नागरिकता (संशोधन) कानून-2019 (CAA),11 मार्च, सोमवार को लागू कर दिया गया। इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं, प्रतिक्रियाएं और डर सामने आने लगे हैं। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को घर में नजरबंद भी कर दिया गया है। सरकार इस बात को लेकर सतर्क है कि कहीं फिर से 2019-20 के जैसा आंदोलन न खड़ा हो जाए, कहीं फिर से कोई ‘शाहीन बाग’ न बनकर तैयार हो जाए। क्योंकि शाहीन बाग के आंदोलन ने जो वैश्विक रूप धारण किया था उससे नरेंद्र मोदी सरकार की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था।
अब संभवतया नरेंद्र मोदी सरकार नहीं चाहती थी कि CAA को गलत समझा जाए। इसलिए इन सबका सामना करने के लिए दो सबसे शक्तिशाली मंत्रियों, केन्द्रीय गृहमंत्री और रक्षामंत्री को सामने आना पड़ा। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा- कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है, यह कानून भारत में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की नागरिकता नहीं छीनेगा। इसके बाद गृहमंत्री अमित शाह ने समाचार एजेंसी एएनआई से कहा कि, "…देश के अल्पसंख्यकों को डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें किसी भी नागरिक के अधिकारों को वापस लेने का कोई प्रावधान नहीं है।" स्वयं गृह मंत्रालय ने 12 मार्च को कहा कि "इस अधिनियम के बाद किसी भी भारतीय नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज़ पेश करने के लिए नहीं कहा जाएगा।"
सरकार की तत्परता से स्पष्ट है कि केंद्र नहीं चाहता कि CAAको लेकर किसी भी किस्म का डर मन में रहे। यह अलग बात है कि सरकार आगे चलकर अपनी बात पर कितना अडिग रहती है। क्योंकि किसान आंदोलन को समाप्त करने(MSP की कानूनी गारंटी का वादा) से लेकर ढेरों ऐसे वादे हैं जिन्हे लेकर सरकार ने पहले तो प्रतिबद्धता जाहिर की लेकिन बाद में अपने वादे से पलट गई। फिर भी CAA मामले में सरकार ने कम से कम यह स्पष्ट करने का तो प्रयास किया कि उनका उद्देश्य क्या है।
लेकिन ऐसी ही तत्परता तब सामने नहीं आती जब 4 बार के लोकसभा सांसद और मोदी कैबिनेट में ‘कौशल विकास’ मंत्रालय में मंत्री रह चुके अनंत हेगड़े भारत के संविधान को बदलने की बात करते हैं। भारत का संविधान जिसने अस्पृश्यता को समाप्त किया(अनुच्छेद-17), जिसने नागरिकों की जाति, लिंग, धर्म और आस्था को बिना जाने ‘समानता का अधिकार’(अनुच्छेद 14-18) प्रदान किया, जिसने 200 सालों की औपनिवेशिक ग़ुलामी के बाद भारतीयों को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’(अनुच्छेद-19) प्रदान किया। ऐसे संविधान को बदलने की डरावनी बात करने वालों के खिलाफ कोई बड़ा मंत्री नहीं आया, क्यों? क्या रक्षा मंत्री और गृहमंत्री को नहीं लगा कि संविधान बदलने की बात डरावनी है? मुझे तो लगता है इस मुद्दे पर स्वयं भारत के प्रधानमंत्री को सामने आकर संविधान का बचाव करना चाहिए था और अपने सांसद को अपने पास बुलाकर जवाब मांगना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से उन्होंने ऐसा नहीं किया।
उत्तर कन्नड़ सांसद अनंत हेगड़े ने कारवार में एक भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था कि, "अगर हम इस चुनाव में 400 से अधिक सीटें जीतते हैं, तो हम इसे हासिल करने(संविधान बदलने) में सक्षम होंगे।" अनंत हेगड़े जोकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा के प्रहरी हैं, अपने इसी भाषण में कहते हैं कि “….(वर्तमान संविधान से)हिंदू धर्म को बढ़ावा नहीं मिलता है। हमें अपना धर्म बचाना है; यह हमारी जिम्मेदारी है।(इसलिए)हमें इसे (संविधान) बदलने की जरूरत है। पीएम मोदी अपने लिए 2024 में 400 सीटें मांग रहे हैं, और उनके नेता इन 400 सीटों का उद्देश्य बता रहे हैं। यद्यपि भाजपा ने प्रवक्ता स्तर पर हेगड़े के बयान से अपनी दूरी बना ली है लेकिन सरकार के बड़े मंत्रियों में से कोई आगे नहीं आया।
