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योगी जी, जवाब दो - लिस्टेड अपराधियों में विकास दुबे का नाम क्यों नहीं था?

न विकास दुबे पुलिस नरसंहार को भुलाया जा सकता है और न उनकी पृष्ठभूमि में जाने-अनजाने में की गयी कानपुर पुलिस की नादानियों को। आने वाले समय में शासन को इस बात का जवाब भी देना होगा ही कि क्यों विकास दुबे के उस मकान को ज़मींदोज़ कर दिया गया जिसमें राज्य के एक प्रमुख सचिव के नाम से रजिस्टर्ड कार खड़ी थी और जहाँ अनगिनत हथियार और दूसरे सबूत मौजूद थे।
अनिल शुक्ल

ढोल-तांसे बजा-बजा कर गुज़रे 3 सालों में बनाया गया लॉ एंड ऑर्डर की 'यूएसपी' का गुब्बारा इतनी बुरी तरह फुस्स हो जायेगा, यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कभी इसकी कल्पना नहीं की होगी। कानपुर में हुए 8 पुलिसकर्मियों के नरसंहार ने पूरे प्रदेश की जनता के बीच विपक्ष के इस 'नैरेटिव' की प्राण प्रतिष्ठा करा दी है- ‘यूपी में जंगल राज है।' विकास दुबे और उसके गैंग का कृत्य सिर्फ़ एक अपराधी द्वारा अपराध की नियत से पुलिस पर किये गए हमले की हिंसक कार्रवाई मात्र नहीं है, बल्कि इसे राजनेताओं, पेशेवर अपराधियों और नौकरशाही के ‘पवित्र’ गठजोड़ की घृणित संघटना के रूप में देखा जाना चाहिए। यूपी में निकटवर्ती दशकों में इसका तेज़ी से प्रसार हुआ है। हाल के सालों में यह जम कर पुष्प-पल्लवित हुई है।

​यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह कहते हैं ‘यहाँ हालात राजनीति के अपराधीकरण से ऊपर उठकर अपराध के राजनीतिकरण के बन चुके हैं। यह बड़ा विकट और गंभीर पेंच है और जिसकी जड़ें अभी और गहरे जाने वाली हैं।’ उधर प्रदेश के ही पूर्व एडिशनल डीजीपी बृजेन्द्र सिंह का कहना है ‘यह कास्ट, कम्युनलिज़्म, करप्शन, कॉरपोरेट और पॉलिटिक्स का पाशविक गठबंधन है जिसके नतीजे निरपराध पुलिस वालों की जान देकर पूरे हुए हैं लेकिन ये अभी जल्दी टूटने वाला नहीं।’

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​राजनेताओं और अपराधियों के बीच फैले गठजोड़ की जाँच के लिए कैबिनेट के फ़ैसले के बाद भारत सरकार के तत्कालीन गृह सचिव एन एन बोहरा के नेतृत्व में एक उच्च अधिकार प्राप्त 'एनएन वोहरा जाँच कमेटी’ का गठन सन 1993 में हुआ था। मुंबई बम धमाकों के तुरंत बाद बनी इस 5 सदस्यीय समिति के अन्य सदस्यों में सचिव राजस्व, निदेशक इंटेलिजेंस ब्यूरो, निदेशक सीबीआई सदस्य थे। संयुक्त सचिव (गृह मंत्रालय) इसके मेंबर सेक्रेटरी थे। बाद में एक प्रस्ताव पारित करके विशेष सचिव, गृह (आतंरिक सुरक्षा और पुलिस) को भी इस कमेटी में जोड़ा गया था। मज़ेदार बात यह है कि कमेटी प्रमुख वोहरा को बहुत से मुद्दों पर सदस्यों के विचार लिखित में (अलग से) लेने पड़े थे क्योंकि उनमें से कई सदस्यों को इस बात का संदेह था कि उनकी बात 'सार्वजानिक' कर दी जाएगी। कुछ सदस्य इस बात पर ही यक़ीन करने को तैयार नहीं थे कि सरकार की मंशा सचमुच 'सच' को जानने की है(!) कमेटी की जाँच की कार्यकाल अवधि 3 महीने की थी जो उन्होंने लगभग समय पर पूरी कर दी थी।

