1 फरवरी, 2023 को अंग्रेजी अख़बार द इंडियन एक्सप्रेस में आरएसएस के विचारक राकेश सिन्हा का एक लेख ‘अ यात्रा, नाइदर हियर नॉर देयर’ छपा। राहुल गाँधी की ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पर आधारित इस लेख के शीर्षक का मोटे तौर पर हिन्दी में अर्थ है- “एक महत्वहीन और बेमतलब की यात्रा’। राकेश सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मोतीलाल नेहरू कॉलेज में प्रोफेसर हैं और वर्तमान में राज्यसभा सांसद हैं।
पूरा लेख भय, भ्रम और उन शब्दावलियों से भरा है जिनका प्रतिनिधित्व राकेश सिन्हा करते हैं। जैसे- कॉंग्रेस, मुख्यतया गाँधी परिवार की व्यक्तिगत आलोचना, मार्क्सवाद की आलोचना, संविधान की आलोचना, विऔपनिवेशीकरण के माध्यम से अंग्रेजी भाषा की आलोचना, इसके साथ हिन्दू होने का प्रमाणपत्र देने की प्रवृत्ति और आरएसएस, सावरकर, हिन्दुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे शब्दों से लेख की ‘यात्रा’ समाप्त हो जाती है जोकि वास्तव में ‘महत्वहीन और बेमतलब’ ही साबित होता है।
भले ही वह नेहरू, काँग्रेस और संविधान को कितना ही कम करके क्यों न आँकें लेकिन नेहरू और उनकी सोच ने देश को ऐसा संविधान दिया है जिसके कारण उन्हें एक लेखक होने के रूप में अपने विचार व्यक्त करने की पूरी आजादी है। परंतु जब वो संविधान प्रदत्त अपनी इस आजादी का उपयोग संविधान के ही खिलाफ करने लगते हैं तब यह जरूरी हो जाता है कि उन्हें वैचारिक रूप से टोका जाए। सांस्कृतिक उत्थान और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में गोता लगाते लगाते वह एक बिल्कुल अजीब और विरोधाभाषी दुनिया में बह जाते हैं। उन्होंने लिखा-
“‘हम कौन हैं?’ केवल संविधान के प्रति वफादारी की कसम खाने से इसका जवाब नहीं दिया जा सकता। एक राष्ट्र, एक संवैधानिक समाज से कहीं अधिक है।”
इसका जवाब बिल्कुल साफ़ है। मैं ऐसा मानती हूँ कि “हम कौन हैं” इसका उत्तर सिर्फ़ और सिर्फ़ संविधान के प्रति वफ़ादारी की कसम खाने से ही दिया जा सकता है। देश की 85% से अधिक आबादी पिछड़ों और दलितों की है। हजारों वर्षों से जिन दलितों के साथ अन्याय होता आया उसे संविधान ने ही समाप्त किया। अस्पृश्यता को समाप्त करने की ताकत और चाहत किसी सांस्कृतिक उत्थान के माध्यम से उस शिद्दत से नहीं रही जिस शिद्दत से मुसलमानों और ईसाइयों का विरोध हुआ। संविधान ने ही आगे बढ़कर अनुच्छेद-17 के माध्यम से सदियों से चली आ रही इस प्रथा को एक झटके में दंड योग्य और आपराधिक बना दिया। जिनकी छाया से घृणा की गई, जिनको छूना अपराध माना गया, जिन्हें वेद और शास्त्र पढ़ने की इजाजत तक नहीं दी गई, जिन्हें घोड़ी चढ़ने पर मार दिया गया, जिन्हें निर्वस्त्र करने पर शान समझी गई, सदियों तक चले अत्याचार के बावजूद कोई दैवीय अवतार भी ऐसा नहीं हुआ जो उन्हें इस दुर्गति और घृणा से बचा सकता था उनसे आखिर किसकी कसम खाने और किसके प्रति वफादारी निभाने की आशा कर रहे हैं सांसद महोदय?
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2006 में महाराष्ट्र के गाँव खैरलांजी के दलित परिवार की मुखिया सुरेखा भोतमाँगे और उनकी बेटी का सामूहिक बलात्कार किया गया और सुरेखा के दोनों बेटों की हत्या कर दी गई। इस मामले पर महाराष्ट्र सरकार के सामाजिक न्याय विभाग द्वारा बनाई गई रिपोर्ट में कुछ शीर्ष पुलिस अधिकारियों, डॉक्टरों के साथ-साथ महाराष्ट्र के एक भाजपा विधायक को लेकर कहा गया कि इन लोगों ने इस नृशंस बलात्कार और हत्याकांड की जांच में बाधा पहुंचाने का काम किया है। नेताओं, अधिकारियों और समाज पर छोड़ दिया जाता, सांस्कृतिक उत्थान की फिक्र की जाती तब तो सुरेखा को न्याय कभी न मिलता। सुरेखा को न्याय तब मिला जब संविधान द्वारा निर्मित बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने दोषियों को 25 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई। सुरेखा और ऐसे करोड़ों दलितों को किसके प्रति वफादारी की कसम खानी चाहिए?
