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यूं ही नहीं दरकता कोई ग्लेशियर!

ग्लेशियर हो या इंसान, रिश्ते हों या चट्टान, यूं  ही नहीं दरकता कोई। किसी पर इतना दवाब हो जाए कि वह तनाव में आ जाए अथवा उसका पारा इतना गर्म हो जाए कि उसकी नसें इसे झेल न पाएँ, तो वह टूटेगा ही। किसी के नीचे की ज़मीन खिसक जाए, तो भी वह टूट ही जाता है। चमोली में यही हुआ है।

वर्षों पहले जोशीमठ की पहाड़ियों के भूगर्भ में सोए हुए पानी के स्रोत के साथ भी यही हुआ था। पनबिजली परियोजना सुरंग निर्माण के लिए किए जा रहे बारूदी विस्फोटों ने उसे जगा दिया था। धीरे-धीरे रिसकर जोशीमठ को पानी पिलाने वाला भूगर्भीय हुआ स्रोत अचानक बह निकला था। जोशीमठ में पेयजल का संकट हो गया था। जिस परियोजना ने कुदरत को छेड़ा, कुदरत ने उस तपोवन-विष्णु गाड परियोजना को तबाह कर दिया।

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चेतावनी

प्रकृति चेताती ही है। तपोवन-विष्णगाड परियोजना को लेकर माटू संगठन ने लगातार चेताया। ग्लेशियरों को लेकर रवि चोपड़ा कमेटी रिपोर्ट ने 2014 में ही चेताया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित नई कमेटी ने चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना को लेकर भी चेताया है।

हिमालयी नीति अभियान के पैरोकार समूह ने सांसदों को पत्र लिखकर 2017 में चेताया। गंगा की पाँच प्रमुख धाराओं की संवेदनशीलता को लेकर स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप सानंद जी (पूर्व नाम - प्रो. गुरुदत्त अग्रवाल) ने प्रधानमंत्री महोदय को पत्र लिखकर चेताया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने उनकी सुनना तो दूर, पत्र प्राप्ति की सूचना तक देने से परहेज रखा। किसी के नहीं सुनने की दशा में उस ज्ञानी स्वामी ने पानी का ही त्याग कर दिया और वर्ष 2018 में अपने प्राण गँवाए। पहाड़ के प्रख्यात भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. खड्ग सिंह वाल्दिया, समूचे हिमालय को लेकर 1985 से ही चेताते रहे। वर्ष 2020 में हमने उस सचेतक को भी खो दिया।

'....बोल व्यापारी! फिर क्या होगा?'

कुमाऊँ के दिवंगत गीतकार गिरीशचन्द्र तिवाड़ी 'गिरदा' ने आपदा से कई साल पहले आपदा और आपदा के दोषियों को इंगित करने हुए यह गीत लिखा था। दुर्योग से हमने ऐसे गीत-बातों पर तालियाँ तो खूब बजाईं, लेकिन इनमे निहित दूरदृष्टि को पढने से चूक गये। उत्तराखण्ड को तरक्क़ी का नया पहाड़ बनाने की रौ में बहते ज़माने को क्या कोई गिरदा की दृष्टि दिखायेगा? इस देश में राजनीतिज्ञों का सुनना और निदान के लिए संकल्पित होना इसलिए भी ज़रूरी है कि भारत में नीतिगत फ़ैसले हमेशा राजनीतिक नफ़ा-नुकसान के तराजू पर ही तौले जाते हैं।

'जब नाश मनुज पर छाता है'

यह दुर्योग ही है कि इंसान से लेकर कु्दरत की तमाम चेतावनियों की लगातार अनदेखी कर रहे हैं। हम आज भी आपदा आने पर जागने और फिर अगली आपदा तक नीमबेहोशी की आदत के शिकार हैं। न चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना को लेकर चेत रहे हैं और न गंगा एक्सप्रेस-वे व गंगा जल परिवहन जैसी परियोजनाओं को लेकर। 

हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं। उत्तराखण्ड को सामने रख दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं। उत्तराखण्ड की पर्वत श्रृंखलाओं के तीन स्तर हैं: शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमालय और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय। इन तीन स्तरों मे सबसे अधिक संवेदनशील है, ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी।

 galcier in himalaya bursts due to construction at chamoli and tapovan-vishnugad2 - Satya Hindi

इस संवेदनशीलता की वजह है, इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें। उत्तराखण्ड में  दरारें त्रिस्तरीय हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर बढती 2,000 किमी लंबी, कई किलोमीटर गहरी, संकरी और झुकी हुई। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी - ये सभी इलाके दरारयुक्त हैं। भागीरथी के ऊपर लोहारी-नाग-पाला तक का क्षेत्र दरारों से भरा है। दरार क्षेत्र में करीब 50 किमी चौड़ी पट्टी भूकम्प का केन्द्र है। बजांग, धारचुला, कफकोट, पेजम आदि कई इलाके भूकम्प का मुख्य केन्द्र हैं।

भूकम्प का ख़तरा

भूकम्प का ख़तरा इसलिए भी ज़्यादा है कि शेष भू-भाग हिमालय को पाँच सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की रफ़्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है। इसका मतलब कि हिमालय चलायमान है। हिमालय में हमेशा हलचल होती रहती है। भूखण्ड सरकने की वजह से दरारों की गहराई में मौजूद ग्रेनाइट की चट्टानें रगड़ती-पिसती-चकनाचूर होती रहती हैं। ताप निकल जाने से जम जाती है। फिर जरा सी बारिश से उघड़ जाती हैं। उघड़कर निकला मलवा नीचे गिरकर शंकु के आकार में इकठ्ठा हो जाता है। वनस्पति जमकर उसे रोके ज़रूर रखती है, लेकिन उसे मजबूत समझने की ग़लती ठीक नहीं।

यहाँ भूस्खलन का होते रहना स्वाभाविक घटना है। किंतु इसकी परवाह किए बगैर किए निर्माण को स्वाभाविक कहना नासमझी कहलायेगी। यह बात समझ लेनी ज़रूरी है कि मलवे या सड़कों में यदि पानी रिसेगा, तो विभीषिका सुनिश्चित है। हम याद रखें कि हिमालय, बच्चा पहाड़ है, यानी कच्चा पहाड़ है। वह बढ रहा है; इसलिए हिल रहा है; इसीलिए झड़ रहा है। इसे और छेड़ेंगे; यह और झड़ेगा... और विनाश होगा।

कई गलतियाँ 

हमने हिमालयी इलाकों में आधुनिक निर्माण करते वक़्त कई गलतियाँ कीं। ध्यान से देखें तो हमें पहाड़ियों पर कई 'टैरेस' दिखाई देंगे। 'टैरेस' यानी खड़ी पहाड़ी के बीच-बीच में छोटी-छोटी सपाट जगह। स्थानीय बोली में इन्हे 'बगड़' कहते हैं। 'बगड़' नदी द्वारा लाई उपजाऊ मिट्टी से बनते हैं। यह उपजाऊ मलवे के ढेर जैसे होते हैं। पानी रिसने पर बैठ सकते हैं। हमारे पूर्वजों  ने बगड़ पर कभी निर्माण नहीं किया था। वे इनका उपयोग खेती के लिए करते थे। हम बगड़ पर होटल-मकान बना रहे हैं।

हमने नहीं सोचा कि नदी नीचे है; रास्ता नीचे; फिर भी हमारे पूर्वजों ने मकान ऊँचाई पर क्यों बसाये? वह भी उचित चट्टान देखकर। वह सारा गाँव एक साथ भी तो बसा सकते थे। नहीं! चट्टान जितनी इजाज़त देती थी, उन्होंने उतने मकान एक साथ बनाये; बाकी अगली सुरक्षित चट्टान पर। हमारे पूर्वज बुद्धिमान थे। उन्होंने नदी किनारे कभी मकान नहीं बनाये। सिर्फ पगडंडिया बनाईं।

विकास से विनाश?