​लेकिन आज 27 साल गुज़र जाने के बावजूद कमेटी की वास्तविक सिफ़ारिशें और उसके 'एनेक्सचर' (परिशिष्ट) का पता न संसद के हाथ लगा, न चाहकर भी सर्वोच्च न्यायालय उनकी पूरी पड़ताल कर सका। अवकाश प्राप्त मुख्य सूचना आयुक्त भी आरटीआई के ज़रिये इसका संज्ञान पाने में कामयाब न हो सके। 1997 में एक याचिका के चलते सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को अवश्य 'सार्वजानिक किये जाने' के अनुरोध के साथ दिखाया था। कोर्ट ने इसे 'विस्फोटक' क़रार दिया था। 2017 में जब शरद पवार को पद्म अलंकार देने की बात उठी थी तब उन पर संदेह करते हुए फिर सर्वोच्च न्यायलय में याचिका दायर करके इस रिपोर्ट के 100 पेजों के ‘संग्लग्न परिशिष्ठों’ को सार्वजनिक किये जाने का अनुरोध किया था और तब कोर्ट में सरकार ने इनके ‘गुम’ हो जाने की बात कहकर किसी तरह पल्ला छुड़ाया था।

'राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो' यानी एनसीआरबी द्वारा जनवरी 2020 में जारी उसकी अंतिम रिपोर्ट में बताया गया है कि बलात्कार के मामलों में विगत वर्ष (2018) में देश में टॉप करने वाला सूबा यूपी था। प्रदेश में प्रतिदिन 11 बलात्कार के रिपोर्ट होने का आकलन है यानी हर 2 घंटे में एक बलात्कार।

दूरदराज़ शहरों की बात छोड़ दें, महिलाओं पर होने वाले अपराधों के मामलों में लखनऊ सबसे ऊपर है। इस रिपोर्ट में बच्चों के विरुद्ध हर (90 मिनट पर होने वाले) अपराध संकलित हैं। इसी प्रकार हत्या, लूट, अपहरण, बलवा आदि के आँकड़ों में भी कहीं से गिरावट नहीं है। पिछले वर्ष (2017) की तुलना में कुल अपराधों में 1. 3% की वृद्धि हुई है। यद्यपि 2019 के आँकड़े अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं लेकिन 'ब्यूरो टीम' के सूत्रों का अनुमान है कि यह प्रतिशत और भी बढ़ेगा।

आज़ादी के बाद जाति वर्चस्व की जैसी उठापटक यूपी में देखने को मिलती है, कहीं नहीं दिखती। आज़ादी के 73 वर्षों में लगभग आधे समय यदि सवर्ण यहाँ की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका में रहे हैं तो शेष आधे वक़्त में पिछड़ों और दलितों ने अपना रंग दिखाया है। जातिगत समूहों की यह संरचना एक ओर यदि राजनेताओं तक जाती है तो दूसरे छोर पर इसके तार अपराध की दुनिया से जुड़े होते हैं।

अपराध और राजनीति

आज़ादी के शुरुआती 2-3 दशकों में अपराधियों को नेताओं की होने वाली दरकार का अंश बड़ा होता था। वे अपनी आपराधिक गतिविधियों और अपने रियल एस्टेट या अन्य व्यवसायों में बड़े पैमाने पर राजनीतिज्ञों से मदद लेते थे। बदले में वे इन राजनीतिज्ञों का छोटा-मोटा काला धन व्यापार में चलाकर सफ़ेद करते थे, वक़्त-बेवक़्त और यदा-कदा उनके वोट बैंक की सुरक्षा भी करते थे। अब स्थितियाँ इसके बिल्कुल उलट हो गई हैं। राजनेताओं को अपराधियों की हर वक़्त ज़रूरत बनी रहती है। उनकी तमाम भूमि, मकान आदि की बेनामी डील, उनकी मेंटेनेंस, उनके वोट बैंक की सुरक्षा और उनके धर्म या जातिगत विरोधियों से निबटने को यह अपराधी हर समय तैयार रहता है। बदले में राजनेता उन्हें पुलिस अभिरक्षा से और उसके भोजन आदि की ज़िम्मेदारी की गारंटी भी लेता है।