मुद्दा सिर्फ अनंत हेगड़े के बयान का नहीं है, बात है आरएसएस और बीजेपी के मूल चरित्र की, उन सिद्धांतों की जिन पर संघ और भाजपा खड़ी है। संघ की विचारधारा का भारत के संविधान के प्रति दुराग्रह आज का नहीं 75 साल पुराना है। जब 26 नवंबर 1949 में संविधान को अंतिम रूप दिया गया, तब आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र (30 नवंबर, 1949) में लिखा गया:
“भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। .. प्राचीन भारतीय कानूनों/स्मृतियों का कोई निशान नहीं है... मनु के कानून बहुत पहले लिखे गए थे... आज तक मनुस्मृति में बताए गए उनके कानून दुनिया की प्रशंसा पाते हैं और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता प्राप्त करते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।“ संघ की ये बातें, संविधान के साथ साथ अंबेडकर पर भी हमला थीं। क्योंकि वो अंबेडकर ही थे जिन्होंने संविधान का मसौदा तैयार करने से कई साल पहले सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति पाठ को जलाया था। संविधान के मुख्य शिल्पी होने के नाते उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि मनुस्मृति की ‘अस्पृश्यता’ और ‘स्त्री विरोध’ संविधान के अनुच्छेदों से दूर रहे।
संघ और भाजपा इसी संविधान से अधिकार प्राप्त करके मजबूत होते गए और इसी संविधान को खत्म करने की वकालत भी करते गए। मैं इसे ‘किलिंग द क्रियेटर्स सिन्ड्रोम’(जिसमें कोई उस व्यवस्था को धीरे धीरे कुतर कर खत्म कर देता है जिस व्यवस्था से उसका अस्तित्व है) कहती हूँ। 1998 में जैसे ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आई, उसने संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटचलैया आयोग नियुक्त किया। उद्देश्य था, पूरे संविधान की समीक्षा की जाए जिससे उसमें से वो अंश हटाए जा सके जिनसे संघ सहमत नहीं था।
जब सन 2000 में के.एस. सुदर्शन आरएसएस के सरसंघचालक बने, तो उन्होंने खुले तौर पर घोषणा की, कि भारतीय संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है और इसके स्थान पर भारतीय पवित्र पुस्तकों पर आधारित संविधान लागू किया जाना चाहिए, जो मनुस्मृति का संकेत देता है। उन्होंने जोर देकर कहा,
“
"हम संविधान में पहले ही सौ बार संशोधन कर चुके हैं इसीलिए इसे पूरी तरह से बदलने में शर्म नहीं करनी चाहिए"। वो आगे यहाँ तक कहते हैं कि “इसमें कुछ भी पवित्र नहीं है। वास्तव में, यह देश की अधिकांश बुराइयों का मूल कारण है।”
जिस संविधान ने करोड़ों दलितों को एक झटके में कीड़ों-मकोड़ों की जिंदगी से बाहर निकालकर भारत का सम्मानित नागरिक बना दिया, उन्हे किसी भी अन्य उच्च जाति के व्यक्ति के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया और ऐसा न मानने वालों के खिलाफ कानूनों और कानूनी दंडों के प्रावधान को प्रोत्साहित किया उसमें आरएसएस प्रमुख को कुछ भी ‘पवित्र’ नहीं लगा? यह तो सोचने की बात है।
एक तरफ दुनिया के प्रसिद्ध न्यायविद ग्रैनविल ऑस्टिन भारत के संविधान और उससे चलने वाली सरकारों और नेताओं के बारे में लिखते हैं कि “अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बारे में भारतीयों की समझ, आधुनिक दुनिया की कला और विज्ञान में पेशेवर उपलब्धियों का उनका रिकॉर्ड, और खुद पर शासन करने की उनकी क्षमता में उनका विश्वास, मिलकर उन्हें एक राष्ट्रीय परिपक्वता प्रदान करता है जिसने उन्हे सरकार बनाने और उसे चलाने के एक तर्कसंगत दृष्टिकोण की अनुमति दी है।”