हम मूर्ख हैं। हमने क्या किया? नदी के किनारे-किनारे सड़कें बनाई। हमने नदी के मध्य बाँध बनाये। मलवा नदी किनारे फैलाया। 

हमने नदी के रास्ते और दरारों पर निर्माण किए। बाँस-लकड़ी की जगह पक्की कंक्रीट छत और मकान, वह भी बहुमंजिली। तीर्थयात्रा को पिकनिक समझ लिया है।

पगडंडियाँ बनीं राजमार्ग

एक कंपनी ने तो भगवान केदारनाथ की तीर्थस्थली पर बनाये अपने होटल का नाम ही 'हनीमून' रख दिया है। सत्यानाश! यह ग़लत है, तो नतीजा भी ग़लत ही होगा। प्रकृति को दोष क्यों?

उन्होंने वाहनों को 20-25 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से अधिक गति में नहीं चलाया। हमने धड़धड़ाती वोल्वो बस और जेसीबी जैसी मशीनों के लिए पहाड़ के रास्ते खोल दिए। पगडंडियों को राजमार्ग बनाने की ग़लती कर रहे हैं। चारधाम ऑल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ी सड़कों को चौड़ा करना एक ऐसी ही विनाशक गलती साबित होगी। अब पहाङों में और ऊपर रेल ले जाने का सपना देख रहे हैं।

क्या होगा? पूर्वजों ने चौड़े पत्ते वाले बाँझ, बुराँस और देवदार लगाये। 'चिपको' ने चेताया। एक तरफ से देखते जाइये! इमारती लकड़ी के लालच में हमारे वन विभाग ने चीड़ ही चीड़ लगाया। चीड़ ज्यादा पानी पीने और एसिड छोड़ने वाला पेङ है। हमने न जंगल लगाते वक़्त हिमालय की संवेदना समझी और न सड़क, होटल, बाँध बनाते वक़्त। अब तो समझें।

वैश्विक तापमान में वृद्धि

समझें कि पहले पूरे लघु हिमालय क्षेत्र में एकसमान बारिश होती थी। अब वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण अनावृष्टि और अतिवृष्टि का दुष्चक्र चल रहा है। यह और चलेगा। अब कहीं भी यह होगा। कम समय में कम क्षे़त्रफल में अधिक वर्षा होगी ही। इसे ’बादल फटना’ कहना ग़लत संज्ञा देना है। जब ग्रेट हिमालय में ऐसा होगा, तो ग्लेशियर के सरकने का खतरा बढ जायेगा। हमे पहले से चेतना है।

कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखण्ड और उत्तर-पूर्व में विनाश इसलिए नहीं हुआ कि आसमान से कोई आपदा बरसी; विनाश इसलिए हुआ कि हमने आर्द्र हिमालय में निर्माण के ख़तरे की हकीक़त और इजाज़त को याद नहीं रखा।

निर्माण की शर्त

दरारों से दूर रहना, हिमालयी निर्माण की पहली शर्त है। जलनिकासी मार्गों की सुदृढ व्यवस्था को दूसरी शर्त मानना चाहिए। हमें चाहिए कि मिटटी-पत्थर की संरचना और धरती के पेट को समझकर निर्माण स्थल का चयन करें। जलनिकासी के मार्ग  में  निर्माण नहीं करें। नदियों को रोकें नहीं, बहने दें। जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसी दरारें हैं लेकिन सड़क मार्ग का चयन और निर्माण की उनकी तकनीक ऐसी है कि सड़कों के भीतर पानी रिसने-पैठने की गुंजाइश नगण्य है। इसीलिए सड़कें बारिश में भी स्थिर रहती हैं। हम भी ऐसा करें।

