मेरे प्रिय बापू,
आपके 71वें जन्मदिवस के खुशनुमा अवसर पर सादर शुभकामनाएँ। ऐसे समय में जब आपका पूरा ध्यान युद्ध और शांति के मसले पर केन्द्रित है, मैं इसमें खलल डालने के लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन, युद्ध हो या न हो, जीवन की अबाध धारा अपने विविध रूपों में बहती रहनी चाहिए। गोलाबारी के दरम्यान भी लोगों को प्यार करना और प्यार पाना चाहिए, दोस्त बनाने चाहिए और साथी खोजना चाहिए, हँसना और हँसाना चाहिए, मनोरंजन पाना और मनोरंजन करना चाहिए।
और, हमेशा की तरह, बच्चों को अपनी समस्याएँ और मुश्किलें लेकर अपने पिताओं की ओर दौड़ना चाहिए। हम, हिन्दुस्तान की संतानें, सांत्वना और सलाह के लिए आपके अलावा - जिन्हें हम पिता की तरह प्यार और सम्मान देते हैं - और कहाँ जायेंगे? आज मैं आपके सामने विचार और स्वीकृति के लिए एक नया खिलौना – सिनेमा - को रख रहा हूँ, जिसके साथ हमारी पीढ़ी ने खेलना सीखा है।
आपके हाल के दो बयानों को देखकर मुझे आश्चर्य और दुःख हुआ है, जिनमें आपने सिनेमा को थोड़ा हिकारत के भाव से देखा है (जैसा मुझे प्रतीत हुआ)।
इंडियन मोशन पिक्चर कांग्रेस के अवसर पर सन्देश के लिए एक बॉम्बे जर्नल की महिला संपादक के निवेदन के जवाब में आपने संक्षिप्त उत्तर दिया कि आपने कभी फ़िल्में नहीं देखी हैं। एक हाल के बयान में आपने सिनेमा को जुआ, सट्टा, घुड़-दौड़ आदि जैसी बुराइयों के साथ रखा है, जिससे आप ‘जाति-बहिष्कृत’ होने के डर से दूर रहते हैं।
ये बयान अगर किसी और ने दिए होते तो इनसे चिंतित होने की ज़रूरत नहीं थी। आख़िर अपनी-अपनी पसंद का मामला है। ख़ुद मेरे पिता फ़िल्में नहीं देखते और उन्हें पश्चिम से आयातित बुराई समझते हैं। मैं उनके इस विचार को न मानते हुए भी इसका सम्मान करता हूँ। लेकिन आपकी बात अलग है। इस देश में - मैं कह सकता हूँ, दुनिया में - जो आपका बड़ा मुकाम है, उसे देखते हुए आपके द्वारा थोड़ा कहा जाना भी करोड़ों लोगों के लिए बहुत अहमियत रखता है।
मुझे कोई संदेह नहीं है कि सिनेमा के बारे में रुढ़िवादी और दकियानूस लोगों की बड़ी संख्या के विचारों की आपके बयान से पुष्टि हुई होगी। वे कहेंगे कि सिनेमा बड़ी बुरी चीज है, तभी महात्मा से उसे स्वीकृति नहीं मिली। फलस्वरूप दुनिया के सबसे उपयोगी आविष्कारों में से एक को छोड़ दिया जाएगा या अनैतिक लोगों के द्वारा लांछन झेलने के लिए अकेले छोड़ दिया जायेगा (जो कि और बुरी स्थिति होगी)।
मुझे नहीं पता है कि सिनेमा के बारे में इतने बुरे विचार आपके कैसे बने? मुझे यह भी नहीं पता कि आपने कोई फ़िल्म देखने की कोशिश भी की या नहीं?
मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि एक राजनीतिक सभा से दूसरे सभा में जाने के दरम्यान आपकी नज़र कुछ बुरे फ़िल्मी पोस्टरों पर पड़ी होगी, जिन्होंने शहर की दीवारों को गंदा कर दिया है और आप इस नतीजे पर पहुँच गए होंगे कि फ़िल्में बुरी होती हैं और सिनेमा बुराई की रंगशाला भर है।
मैं यह साफ़ तौर पर स्वीकार करता हूँ कि बहुत-सी फ़िल्में नैतिक और कलात्मक दृष्टिकोण से बुरी हैं। उनके निर्माता पैसा कमाने के लिए आदमी की घटिया मनोवृतियों का दोहन करते हैं।
मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि आप और आपकी पीढ़ी के अधिकांश लोग उस खिलंदड़ रोमांस को पसंद नहीं करेंगे, जिसका आनंद हमारी पीढ़ी फ़िल्मों में लेती है। यहाँ मैं इस पर बात नहीं करना चाहता हूँ। कोई भी दो पीढ़ी सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर एकमत नहीं हुई हैं और न ही आगे होंगी। नैतिकता की अवधारणा समय-समय पर बदलती रहती है। पचास साल पहले एक औरत का किसी आदमी से बात करते देखा जाना अनैतिक था। आज यह सब बदल गया है।
सिनेमा एक कला है
विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण जीवन का बुनियादी तथ्य है। आदम और हव्वा के जमाने से आदमी और औरत एक-दूसरे से प्रेम करते रहे हैं। और, मेरा भरोसा करें, शारीरिक आकर्षण और आत्मिक प्रेम के बीच के सूक्ष्म अंतर को समझ पाना आम आदमी के बूते से बाहर है।
खैर, यहाँ मैं रोमांटिक फ़िल्मों का पक्ष नहीं ले रहा हूँ। मैं आपसे यह नहीं उम्मीद करता हूँ कि आप उन्हें देखें और स्वीकृति दें। मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ कि सिनेमा एक कला है, अभिव्यक्ति का एक माध्यम है, और इसीलिए कुछ (या अधिकांश) फ़िल्मों के आपत्तिजनक होने के कारण इसकी निंदा करना उचित नहीं है। आख़िरकार, किताबों की निंदा इसलिए नहीं की जा सकती कि उनमें पोर्नोग्राफी के ग्रंथ भी शामिल हैं।
वायरलेस के शानदार आविष्कार (जिसने हाल में हुए कांग्रेस वर्किंग कमेटी की ऐतिहासिक बैठक के बारे में पूरी ख़बर दुनिया को दी) को सिर्फ़ इसलिए निंदित नहीं किया जा सकता है कि ऑल इण्डिया रेडियो अक्सर प्यार और रोमांस के गाने प्रसारित करता रहता है। उसी रेडियो पर लोग भगवद गीता और पवित्र कुरआन के पाठ भी सुनते हैं।
आविष्कार बुरे नहीं...
हवाई जहाज़ जिसने दुनिया के यातायात में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया है और जिसके द्वारा अक्सर चिकित्सकीय मदद भेजी जाती है, उसे इस वजह से नहीं ख़त्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि हिटलर ने उनका इस्तेमाल निर्दोष लोगों पर बमबारी के लिए किया था। ये आविष्कार बुरे नहीं हैं, भले ही कुछ बुरे लोग इनका इस्तेमाल अपने अपने स्वार्थ के लिए कर लेते हैं। लेकिन बुरे लोगों ने धर्म और देशभक्ति जैसी उत्तम संस्थाओं का भी बेजा और स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल किया है! धर्म इसलिए बुरा नहीं हो जाता कि इसके नाम पर करोड़ों लोगों को मारा गया है और देशभक्ति अब भी एक सद्गुण है, भले ही युद्धोन्मादियों ने देशभक्ति के तथाकथित उद्देश्यों के नाम पर साम्राज्यवादी जंगें छेड़ी हैं।
फिर सिनेमा को क्यों बुरा कहा जाए जो ठीक से इस्तेमाल हो तो दुनिया के लिए बहुत लाभकारी हो सकता है?
