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पुतली बच्चों के लिए खेल भले हो, बच्चों का खेल नहीं है!

पुतलियां (जिनमें कठपुतलियां भी शामिल हैं) बचपन से ही हम सबसे जुड़ जाती हैं। बड़े भी अपने बच्चों के लिए पुतलियां बनाते हैं, बनवाते हैं और उनके शादी- ब्याह भी रचाते हैं। इस नज़रिए से देखें तो पुतलियाँ हर उम्र के लोगों को आकर्षित करती हैं। पुतली कला, जिसका अंग्रेजी नाम `पपेट आर्ट’ मध्य वर्ग में ज़्यादा प्रचलित है, एक लोकप्रिय प्रदर्शनकारी कला है। हालांकि कला विमर्श की दुनिया में इसकी चर्चा कम ही होती है जो कि दुखद है। आम धारणा है कि पुतली बच्चों के लिए खेल है। लेकिन ये भी सच है कि ये बच्चों के लिए खेल भले हो, बच्चों का खेल नहीं है। 

ये बात हो रही है इस बार के और इक्कीसवें `इशारा अंतरराष्ट्रीय पुतली रंगमंच समारोह’ ( इशारा इंटरनेशनल पपेट थिएटर फेस्टिवल) के सिलसिले में जो इक्कीस फ़रवरी से दो मार्च 2025 तक दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुआ (इसी का समानांतर समारोह चंडीगढ़ में भी आयोजित किया गया)। इस बार के समारोह के केंद्र में इटली था यानी वहाँ के पुतली कलाकार ज़्यादा आए थे। पर भारत सहित पोलेंड, रूस और  स्पेन के कलाकारों ने भी इसमें अपने यहां की पुतली कलाओं का प्रदर्शन किया।

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दुनिया में कई तरह की संस्कृतियाँ हैं। एक देश में भी कई संस्कृतियाँ होती हैं। इसी कड़ी को आगे बढ़ाएँ तो हर देश में कई प्रकार की पुतली कलाएँ होती हैं क्योंकि हर कलाकार अपनी-अपनी प्रतिभा, कल्पनाशीलता और साधना से पुतलियाँ बनाता है, उनके साथ खेलता और उनको खेलाता है। इस कला विधा की एक बड़ी खासियत ये है कि हर उम्र के लोग इसमें समान रूप से रस पाते हैं। सब पुतलियों के करतब देखते हुए एक साथ हँसते हैं, खिलखिलाते हैं और ताली बजाते हैं। पुतली वालों को पैसे भी देते हैं। क्यों? इसलिए कि मनुष्य भिन्न भिन्न देशों मे रहते हुए भी एक है। सबमें भावनाएँ एक समान होती हैं। इसलिए आप चाहे किसी भी देश की पुतली कला देखें, सब अपनी लगती हैं। यानी इटली, पोलेंड आदि देशों से आए पुतली खेल से जुड़ने में किसी भारतीय को मुश्किल नहीं होती। 

पुतली कला में भाषा भी माध्यम होती है, लेकिन भाषाहीन पुतली कला भी होती है। बिना एक शब्द उच्चरित किए भी पुतलियां अपने करतब दिखा सकती हैं और दर्शकों को दिल को छू सकती हैं, सबको रिझा सकती हैं। स्थानाभाव की वजह से इस समारोह में हुए सिर्फ एक पुतली खेल का उल्लेख किया जा रहा है, हालांकि हर देश से आई पुतली कला का खास अंदाज था।