तो दूसरी तरफ आरएसएस में अभी तक कुछ बदला नहीं है। आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबले का संविधान के विषय में कहना है कि, ''यूरो-केंद्रित विचार, प्रणालियां और प्रथाएं, पश्चिमी विश्व दृष्टिकोण अभी भी दशकों से हम पर शासन कर रहे हैं। स्वतंत्र राष्ट्र ने उनसे पूरी तरह परहेज नहीं किया।''
अनंत हेगड़े के विवादित भाषण के बाद काँग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मुद्दे पर अपनी "चुप्पी" तोड़ने के लिए कहा और उन्हें चुनौती दी कि वो हेगड़े को निष्कासित करें। लेकिन जो प्रधानमंत्री मणिपुर और महिला पहलवानों जैसे संवेदनशील और जरूरी मुद्दों पर एक शब्द भी न बोलें हों उनसे इस मुद्दे पर चुप्पी के अतिरिक्त किसी अन्य चीज की आशा करना बेमानी होगा।
पीएम मोदी बोलें भी तो क्या बोलें? जब उनकी आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और निश्चित रूप से उनके बेहद करीबी डॉ बिबेक देबरॉय स्वतंत्रता दिवस के दिन,15 अगस्त, को लाइवमिंट में एक लेख के माध्यम से भारत के संविधान की निरंतरता पर सवाल उठा देते हैं। डॉ देबरॉय की नजर में चूंकि इस संविधान में 100 से अधिक बदलाव हो चुके हैं इसलिए यह वह संविधान नहीं है जो आजादी के बाद बनाया गया था। उनकी नजर में चूंकि केशवानंद भारती के फैसले के बाद अब संविधान के आधारिक ढांचे(जिसमें समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, न्याय, समानता और स्वतंत्रता आदि शामिल हैं) को नहीं बदला जा सकता है इसलिए अब संविधान ही बदल दिया जाना चाहिए। डॉ देबरॉय यह समझने में पूरी तरह विफल रहे कि संविधान का संशोधन संविधान का ही हिस्सा है(अनुच्छेद-368, भाग-20)। संविधान संशोधन, संविधान की लोचता, गतिशीलता और समय के अनुरूप अपने में बदलाव लाने की उसकी क्षमता का परिचायक है। इतनी योग्यता वाले संविधान को उसकी कमजोरी समझ के उसे जड़ से खत्म कर देने का विचार भारत के लिए खतरनाक है। डॉ देबरॉय के विचार को प्रधानमंत्री का विचार तो नहीं समझा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री की चुप्पी को अगर कोई उनका समर्थन समझ ले तो इसमें भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि सलाहकार परिषद ने आधिकारिक तौर पर देबरॉय द्वारा व्यक्त की गई राय से खुद को अलग कर लिया है लेकिन भारतीय संविधान के प्रति संदेह और विरोध को बढ़ाने का काम पूरा कर लिया गया।
अनंत हेगड़े संविधान बदलने की दुकान के नियमित ग्राहक हैं। हाल में दिया गया उनका भाषण इस संबंध में पहला काम नहीं है। वो 2017 में भी ऐसा बयान दे चुके हैं। लेकिन तब केन्द्रीय नेतृत्व ने फौरन हेगड़े का विरोध किया था लेकिन इस बार 5 साल बाद संभवतया नेतृत्व हेगड़े से काफी हद तक सहमत है इसीलिए किसी भी बड़े नेता ने इस बात का खुलकर विरोध नहीं किया। संभवतया यह सच हो कि यदि 2024 में जीत हो गई, उन्हे उचित बहुमत की प्राप्ति हो गई तो, बीजेपी भारत के संविधान को बदलने के बारे में निश्चित ही सोचेगी। यद्यपि केशवानंद भारती(1973) मामला किसी भी हालत में भारत के संविधान की आधारिक ढांचे को बदलने की अनुमति नहीं देता। यदि इस निर्णय को बदलना है तो सुप्रीम कोर्ट की 15 सदस्यीय बेंच का गठन करके केशवानंद को पलटना होगा। यदि इसे बिना पलटे सरकार कोई कदम उठाती है तो सुप्रीम कोर्ट और सरकार में टकराव होगा और सुप्रीम कोर्ट की गरिमा के साथ साथ भारत की भी गरिमा को ठेस पहुंचेगी।