यह एक आम धारणा है (और मुझे आशंका है कि आपको भी इसे मानने के लिए उलझा दिया गया है) कि सिनेमा सिर्फ़ सेक्स और प्रेम के विषयों पर ही बनते हैं। मुझे आश्चर्य नहीं है कि ऐसी धारणाएँ हैं,क्योंकि हाल तक यह सही बात थी और, हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में, यह अब भी काफ़ी हद तक सही है। लेकिन कुछ पंक्तियों में आपके सूचनार्थ सिनेमा द्वारा विदेशों में किये गए सामाजिक और शैक्षणिक कोशिशों के बारे में बताना चाहूँगा।
शिक्षा : अधिकतर पाश्चत्य देशों में विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि के बारे में किताबों और व्याख्यान के साथ फ़िल्मों के द्वारा शिक्षा दी जाती है।
समाचार : न्यूजरील के माध्यम से राजनीतिक और आम रुचि की महत्वपूर्ण घटनाओं को दृश्य-दस्तावेज़ के रूप में दर्शकों के सामने तुरंत पेश कर दिया जाता है।
सामान्य ज्ञान : मनोरंजक फ़िल्मों के साथ नियमित रूप से विज्ञान, महापुरुषों की जीवन-गाथा, यात्रा, घर की देख-भाल, स्वच्छता, पाक-कला आदि विविध विषयों पर बनी लघु फ़िल्में दिखाई जाती हैं।
अपराध-विरोधी : ‘क्राईम डज़ नॉट पे’ श्रृंखला जैसी फ़िल्मों के द्वारा अमेरिका में अपराधों पर काबू पाने में काफ़ी मदद मिली है।
राजनीतिक सूचना : ‘मार्च ऑव टाइम’ एक नई फ़िल्म-श्रृंखला है जिसमें दुनिया-भर के महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे- अमेरिकी विदेश नीति, जापान की समस्याएँ, नया तुर्की, मेक्सिको की वर्तमान स्थिति आदि, पर फ़िल्में दिखाई जा रही हैं।
हिन्दुस्तान में हाल में प्रदर्शित चीन और जापान के बारे में प्रेरणादायक वृत्तचित्रों का भी उल्लेख करना चाहूँगा।
अव्यावसायिक फ़िल्में, जिन्हें हम अतिरिक्त-मनोरंजन कह सकते हैं, भी बन रही हैं और उनकी माँग लगातार बढ़ रही है तथा सिनेमाघरों में ऐसी उपयोगी फ़िल्मों के लिए उचित जगह बन रही है।
लेकिन मनोरंजक फ़िल्मों में भी सामाजिक तौर पर उपयोगी और नैतिक-स्तर बढ़ने वाले तत्वों की मात्रा बढ़ रही है। मैं कुछ पश्चिमी और भारतीय फ़िल्मों की सूची दे रहा हूँ जो कठोरतम नैतिक मानदंडों के लिहाज से भी अद्वितीय हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि यदि आप उन्हें देखेंगे तो उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकेंगे।
मैं यह भी कहना चाहूँगा कि इनमें से हर फ़िल्म काफ़ी लोकप्रिय हुई है और दुनिया भर में लाखों सिने-दर्शकों ने उन्हें देखा है।
लाइफ़ ऑव लूई पास्चर : रैबीज का इलाज ढूंढने वाले महान वैज्ञानिक और मानवतावादी की कहानी (अमेरिकी)
लाइफ़ ऑव एमिली जोला : फ्रांसीसी लेखक और न्याय के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता की प्रेरणादायक कहानी। (अमेरिकी)
ब्वायज टाउन : एक पुजारी द्वारा आवारा बच्चों को सुधारने की कोशिश की कहानी। (अमेरिकी)
