प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने इन तर्कों के आधार पर इन प्रश्नों का जवाब देना चाहिए कि क्या यह मान लिया जाए कि मंगलुरु के एक पब में श्रीराम सेना के सदस्यों ने जब महिलाओं के साथ अभद्रता की थी तो क्या इस अभद्रता को भगवान श्रीराम से जोड़ देना चाहिए?या जब पहले से घोषणा करके वेलेंटाइन डे के मौके पर सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है तो उसे बजरंग बली से जोड़कर देखा जाना चाहिए? अपने घोषित उपद्रवी एजेंडे से भारत की सांस्कृतिक इबारत लिखने की कोशिश करने वाले संगठन को भगवान बजरंग बली से जोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक नहीं किया है। बजरंग बली एक नायक थे जिनके मन में महिला सम्मान कूट कूट कर भरा था जबकि बजरंग दल के अंदर नायकत्व का अभाव है।
यदि प्रधानमंत्री को बजरंग दल का बचाव करना ही था, तो उन्हे बजरंग बली को चुनावी मैदान में उतारने की क्या जरूरत थी। क्या पीएम मोदी जन मानस के विकास संबंधी मुद्दों से स्वयं को कटा हुआ महसूस कर रहे हैं? या उन्हे यह एहसास हो चुका है कि पिछले तमाम वादे जो चुनावी प्रचार के दौरान किए गए थे उनके पूरे न होने की वजह से कर्नाटक की जनता न सिर्फ कर्नाटक की बीजेपी सरकार को बल्कि स्वयं उन्हे (पीएम मोदी को) भी नकारने जा रही है? पीएम मोदी लगातार धर्म की पिच पर आकर बैटिंग कर रहे हैं, शायद उन्हे अब यह भरोसा हो गया है कि वर्तमान कर्नाटक की बीजेपी सरकार वहाँ के लोगों के भरोसे पर खरी नहीं उतरी है। वरना उन्हे यह कहने की जरूरत न पड़ती कि- जब पोलिंग बूथ में बटन दबाओ तो जय बजरंगबली बोल कर इन्हें (कांग्रेस को) सजा दे देना।
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चुनाव प्रचार में धर्म का गलत तरीक़े से इस्तेमाल, वोट देने के लिए लोगों को उनकी आस्था के आधार पर प्रेरित करना, रैलियों में धार्मिक नारे लगवाना यह सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी धर्म की राजनीति करते हैं बल्कि यह इस बात का ज्यादा द्योतक है कि उन्हे अपनी हार का डर इतना अधिक सता रहा है कि प्रधानमंत्री अपने सभी संवैधानिक दायित्वों को भूलकर मात्र धर्म और संप्रदाय आधारित चुनाव को बढ़ावा दे रहे हैं। इसके पीछे के कारणों को प्रतिष्ठित संस्था CSDS द्वारा करवाए गए कर्नाटक चुनावों के लिए सर्वे के परिणामों से समझा जा सकता है।
एनडीटीवी-CSDS के सर्वे के अनुसार, कर्नाटक में बेरोजगारी और गरीबी सबसे अहम मुद्दे हैं जिनको लेकर जनता में आम राय बन चुकी है। जहां सर्वे में 28% लोगों ने कहा है कि उनके लिए बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है साथ ही 25% लोगों के लिए गरीबी एक बड़ा मुद्दा है वहीं विकास की कमी(7%), मूल्य वृद्धि(7%) और शिक्षा(7%) भी कर्नाटक के लिए जरूरी मुद्देहैं। इसमें धर्म, लव जिहाद, धर्म परिवर्तन, हिजाब जैसे मुद्दों को लेकर जनता को कोई खास चिंता नजर नहीं आ रही है। भाजपा और पीएम मोदी के लिए जरूर चिंता की बात है कि 57% लोगों ने यह माना है कि कर्नाटक में भ्रष्टाचार बढ़ा है और यह वे लोग हैं जिनका किसी पार्टी से कोई संबंध नहीं है। सबसे बड़ी चिंता तो यह है कि भाजपा के 41% पारंपरिक समर्थक यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार बढ़ा है। इन तथ्यों से इस बात पर प्रकाश पड़ता है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक बजरंग बली के नारे अपनी रैलियों में क्यों लगवा रहे हैं।
