सुब्रत रॉय सहारा की मौत की ख़बर के साथ ही मेरी आँखों के सामने स्कूल-कॉलेज के दिनों के वैसे दर्जनों चेहरे घूम गए, एक जो ज़्यादा से ज़्यादा बचत करके अपना भविष्य सँवारने और सपने पूरी करने की सोचते और दूसरे जो आधी-अधूरी पढ़ाई छोड़कर सहारा की एजेंटी करने में ख़ुद को झोंक दिया। दोनों तब इस अदम्य उत्साह से भरे होते कि बस कुछ ही दिनों की बात है, उनके अच्छे दिन आनेवाले ही हैं। तब अच्छे दिन का मतलब बहुमत की सरकार नहीं हुआ करती थी। सरकार और उनकी योजनाओं से इतर भी कोई बड़े सपने दिखा सकता है और एक बहुत बड़ी आबादी उससे प्रभावित हो सकती है, यह मैंने इन दोनों तरह के लोगों में देखा।
'जब मेरे पड़ोसी सहारा की एजेंटी कर खुद के पैरों पर खड़े होने लगे थे'
- विविध
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- 15 Nov, 2023

सहारा कंपनी के मालिक सुब्रत रॉय सहारा का निधन हो गया है। जानिए, उनके निधन पर किस तरह की घटनाओं को याद करते हैं विनीत कुमार।
जो सहारा में पैसे जमा करके अपने सुंदर भविष्य के सपने देखते, उनकी थाली से घी, मौसम की आयी नई सब्जी और मिठाइयाँ उतरनी बंद हो गयीं। पेट काटकर पैसे बचाने जैसे मुहावरे का असल ज़िंदगी में उपयोग मैंने अपनी आँखों के सामने देखा। मोहल्ले-पड़ोस में यह बात सार्वजनिक तौर पर होने लगी कि असल में सहारा में पैसा जमा करता है न तो कहाँ से खाएगा-पिएगा। उस दौरान बचत ने लोगों पर नशे की तरह असर किया, दाँत से पैसे पकड़कर लोगों ने सहारा में जमा किया।