सुब्रत रॉय सहारा की मौत की ख़बर के साथ ही मेरी आँखों के सामने स्कूल-कॉलेज के दिनों के वैसे दर्जनों चेहरे घूम गए, एक जो ज़्यादा से ज़्यादा बचत करके अपना भविष्य सँवारने और सपने पूरी करने की सोचते और दूसरे जो आधी-अधूरी पढ़ाई छोड़कर सहारा की एजेंटी करने में ख़ुद को झोंक दिया। दोनों तब इस अदम्य उत्साह से भरे होते कि बस कुछ ही दिनों की बात है, उनके अच्छे दिन आनेवाले ही हैं। तब अच्छे दिन का मतलब बहुमत की सरकार नहीं हुआ करती थी। सरकार और उनकी योजनाओं से इतर भी कोई बड़े सपने दिखा सकता है और एक बहुत बड़ी आबादी उससे प्रभावित हो सकती है, यह मैंने इन दोनों तरह के लोगों में देखा।