गांधी बनाम गोडसे यानी हिंदू बनाम धर्मान्ध हिंदू। जरा सोचिए, गोडसे भी हिंदू था और गांधी भी हिंदू थे; पक्का सनातनी हिंदू; रामराज्य का सपना लेने वाला हिंदू; एक ऐसा हिंदू, मृत्यु पूर्व जिसकी जिहृा पर अंतिम शब्द 'राम' ही था; बावजूद इसके नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को हिंदूवाद की राह में रोड़ा माना और हत्या की।
क्यों?
क्योंकि गांधी का हिंदूवाद सिर्फ़ किसी एक व्यक्ति, जाति, संप्रदाय, वर्ग या राष्ट्र विशेष से नहीं, बल्कि 'विश्व का कल्याण हो' और 'प्राणियों में सद्भावना रहे' के ऐसे दो नारे से परिभाषित होता था, पूजा-पाठ के बाद जिनका उद्घोष कराना हिंदू पुजारी आज भी कभी नहीं भूलते। गोडसे का राष्ट्रवाद, ऐसा कट्टर और संकीर्ण हिंदूवाद था, जिसमें मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं थी; जबकि गांधी के हिंदू होने का अर्थ, मुसलमानों से घृणा करना नहीं था। जो अपनी जड़ों को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे, गांधी उन मुसलमानों को भारत से खदेड़े जाने के पक्ष में नहीं थे।
दरअसल, गांधी के हिंदू होने का अर्थ था, सर्वधर्म समभाव में विश्वास। गांधी के 'रामराज्य' का मतलब था, एक ऐसा राज्य, जिसमें राजकुमार राम को भीलनी के जूठे बेर खाने में आनंद की अनुभूति हो। ’गांधी जी का जंतर’ याद कीजिए। स्पष्ट होता है कि समाज के सबसे कमज़ोर यानी अंतिम जन का कल्याण ही प्रत्येक निर्णय, योजना व कार्यों का सर्वमान्य पैमाना गांधी जी के 'रामराज्य' की आधारशिला थी। दुःखद है कि आज का हिंदू कट्टरवाद राम का मंदिर तो बनाना चाहता है, लेकिन राजा राम के आदर्शों को आगे रखकर अपने कर्मकाण्ड का आकलन करना नहीं चाहता।
गांधी-गोडसे के इस दुःखद प्रसंग को सामने रखकर यह भी समझा जा सकता है कि भारत के कुछ कट्टरपंथी संगठन, यदा-कदा भारत को जिस हिंदू राष्ट्र को बनाने का सपना दिखाते रहते हैं, वह कैसा होगा।
इसका अनुमान आप कुछ कायरों द्वारा बुलन्दशहर में गोवंश अवशेषों की आड़ में की गई एक पुलिस इन्सपेक्टर सुबोध की हत्या से भी लगा सकते हैं।
कहा गया कि इन्सपेक्टर सुबोध की हत्या इसलिए की गई, चूँकि वह अखलाक मामले की निष्पक्ष जाँच कर रहे थे। क्या हम उसे महज एक दुर्घटना कहकर मुँह फेर सकते हैं अथवा विचार करने की ज़रूरत है कि हम कैसा भारत बनाने की ओर बढ़ रहे हैं? क्या आज हम एक ऐसा भारत नहीं है, जिसके युवा एक ओर तो आधुनिकतम सूचना प्रौद्योगिकी के कपाट खोलकर उसमें पूरी दुनिया को अपने से जोड़ लेने को बेताब है, दूसरी तरफ़ कुछेक खुदगर्जों की तंगदिली का आलम यह है कि वे ग़ैर मजहबी की मुख़ालफ़त के जुनून में अपने मजहब के अनुयायी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहते?