पर मुद्दा यह है कि भारत के वर्तमान संविधान में भाजपा बदलना क्या चाहती है? ऐसा क्या है जो भाजपा और संघ को खटकता है जिसकी वजह से वो लगातार पिछले 75 सालों से संविधान पर प्रहार करने में लगे हुए हैं। भारत की प्रबुद्ध और लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई संविधान सभा ने लगभग 3 सालों के वाद-विवाद के बाद लोकतान्त्रिक तरीके से अंबेडकर, नेहरू, पटेल, आजाद आदि नेताओं की मौजूदगी में जिस संविधान को आकार दिया उसे बदलने की जरूरत क्या है? क्या मूल अधिकार बदले जाने हैं? या अल्पसंख्यकों के अधिकारों को खत्म किया जाना है या इन सबको राष्ट्रहित के नाम पर कमजोर किया जाना है? लोगों को पता होना चाहिए कि संविधान सभा में मूल अधिकारों और अल्पसंख्यकों से संबंधित संविधान सभा की समिति की अध्यक्षता सरदार वल्लभभाई पटेल ने की थी। उनकी अध्यक्षता में तय हुआ था कि भारत में मूल अधिकार कितने और कौन से होंगे, अल्पसंख्यकों को भारत में क्या स्थान दिया जाना है, क्या अधिकार दिया जाना है सब पटेल की अध्यक्षता में ही तय हुआ था। या फिर भाजपा को संविधान के धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी ढांचे को बदलना है? या फिर इन्हे भारत की अखंडता खटकती है? भाईचारा खटकता है? या उन्हे नेहरू, गाँधी और अंबेडकर के संविधान से कभी न मिट सकने वाले स्थायी पदचिन्ह बदलने हैं?
वैसे इन सभी प्रश्नों के उत्तर इस समय भारत के सबसे बड़े दलित नेता और कांग्रेस अध्यक्ष ने दे दिए हैं।
हेगड़े पर बोलते हुए खड़गे ने जो कहा उसे पूरा सुनना चाहिए। उन्होंने कहा किअनंत हेगड़े ने "तानाशाही थोपने के मोदी-आरएसएस के कुटिल एजेंडे को उजागर कर दिया है।" वो आगे कहते हैं कि “मोदी सरकार, भाजपा और आरएसएस गुप्त रूप से तानाशाही थोपना चाहते हैं, जिससे वे अपनी मनुवादी मानसिकता थोपेंगे और एससी, एसटी और ओबीसी के अधिकार छीन लेंगे… कोई चुनाव नहीं होगा, या अधिक से अधिक, सिर्फ दिखावटी चुनाव होंगे, संस्थानों पर अंकुश लगाया जाएगा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला किया जाएगा और आरएसएस और भाजपा हमारे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने और ‘विविधता में एकता’ को नष्ट कर देंगे।” काँग्रेस अध्यक्ष ने स्पष्ट किया कि “न्याय, समानता और स्वतंत्रता संविधान के मजबूत स्तंभ हैं और कोई भी बदलाव डॉ बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा देखे गए भारत का अपमान होगा।”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में बाबासाहब अंबेडकर की बात करते हैं लेकिन क्या वो अंबेडकर के सिद्धांतों को मानते भी हैं? अगर मोदी सच में अंबेडकर को मानते हैं तो उन्हे ऐसे लोगों को पार्टी से बाहर निकाल देना चाहिए जो ‘पूरी तरह संविधान को स्वीकार नहीं कर पाए हैं! क्या मोदी जी ये कर पाएंगे? मोदी संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता हेगड़े पर ऐक्शन लेकर साबित कर सकते हैं क्योंकि उनका सामना उस राहुल गाँधी से है जो अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के समापन पर संविधान की प्रस्तावना का पाठ करना किसी हवन, भजन और पूजन से ज्यादा जरूरी समझते हैं।
मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, वो क्या करेंगे मैं नहीं बता सकती, लेकिन यह समझ सकती हूँ कि नागरिक के तौर पर भारतीयों को अब सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि चाहे CAA कानून हो या संविधान बदलने की योजना, हर तरह से भारतीय नागरिकों को लगातार कम नागरिक करते जाने की योजना है। आज तो आम चुनाव की घोषणा भी हो चुकी है, इस घोषणा को संविधान बचाने के उद्घोष के रूप में समझा जाना चाहिए और संविधान को सुरक्षित और संरक्षित करने के सभी लोकतान्त्रिक प्रयास किए जाने चाहिए।
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