यदि वर्तमान संविधान और उसका ‘मूल ढाँचा’ सुरक्षित रहता है और प्रत्येक भारतीय भगवान से पहले संविधान की कसम को महत्व देता है तो संविधान, संवैधानिक अधिकार और सम्पूर्ण भारत सुरक्षित, सशक्त और शोषण मुक्त बनाया जा सकेगा।
लेकिन शायद ऐसा होने से रोके जाने की तैयारी है। पहले राज्यसभा के सभापति, कानून मंत्री और अब राज्यसभा के ऐसे सांसद जो सत्ताधारी दल भाजपा, के सदस्य भी हैं वो संविधान को पीछे करके भारत को जानने, समझने वाले विचारों को पोषित कर रहे हैं। जबकि राकेश सिन्हा राज्यसभा सांसद हैं। पार्टी और विचार के पहले उनपर कानून बनाने की जिम्मेदारी है। देश के सभी कानून संविधान के दिशा निर्देश पर ही बनते हैं ऐसे में संविधान के प्रति यह भाव सांसद बने रहने की उनकी प्राथमिक योग्यता का नैतिक आधार पर खत्म कर देता है। यदि उनके जीवन में संविधान से पहले कुछ और है तो उन्हें तत्काल यह पद त्यागकर अपने उस काम में लग जाना चाहिए।
अब ऐसे में यदि लोग संविधान के पास नहीं जाएं तो उन्हें कहाँ जाना चाहिए?
जिस व्यक्ति को संत का दर्जा दिया, सभी धर्मों के लोगों ने सम्मान दिया, सबने ‘योग गुरु’ कहकर पुकारा और उनके द्वारा बनाई गई औषधियों का समर्थन और सेवन किया परंतु वह व्यक्ति अन्य धर्मों के खिलाफ विष वमन करने लगे, सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने लगे तब क्या करना चाहिए? किसकी वफादारी करनी चाहिए और किसकी कसम खानी चाहिए?
पतंजलि प्रमुख स्वामी रामदेव ने राजस्थान के बाड़मेर में दो दिन पहले एक सार्वजनिक सभा में एक मंच से जिस तरह की बातें कही हैं उनसे उन्हें किस धर्म का प्रतिनिधि मानना चाहिए? उन्होंने कहा- “मुसलमान सुबह की नमाज पढ़ते हैं। उसके बाद उनसे पूछो कि तुम्हारा धर्म क्या कहता है? बस पांच बार नमाज पढ़ो, उसके बाद मन में जो आए वो करो..हिंदुओं की लड़कियों को उठाओ और जो भी पाप करना है, वो करो।” रामदेव रुकने का नाम नहीं लेते बल्कि लगातार धर्म और एकता को चोट पहुंचाते हुए लगातार नीचे गिरते हैं और कहते हैं “मुस्लिम समाज के बहुत से लोग ऐसा करते हैं, लेकिन नमाज जरूर पढ़ते हैं। आतंकवादी और अपराधी बनकर खड़े हो जाते हैं, लेकिन नमाज जरूर पढ़ते हैं।....उनके स्वर्ग (जन्नत) का मतलब है कि टखने के ऊपर पायजामा पहनो, मूंछ कटवा लो और टोपी पहन लो...”
देश की एकता को तोड़ने की मंशा रखने वाले ऐसे संवाद की आलोचना तो होनी ही चाहिए, साथ यह भी चिंतन होना चाहिए कि आज हिन्दू धर्म किन लोगों के हाथों में है? कौन हैं जो इसे अपने तरीके से संचालित कर रहे हैं? भारत को तोड़ने की प्रवृत्ति वाले ऐसे लोगों से बचाव के लिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का आयोजन किया गया था। एक तरफ सवाल यह था कि भारत को दिलों से जोड़ दिया जाए लेकिन प्रो. सिन्हा को इन सबसे मतलब नहीं है वो सिर्फ “राहुल (गाँधी) के हिन्दू दावे का स्वागत” करते नजर आते हैं।
क्या यह पर्याप्त नहीं कि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक है, भारत के विकास में योगदान देना चाहता है, भारत के प्रति समर्पित है? देश के पहले, किसी धर्म को खड़ा करने की प्रवृत्ति बौद्धिक नहीं बल्कि आत्मघाती है। इससे बचना चाहिए था।
राहुल गाँधी अत्यंत सहज भाव से अपनी धार्मिक आस्था को अपने जीवन में व्यक्त करते हैं। वैसे भी वो जैसे चाहें अपनी आस्था व्यक्त कर सकते हैं, चाहें तो मंदिर जाएँ या न जाएँ, चाहें तो जनेऊ पहनें चाहें तो न पहनें, चाहें तो जनेऊ टी शर्ट के ऊपर पहने या नीचे, लेकिन जब तक वह किसी भी तरह के धार्मिक सामंजस्य को बढ़ावा देने का कार्य करते हैं और सांप्रदायिक ताकतों से लड़ते रहते हैं उनकी धार्मिक आस्था हर तरह से स्वीकार्य है और प्रशंसा योग्य भी।
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सिर्फ कोसने की प्रवृत्ति से उपनिवेशवाद का खात्मा नहीं होगा। अपने देश के राजनैतिक विपक्षियों की रचनात्मक आलोचना और संविधान जैसे सुसंगठित ढांचे को मजबूत करने से देश आगे बढ़ेगा और यदि किसी मार्च को आगे जाना चाहिए तो वह है सम्पूर्ण भारत के उत्थान का मार्च। कोई भी ऐसा मार्च जो एक धर्म, जाति, दल, संगठन या उद्योगपति द्वारा संचालित होगा वह भारत के स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं होगा।
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