ही अपनी जान दे देते होंगे? क्या इससे किसी पत्रकार को, किसी ऑल्टर्नेट मीडिया को फ़र्क पड़ता है? सत्तासीन राजनैतिक दल के लिए तो यह एक युद्ध है और युद्ध में क्या स्वास्थ्य कभी मुद्दा बन सकता है? नहीं बन सकता है।  चुनाव को युद्ध समझने वाले पीएम के लिए इनमें से कुछ भी मुद्दा नहीं है। सत्ता के लिए सिर्फ एक ही मुद्दा है और वह है सत्ता की पुनः प्राप्ति। 
इसलिए मैं जोर देकर कहती हूँ की चुनाव युद्ध नहीं है और न ही इसे युद्ध समझा जाना चाहिए, लोकतंत्र कोई युद्ध नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से हिंसक युद्धों के बाद प्राप्त होने वाली एक शांतिपूर्ण व्यवस्था है।
लोकतंत्र सीमांकन करता है, युक्तियुक्त निर्बंध लगाता है। जबकि युद्ध, चाहे किसी भी  किस्म के हों, सीमाओं को तोड़ने की ही वकालत करते हैं। वैचारिक युद्ध के नाम पर खुद को पाकिस्तान और मुसलमानों की मुखालफत तक सीमित कर लेना, हर बात पर गाय का जिक्र ले आना, या फिर विपक्षी दलों को जबरदस्ती पाकिस्तान से जोड़ने की जिद करना, उनके धार्मिक आचरण पर प्रहार करना और बार बार हताश होकर राम के नाम पर वोट मांगना लोकतंत्र के किसी सशक्त नेता का आचरण नहीं हो सकता। बचपन से हम सबने देखा है कि राम और भगवान के नाम पर कौन और क्या माँगता है, जो कुछ नहीं करता वो ही राम के नाम पर सड़क पर खड़ा होकर माँगता है जबकि लोकतंत्र तो आपको एक मौका देता कि पहले आप कुछ करें और फिर अपने कार्यों के आधार पर जनता से वोट मांगे, लेकिन चूंकि सत्तारूढ़ दल के लिए चुनाव एक युद्ध का रूप ले चुका है इसलिए इन बातों को भी दरकिनार कर दिया जाता है।
यह गंभीर मुद्दा है कि 10 सालों तक सत्ता के शिखर पर बैठे रहने के बावजूद, भारत की हर एक नीति/रणनीति के जिम्मेदार रहने के बावजूद, पीएम मोदी 2024 के चुनावों में अपनी किसी भी योजना/नीति के नाम पर वोट नहीं मांग रहे हैं।
अपने ही किए हुए वादों, अपनी ही बनाई गई योजनाओं को दरकिनार करके विपक्ष के घोषणापत्र के आधार पर वोट मांगना, संभवतया उनके लिए यही चुनाव और यही युद्ध है। मैं कहती हूँ कि देश के 140 करोड़ लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं के साथ यह व्यवहार एक हिंसा है, जिस थाली को 10 सालों तक परोसा जब उसका आँकलन का समय आया तो दूसरे की थाली झांकना हिंसा है, अपने व्यक्तित्व और कार्यों से पहले अपनी धार्मिक छवि को आगे रखकर वोट मांगना लोकतंत्र में हिंसा है।

जिस रैली में हजारों लोग आते हैं और जिसका प्रसारण करोड़ों लोगों तक होता है उसमें 20 करोड़ मुसलमानों को किसी न किसी बहाने टारगेट करना हिंसा है।


और यह सब इसीलिए जायज बन गया है क्योंकि चुनावों को एक ‘युद्ध’ मान लेने की गलती की गई है और युद्ध में हिंसा पाप नहीं होती। इससे तो अच्छा होता कि चुनावों को ‘उत्सव’ मान लिया गया होता, ‘रणनीति’ जैसे डावांडोल और कई अर्थों में प्रयोग होने वाले इस शब्द को कम से कम हिंसा को जायज ठहराने का मौका तो नहीं मिलता। 
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चुनाव युद्ध नहीं असल में सत्तासीन दल के कार्यों की नागरिकों द्वारा की गई समीक्षा की प्रक्रिया है, जिसमें बाधा न आए इसकी जिम्मेदारी भारत के निर्वाचन आयोग और कुछ मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की है। इसे निभाया ही जाना चाहिए।
(वंदिता मिश्रा जानी मानी वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)
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वंदिता मिश्रा
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