1299 AD की बात है, सल्तनत काल का दौर था और दिल्ली की गद्दी पर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा (1296-1316) था। सुल्तान को जैसलमेर का किला चाहिए था, लेकिन मुश्किल यह थी कि यह किला बहुत ज्यादा मजबूत था और इसके पहले इस किले को नहीं भेदा जा सका था। उस समय जैसलमेर में भाटी शासक जैत सिंह-प्रथम का शासन था। खिलजी सुल्तान जानता था कि वह इस मजबूत किले में न ही सीधे अंदर घुस सकता था न ही इसे तोड़ सकता था। इसलिए सुल्तान ने इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। घेरा डालने का मतलब ही था कि जिस किले को शक्ति-बल से जीता नहीं सकता, उसे खाद्यान्न और संसाधनों की कमी से झुलसा दिया जाए। सुल्तान ने यही किया महीनों के घेरे के बाद भाटी राजा को लड़ने के लिए बाहर आना पड़ा और किला सुल्तान के कब्जे में आ गया। लगभग यही कहानी चित्तौड़ के किले में दोहराई गई (1303)। चित्तौड़ के किले की भी 6 महीने के लिए घेरेबंदी की गई, किले के अंदर खाना, पानी, दवाइयाँ सब जाने से रोक दिया गया। अंततः चित्तौड़ के राजा राणा रतन सिंह ने ‘आत्मसमर्पण’ कर दिया। मतलब खुद को सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सुपुर्द कर दिया।
निर्वाचन आयोग की ‘खामोशी’ इतिहास दर्ज कर रहा है
- विमर्श
- |
- |
- 29 Mar, 2025

लोकसभा चुनाव 2024 भारत की संवैधानिक संस्थाओं के गिरते रुतबे को इतिहास में दर्ज करेगा। चाहे वो चुनाव आयोग या फिर आयकर विभाग, इसलिए जाने जाएंगे कि जब भारतीय लोकतंत्र की साख दांव पर थी तो इनका रवैया क्या था। बात अब लोकतंत्र बचाने से भी आगे जा चुकी है। स्तंभकार और पत्रकार वंदिता मिश्रा ने खामोशी से इस इतिहास को अपने लेख में दर्ज कर रही हैं। जरूर पढ़िएः