पिकनिक स्पॉट नहीं है हिमालय

हिमालय को भीड़ और शीशे की चमक पसंद नहीं। वहाँ जाकर मॉल बनाने का सपना न पालें। हिमालय को पर्यटन या पिकनिक स्पॉट न समझें। इसकी सबसे ऊँची चोटी पर अपनी पताका फहराकर, हिमालय को जीत लेने का घमंड पालना भी ठीक नहीं। हिमालयी लोकास्था, अभी भी हिमालय को एक तीर्थ ही मानती है। हम भी यही मानें। तीर्थ, आस्था का विषय है। वह तीर्थयात्री से आस्था, त्याग, संयम और समर्पण की मांग करती है। हम इसकी पालना करें। बड़ी वोल्वो में नहीं, छोटे से छोटे वाहन में जायें। पैदल तीर्थ करें, तो सर्वश्रेष्ठ। आस्था का आदेश यही है। 

 galcier in himalaya bursts due to construction at chamoli and tapovan-vishnugad2 - Satya Hindi

हम खुद चेतें कि एक तेज हॉर्न से हिमालयी पहाड़ के कंकड़ सरक आते हैं। 25 किलोमीटर प्रति घंटा से अधिक रफ़्तार से चलने पर हिमालय को तकलीफ होती है। अपने वाहन की रफ़्तार और हॉर्न की आवाज न्यूनतम रखें। हिमालय को गंदगी पसंद नहीं। अपने साथ न्यूनतम सामान ले जायें और अधिकतम कचरा वापस लायें।

फर्क पड़ता है!

आप यह कहकर नकार सकते हैं कि हिमालय की चिंता, हिमवासी करें, मैं क्यों करूं? इससे मेरी सेहत, कैरियर, पैकेज, परिवार अथवा तरक्क़ी पर क्या फर्क पङता है? फर्क पड़ता है।

भारत के 18 राज्य, हिमालयी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र का हिस्सा हैं। भारत की 64 प्रतिशत खेती, हिमालयी नदियों से सिंचित होती है। हिमालयी जल स्रोत न हो, भारत की आधी आबादी के समक्ष पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाये।

'उत्तर में रखवाली करता'

हिमालय को 'उत्तर में रखवाली करता पर्वतराज विराट' यूं ही नहीं कहा गया, हिमालय, भारतीय पारिस्थितिकी का मॅनीटर हैं। इसका मतलब है कि हिमालय और इसकी पारिस्थितिकी, भारत की मौसमी गर्माहट, शीत, नमी, वर्षा, जलप्रवाह और वायुवेग को नियंत्रित व संचालित करने में बड़ी भूमिका निभाता है।

हिमालय हमारे रोज़गार, व्यापार, मौसम, खेती, ऊद्योग और सेहत से लेकर जीडीपी तक को प्रभावित करता है। इसका मतलब है कि हम ऐसी गतिविधियों को अनुमाति न दें, जिनसे हिमालय की सेहत पर ग़लत फर्क पड़े और फिर हम पर।

हिमालयवासी अपने लिए एक अलग विकास नीति और मंत्रालय की माँग कर रहे हैं। ज़रूरी है कि मैदान भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलायें। हिमवासी, हिमालय की सुरक्षा की गारंटी लें और मैदानवासी, हिमवासियों के जीवन की ज़रूरतों की। अन्य प्रदेश, अपने राजस्व का एक अंश हिमालयी सुरक्षा की गारण्टी देने वाले प्रदेशों को प्रदान करें। 

हम भी याद रखें कि ग्रेट हिमालय को संस्कृत भाषा में 'हिमाद्रि' यानी आद्र हिमालय क्यों कहते है? हरिद्वार को 'हरि के द्वार' और उत्तराखण्ड को देवभूमि क्यों कहा गया? पूरे हिमक्षेत्र को 'शैवक्षेत्र' घोषित करने के क्या मायने हैं? शिव द्वारा गंगा को अपने केशों में बाँधकर मात्र एक धारा को धरती पर भेजने का क्या मतलब है? कंकर-कंकर में शंकर का विज्ञान क्या है? क्या याद रखेंगे?

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अरुण तिवारी
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