मज़दूर आंदोलन ने भले ही 19वीं और 20वीं सदी में यूरोप और दुनिया के कई महाद्वीपों में सत्ता परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया हो लेकिन हमारे देश में यह आंदोलन मज़दूरों के वेतन, कार्य का समय, कार्य के घंटे, सुरक्षा और कल्याण के दायरों तक ही सिमट कर रहा है। ऐसा नहीं है कि देश की आज़ादी या राजनीतिक बदलाव के दौर में मज़दूर आंदोलन नहीं खड़े हुए लेकिन वे भुला दिए गए।
ऐसा ही आंदोलन जुलाई 1908 के दौरान मुंबई में हुआ था। इस आंदोलन को देश का पहला राजनीतिक मज़दूर आंदोलन कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। बंगाल में ब्रिटिश सत्ता के आतंक पर ‘केसरी’ नामक समाचारपत्र में कुछ लेख लिखने के कारण अंग्रेज़ों ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और उन्हें 6 साल के लिए देश निकाला दे दिया। जब 24 जून, 1908 को मुम्बई में तिलक की गिरफ़्तारी हुई तो न सिर्फ़ मुम्बई में बल्कि सोलापुर, नागपुर समेत पूरे देश में जनता सड़कों पर उमड़ पड़ी थी। लेकिन इस संघर्ष में मुम्बई के मज़दूर सबसे आगे थे।
मज़दूरों द्वारा किया गया यह संघर्ष एक व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी औपनिवेशिक व्यवस्था के अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष का प्रतीक है। मज़दूर अपनी आर्थिक माँगों के लिए नहीं, बल्कि ब्रितानी सरकार के दमन के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। यह आंदोलन यह बताता है कि मज़दूर वर्ग ने औपनिवेशिक ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल उसी समय बजा दिया था, जब देश के पूँजीपति वर्ग और कुछ नेता ख़ुद को अंग्रेज़ हुक़ूमत का वफ़ादार प्रजा बताते हुए सरकार से कुछ रियायतें माँग रहे थे।
इस आंदोलन में मज़दूरों पर बल प्रयोग के लिए अंग्रेज़ी सत्ता देसी पुलिस का प्रयोग करने से अंत तक बचती रही थी। जब 13 जुलाई से तिलक पर मुक़दमा चलना शुरू हुआ तो उसी दिन अदालत के सामने जनता की सेना से हिंसक झड़प हुई थी। उस दिन अंग्रेज़ों की सेना के हथियारबंद दस्तों ने रास्तों को इस तरह से घेर रखा था कि मज़दूर अपने कारख़ानों से निकलकर अदालत तक न पहुँच सकें।
इसके बावजूद कपड़ा मिल के मज़दूरों ने हड़ताल करके जुलूस निकाला। 14, 15 और 16 जुलाई को भी ऐसा ही हुआ। मज़दूर जुलूस निकालते और सेना उन्हें आगे बढ़ने से रोकती और भीड़ जूलूस को तोड़ने का प्रयास करती।
17 जुलाई को मज़दूरों के आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया। दोपहर बाद लक्ष्मीराम, ग्लोब, क्रिमेंट, जमशेद, नारायण, करीमभाई, मोहम्मदभाई, ब्रिटानिया, फ़ीनिक्स, ग्रीव्सकाटन इत्यादि कपड़ा मिलों के मज़दूर हड़ताल करके बाहर निकल आए। क़रीब 20,000 मज़दूरों ने औद्योगिक इलाक़े में जुलूस निकाला और सभी मज़दूरों से कारख़ानों से बाहर निकलकर आने का अनुरोध किया। 18 जुलाई को भी यही किया गया किन्तु इस दिन सेना द्वारा मज़दूरों पर गोली चलाई गई। 19 जुलाई को मुम्बई के माहिम और परेल इलाक़े के 60 कारख़ानों और रेलवे वर्कशॉप के क़रीब 65,000 मज़दूर हड़ताल कर बाहर आ गये। 20 जुलाई को मज़दूरों पर फिर से गोलियाँ चलायी गयीं। 21 जुलाई के दिन संघर्ष ने और भी विराट रूप धारण कर लिया।
संग्राम में औद्योगिक मज़दूरों के साथ गोदी मज़दूर, दुकान मज़दूर, दुकानदार, और छोटे-मोटे व्यापारी भी शामिल हो गये। 22 जुलाई को 5 हड़ताली मज़दूरों को गिरफ़्तार करके उन्हें कठोर सज़ाएँ दी गयीं ताकि दूसरे इससे डर सकें। साथ ही यह दिन तिलक पर मुक़दमे की सुनवाई का आख़िरी दिन भी था। उन्हें 6 साल के कठोर कारावास, 1000 रुपए के जुर्माने समेत देश-निकाले की सज़ा दी गई। मज़दूरों ने इस सज़ा के ख़िलाफ़ 6 दिन की हड़ताल करने निर्णय लिया।
23 जुलाई को क़रीब एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में हिस्सेदारी की। मुंबई की आम जनता भी मज़दूरों के साथ आ खड़ी हुई। 24 जुलाई को संघर्षरत जनता की लड़ाई सेना के हथियारबंद दस्तों के साथ फिर से शुरू हो गयी। गोलियों का जवाब ईंटों और पत्थरों से दिया गया। बहुत से मज़दूर आम जनता के साथ शहीद हुए। इसी बीच पुलिस कमिश्नर ने मिल मालिकों से हड़ताल का विरोध करने के लिए कहा। मालिकों ने फ़ैसला किया कि ‘उद्योग की भलाई’ के लिए मज़दूरों को हड़ताल बंद कर देनी चाहिए। मिल मालिक एसोसिएशन के अध्यक्ष हरिलाल भाई विश्राम ने मिल मालिकों को सलाह दी - ‘आप मज़दूरों को काम पर वापस जाने के लिए दबाव डालिए।’ परन्तु मज़दूरों ने अपने संघर्ष को जारी रखा।
इस संघर्ष में क़रीब 200 मज़दूरों और आम लोगों ने अपनी शहादत दी और बहुत से घायल हुए। लेकिन यह आंदोलन तिलक के ‘केसरी’ समाचार पत्र की फ़ाइलों और इतिहास के दस्तावेज़ों तक में ही सिमट कर रह गया है।
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