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ऐसी हिंदू कट्टरता के जातीय कनेक्शन और धुव्रीकरण के अनुभवों के आईने में आज देखें तो कभी पटेल आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, मराठा आरक्षण, सांई प्रकरण, और कभी मुसलिम कौम को आतंकी ठहराने अथवा कभी कश्मीर में पाकिस्तान समर्थक नारों को हवा देते रहने का मक़सद अंततः हिंदू वोटों का धुव्रीकरण ही है। यह बात और है कि कालांतर में ये सभी हवायें मिलकर इंदिरा गांधी की तरह, खुद खोदी खाई में गिरने का एक कारण बन जाने वाली हैं।
ऐसा न हो, इसलिए ज़रूरी है कि हम अगड़े-पिछड़े के भेद से बाहर निकलें। इसके बगैर, हिंदू कट्टरता से निजात फ़िलहाल नामुमकिन लगती है। इस चुनाव के दौरान कट्टरता पर ओवैसी-योगी की जुगलबंदी और कट्टर हिंदूवादी योगी जी द्वारा हनुमान जी को दलित बताने पर भीम सेना प्रमुख द्वारा दलितों से यह आह्वान करना कि वे सभी हनुमान मंदिरों पर क़ब्ज़ा कर लें; इन प्रकरणों के संदेश क्या हैं? जरा सोचिए।
हालाँकि यह सच है कि विकास की सीढ़ी चढ़कर भारत को दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़त बना देने को बेताब युवा वर्ग, कट्टरता से निजात पाना चाहता है; हिंदू-मुसलिम जैसी मजहबी कट्टरता से भी और जातीय कट्टरता से भी। किंतु आज अगड़ी व अनारक्षित कही जाने वाली जातियों में न सिर्फ़ राजनैतिक अस्तित्व को लेकर जिस कदर बेचैनी है; वे जातीय सम्मान, रोज़गार गारंटी और आर्थिक सुरक्षा को लेकर भी जिस असुरक्षा के भाव से गुजर रही हैं; आरक्षण ने पिछड़े, दलित और आरक्षण प्राप्त अल्पसंख्यकों को जिस तरह एकजुट कर दिया है; लगता नहीं कि कट्टरता से निजात मिलेगी। स्पष्ट है कि विकास और जाति के साथ धर्म की राजनीति के काॅकटेल का प्रयोग अभी जारी रहने वाला है।
ऐसे हालात में क्या हमें कश्मीर के हालिया पंचायत चुनाव में एक मुसलिम बहुल गाँव द्वारा एक हिंदू को प्रधान बना दिए जाने के सद्भाव से सबक़ लेने की ज़रूरत नहीं है?
क्या हम भूल जाएँ कि अयोध्या के मंदिरों में फूल बेचने वाली ज़्यादातर मालिने मुसलमान हैं और खड़ाऊं बनाने वाले कारीगर भी? हम कैसे भूल सकते हैं कि अजमेर शरीफ की दरगाह में मन्नत मांगने हिंदू भी जाते हैं और मुसलमान भी।
याद कीजिए, गाँव: बिसाहड़ा, ज़िला: गौतमबुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश।
एक पखवाड़ा पहले गोमांस की आड़ में 50 वर्षीय मोहम्मद अखलाक की पीट-पीट कर हत्या। एक पखवाड़ा बाद ग्रामवासियों द्वारा बुलंद नारा और व्यवहार: ‘रोटी भी एक, बेटी भी एक’। गांव से बाहर जाकर बेटी की शादी के आयोजन पर विचार कर रहे हकीम मियां को गांव वालों ने रोका। पूर्ण सुरक्षा और अमन का भरोसा दिया।
11 अक्तूबर, 2017: बालिका दिवस। दिल्ली से 60 किलोमीटर दूर गांव बिसाहड़ा में बेटी के लिए साझी दुआ निकली; हाथ जुटे; शहनाई बजी; खानपान हुआ और साथ ही फिर प्रमाणित हुआ एक सत्य। घटनाक्रम, दो: सच, एक! गांव के एक हिंदू बूढे़ ने टीवी रिपोर्टर से कहा - ''75 साल की उम्र होगी मेरी। हम में कभी फर्क न हुआ। मुसलमान और हम तो एक संगी रये; दुख में, सुख में। जो कोई फर्क होगो, तो तुम मीडिया वारेन या नेतान को होगो; हम तो जैसे पैले थे, वैसे ई अब है और रहिंगे।''
यह बयान, सिर्फ़ बिसाहड़ा का सत्य नहीं है; यह भारत के आम हिंदू और मुसलमान का सच है। यह सच है उस सांस्कृतिक नींव का, जिस पर गाँव बने और बसे: ’सह-जीवन और सह-अस्तित्व’; यानी साथ रहना है और एक-दूसरे का अस्तित्व मिटाये बगैर। यह सच इस बात का भी प्रमाण है कि आमजन के लिए धर्म, आस्था का विषय है, धार्मिक-राजतांत्रिक सत्ता के लिए वर्चस्व का, मीडिया के लिए रेटिंग व पूर्वाग्रह का और वर्तमान भारतीय नेताओं के लिए वोट की बंदरबांट का।
इस सच को सामने रखकर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जीवन संकट में हो तो हम बचाने वाले की न जात पूछते हैं और न मजहब। आज चंद खुदगर्जों के कारण भारत की भारतीयता का अस्तित्व संकट में है। मेरा मानना है कि ’वसुधैव कुटुंबकम्’ के नारे में बसने वाली भारतीयता को बचाने की दृष्टि से भी और नया भारत बनाने की दृष्टि से भी, हमें न कभी कबीर को भूलना चाहिए और न उस निर्मल रघुबीर को; मर्यादा की पालना के कारण ही जिसे पुरुषों में उत्तम कहा गया। नये भारत की चादर जितनी निराकार, निर्विकार, निर्मल और निश्छल हो, उतनी बेहतर। क्या यह उचित नहीं होगा?
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