बजरंग दल की अपनी कहानी है जिसे आर्काइव में जाकर अखबारों में पढ़ा जा सकता है।इसकी स्थापना 1984 में विश्व हिन्दू परिषद के एक अनुषंगी संगठन के तौर पर हुई थी। तब से लेकर आज तक यह लगातार विवादों में है। गोस्वामी तुलसीदास के बजरंग बली की सौम्यता के विपरीत इस दल पर हिंसक गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगता रहा है। UNHCR में 1 सितंबर 1999 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में, ह्यूमन राइट्स वाच के हवाले से कहा गया कि “मार्च 1998 में केंद्र में भाजपा का शासन शुरू होने के बाद से पूरे देश में ईसाइयों के खिलाफ हमले काफी बढ़ गए हैं...”। इस चिंता को तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा भी महसूस किया गया। जब तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने आरएसएस प्रमुख को लिखकर कहा कि “परिवार के संगठनों पर लगाम लगाएं” उनका इशारा आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद के अनुषंगी संगठनों की ओर था। यूपीए सरकार के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी यह कह चुके हैं कि अगर बजरंग दल ने अपनी गतिविधियों को यूं ही जारी रखा तो भाजपा बजरंग दल के खिलाफ संभावित प्रतिबंध पर प्रदर्शन नहीं करेगी। द ट्रिब्यून की ख़बर के अनुसार सीआईए ने जून 2018 में बजरंग दल को एक 'धार्मिक उग्रवादी संगठन' के रूप में चिन्हित किया है जिसका विरोध भी किया गया लेकिन इसकी जानकारी नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने इस बाबत क्या कदम उठाए?
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यह भी नहीं पता कि सीआईए द्वारा बजरंग दल को धार्मिक उग्रवादी संगठन बताए जाने पर बजरंग बली का अपमान हुआ या नहीं, यह भी नहीं पता है कि प्रधानमंत्री ने इस संबंध में वैसी ही प्रतिक्रिया दी थी कि नहीं जैसी कर्नाटक चुनाव के दौरान कांग्रेस के खिलाफ दे रहे हैं! वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान का सम्मान और अपमान एक चुनाव सापेक्ष घटना है। वर्ना एक आस्तिक और धर्मनिष्ठ व्यक्ति जैसे महात्मा गाँधी के लिए ईश्वर एक नितांत व्यक्तिगत चीज है जिसे रैलियों और भाषणों में नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
विख्यात संविधानविद सर आइवर जेनिंग्स के अनुसार, “प्रधानमंत्री उस सूर्य की भांति है जिसके चारों ओर ग्रह परिक्रमा करते हैं। वह संविधान का सूत्रधार होता है। संविधान के सभी मार्ग प्रधानमंत्री की ओर ले जाते हैं।” लेकिन भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री इस देश के डिसकोर्स को जहां ले जा रहे हैं वह असंवैधानिक राजनैतिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित कर रहा है। चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं अपने नियुक्तिकर्ता के खिलाफ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना चाहतीं।
जब एच आर ग्रीव्ज कहते हैं कि “सरकार देश की मालिक है और प्रधानमंत्री सरकार का मालिक है।” तो इसका आशय राजशाही के दौर का मालिक नहीं बल्कि संविधान से चलने वाले एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य के राजनीतिक प्रमुख से है। मनमानी का नाम लोकतंत्र नहीं है फिर चाहे ये मनमानी देश के प्रधानमंत्री द्वारा ही क्यों न की जा रही हो!
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