लॉस्ट होराइज़न : दुनिया की मुश्किलों के एकमात्र हल के रूप में शांति और अहिंसा की ज़रूरत पर बल (इसने सबको आपकी सीखों की याद दिलाई और शायद यह उन्हीं से प्रभावित है!)। (अमेरिकी)
हुआरेज : मैक्सिको के महान योद्धा की कहानी जिसने अपने देश को विदेशियों से आज़ाद कराया। (अमेरिकी)
संत तुकाराम : महाराष्ट्र के संत-कवि की जीवन-गाथा का सुन्दर चित्रण। (भारतीय)
संत तुलसीदास : हिंदुस्तान की राष्ट्रीय भाषा में रामायण का सन्देश देने वाले महान कवि के जीवन वर आधारित। (भारतीय)
सीता : राम और सीता की कहानी पर बनी बड़ी फ़िल्म। (भारतीय)
विद्यापति : महान कवि और राम-भक्त की सुन्दर कहानी। (भारतीय)
जन्मभूमि और धरती माता : ग्रामीण भारत के जीवन और उसकी समस्याओं को चित्रित करती सराहनीय फ़िल्म। (भारतीय)
आदमी : एक पतिता द्वारा स्वयं के उद्धार की शानदार कहानी जिसमें सामाजिक मुद्दे भी हैं। (भारतीय)
और क्या आप जानते हैं, महात्मा जी, कुछ देशभक्त आपके प्रेरणादायक जीवन पर फ़िल्म बनाने की कोशिश में लगे हैं।
आप शायद भरोसा न करें, लेकिन आपके नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन ने हिन्दुस्तानी सिनेमा को स्वच्छ बनाने और पुनर्जागृत करने में परोक्ष रूप से बहुत योगदान दिया है। हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान को हमें वापस देकर आपने शानदार सांस्कृतिक लहर पैदा की है और राष्ट्रीय कला को नवजीवन दिया है जिसका स्वाभाविक प्रतिबिम्ब बेहतर और सामाजिक रूप से अधिक उपयोगी फ़िल्मों में दिखता है।
इसीलिए मैं समझता हूँ कि सिनेमा में आपको ‘देश का नेतृत्व करने वाला’ दिखाना कोई अक्षम्य धृष्टता नहीं है।
ऐसी फ़िल्में बनाना इसलिए संभव हो सका है कि थोड़े लेकिन ईमानदार और सामाजिक रूप से सचेत लोग फ़िल्मों में रुचि लेने लगे हैं। दस साल पहले ऐसी फ़िल्में नहीं बनती थीं क्योंकि शिक्षित और ‘सम्माननीय’ लोग सिनेमा को बुरी और घृणास्पद चीज समझकर हिकारत की दृष्टि से देखते थे।
आज ये पूर्वाग्रह बदल रहे हैं। हिन्दुस्तानी फ़िल्मों की ‘मार्जन’ की प्रक्रिया ईमानदार और ज़िम्मेदार लोगों के आने की गति के समानुपातिक होगा जो यहाँ वर्षों से काबिज मूर्ख मुनाफाखोरों की जगह लेंगे।
हम चाहते हैं कि भले लोग इस उद्योग में अधिक रुचि लें, ताकि यह तमाशा की जगह सामाजिक भलाई का औजार बन सके। लेकिन आप और आप जैसे अन्य महान लोग सिनेमा को जुआखोरी और शराबखोरी जैसी बुराइयों के साथ रखते रहेंगे तो अच्छे लोग हतोत्साहित होंगे और इससे दूर रहेंगे।
बापू, आप एक महान आत्मा हैं। आपके हृदय में पूर्वाग्रहों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे इस छोटे-से खिलौने, सिनेमा, पर, जो इतना अनुपयोगी नहीं है जितना दिखता है, थोड़ा ध्यान दें और उदारतापूर्ण मुस्कान के साथ इसे अपना आशीर्वाद दें।
आदर और प्रेम सहित आपका,
ख्वाजा अहमद अब्बास
फ़िल्म इण्डिया, अक्टूबर, 1939
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