यहाँ जिसकी चर्चा की जा रही है वो एक भारतीय पुतली खेल है जिसका नाम है `मंकी एंड द क्रोकोडाइल’। हिंदी में कहें तो `बंदर और मगरमच्छ’। ये भारत की एक प्रसिद्ध लोककथा (शायद हर देश की) है जिसमें एक बंदर होता है जो नदी के किनारे एक पेड़ पर रहता है। एक दिन उसकी दोस्ती एक मगरमच्छ से हो जाती है। बंदर मगरमच्छ को रोज मीठे-मीठे जामुन खिलाता है। मगरमच्छ न सिर्फ़ बंदर के दिए जामुन खाता है बल्कि अपनी पत्नी के लिए अपने घर भी ले जाता है। एक दिन पत्नी अपने पति से कहती है कि जामुन के स्वाद से लगता है बंदर का दिल भी स्वादिष्ट होगा इसलिए उसे खाने की इच्छा हो रही है। मगरमच्छ अपनी प्रिया को ना नहीं कह पाता। वो एक जाल बिछाता है और अपने दोस्त बंदर से जाकर कहता है कि आज उसकी पत्नी का जन्मदिन है इसलिए उसके यहां दावत पर चले। बंदर मगरमच्छ की पीठ पर सवार होकर निकल पड़ता है। बीच नदी में मगरमच्छ सच बता देता है। उसे लगता है कि अब बंदर कर भी क्या सकता है। पर बंदर भी चालाक है। वो अपने दोस्त से कहता है कि उसने अपना दिल तो पेड़ पर ही छोड़ दिया है इसलिए वापस चलो, लेकर आते हैं। मगरमच्छ थोड़ा बुद्धू है। वो बंदर की बात पर विश्वास कर लेता है और वापस पेड़ के पास लौट जाता है। फिर क्या, बंदर की जान बच जाती है क्योंकि वो पेड़ से नीचे फिर उतरता ही नहीं।
 monkey and the crocodile show ishara international puppet theatre festival - Satya Hindi

इसी कथा को निर्देशक मनीष राम सचदेवा में कुछ पुतलियों के माध्यम से बड़े ही मनोरंजक तरीके़े दिखाया है। इसमें बंदर के अलावा मगरमच्छ, मगरमच्छी, एक लोमड़ी की पुतलियाँ थीं और उनकी आवाज़ें थीं। पूरी कहानी को एक प्रभावशाली और रंगबिरंगी मंचसज्जा के साथ दिखाया गया। आखिर में गाने भी रखे गए।

इस तरह के पुतली खेल में कलाकारों की आवाज़ें बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं। एक प्रशिक्षित रंगकर्मी ही ये आवाज़ें निकाल सकता है। मगरमच्छ- बंदर वाले इस खेल में मनीष के कलाकार साथी- शम्सुल, बबिता रचोया, लकी भट्ट और विराज भी प्रशिक्षित रंगकर्मी हैं और पुतली को नियंत्रित करने के साथ-साथ दूसरे पक्ष भी संभालते हैं। मनीष इसे कई बार खेल चुके हैं। कई स्कूलों में भी इसे प्रदर्शित किया गया है।

दरअसल पुतली कलाकार बनने के लिए नाटक के अभिनेता की तुलना में ज़्यादा दक्षता और साधना होनी चाहिए।
पुतली संभालने वालों के दोनों हाथ कई दिशाओं में सक्रिय होते हैं, मुंह से कई तरह की आवाज़ें निकालनी होती हैं। साथ ही कोरियोग्राफी का भी अनुभव चाहिए क्योंकि नाचना भी पड़ सकता है। एकाग्रता इतनी अधिक होनी चाहिए कि एक लम्हे के सौवां हिस्से में ध्यान इधर से उधर हुआ कि खेल खराब। पुतली कलाकार को गाने का भी अभ्यास होना चाहिए। और पुतली निर्देशक को एक समन्वयक भी होना चाहिए ताकि खेल का हर पहलू एक दूसरे के साथ पिरोया लगे। मनीष खुद भी पुतलियों को संभालते हैं और साथ ही निर्देशन भी करते हैं। वैसे वे न्यूज चैनलों के लिए पुतली शो कर चुके हैं।
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वैसे पुतली कला हमारे यहां लोकप्रिय है पर सरकार की तरफ़ से भी और दूसरे संस्थानों की ओर से भी इसे आर्थिक समर्थन और मदद कम ही मिलती है। इशारा के शो को इंडिया हैबिटेट सेंटर से प्रायोजन मिलता है। फिर भी इसे जारी रखने में कई तरह की समस्याएँ आती हैं। इसलिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी और गैरसरकासी संस्थान इस कला को प्रोत्साहित करें तो इसका विस्तार होगा। भारत में पुतली कला का एक लंबा इतिहास रहा है। पेशेवर पुतली कलाकार भी रहे हैं। इसलिए ये पारंपरिक भी है पर इसमें नयापन भी बहुत आया है। पुतली को लेकर ज़्यादा से ज़्यादा कार्यशालएं हों तो अच्छे पुतली कलाकारों की संख्या भी बढ़ेगी।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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