​इसका परिणाम यह हुआ कि बाहुबलियों का राजनीतिकरण होता चला गया। 

राजनीतिक दलों ने भी यह सोच लिया कि बजाय इसके कि वे अपने लिए ऐसे जनप्रतिनिधियों की तलाश करें जो चुनाव जीतने के लिए अपराधियों की खोज में जुटता हो, क्यों न चुनाव में सीधे अपराधियों को ही अपना प्रत्याशी बना कर उतारा जाए ताकि चुनाव जीतना सुगम और सुनिश्चित हो सके।

यूपी में अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध तक की कांग्रेस अपनी 'चाल' में अपराध जगत की गिनी-चुनी गोटियाँ ही फेंकती थी लेकिन 80 के दशक के उत्तरार्द्ध से बिछने वाली सपा, बीजेपी, बीएसपी की बिसातों पर प्यादे से लेकर वज़ीर तक का खुला खेल फर्रुखाबादी होने लग गया। प्रदेश का लोकतांत्रिक इतिहास मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, मायावती, राजनाथ सिंह, रामप्रकाश गुप्त और अखिलेश यादव के इस 'अमिट' योगदान को कभी नहीं भुला सकता है!

​'एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स' (एडीआर) का अध्ययन बताता है कि 2019 के लोक सभा चुनावों में चुने गए 43% प्रत्याशियों का आपराधिक रिकॉर्ड है। विजयी भाव में रोमन का 'v' दिखाकर संसद के द्वार में प्रविष्ट होने वाले 'माननीयों' में 30% के विरुद्ध बलात्कार, अपहरण, हत्या, हत्या की कोशिश जैसे गंभीर अपराधों में मुक़दमे चल रहे हैं। इनमें सबसे बड़ी तादाद यूपी से आने वाले प्रत्याशियों की है।

लंबे समय से चलने वाली न्यायिक थुक्का-फ़ज़ीहत पर विराम लगाने की कोशिश करते हुए आख़िरकार सर्वोच्च न्यायालय ने विगत फ़रवरी में सभी राजनीतिक दलों को आदेश दिया कि वे चुनाव से पहले अपने प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड का पूरा विवरण अपनी वेबसाइट, समाचार-पत्रों और सोशल मीडिया के माध्यम से प्रकाशित करें। न्यायलय ने यह भी कहा कि दलों को समाचार-पत्रों व सूचना माध्यमों में छपी रिपोर्टों का हवाला देते हुए प्रत्याशियों के चयन की घोषणा के 48 घंटे के भीतर उन्हें इस बात का स्पष्टीकरण भी देना होगा कि क्यों उन्होंने ऐसे प्रत्याशियों को चुना जिनका आपराधिक इतिहास है।

कोर्ट की सख़्ती 

कोर्ट ने सख़्ती का रुख़ अख़्तियार करते हुए कहा कि राजनीतिक दलों पर इन सब बातों पर अमल की सूचना 72 घंटे के भीतर 'चुनाव आयोग' को देनी होगी। ऐसा न करना 'न्यायालय की अवमानना' माना जायेगा और इसके लिए पार्टी अध्यक्ष प्रत्यक्षतः ज़िम्मेवार होंगे। यद्यपि इस क्षेत्र में काम करने वाले कई 'सिविल सोसायटी' समूहों ने कोर्ट के फ़ैसले पर ज़्यादा ख़ुशी न ज़ाहिर करते हुए कहा कि क़ायदे से कोर्ट को ऐसे प्रत्याशियों के चयन पर पूर्णरूपेण रोक लगानी चाहिए थी।

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योगी की 'ज़ीरो टॉलरेंस थ्योरी' 

​मुख्यमंत्री पद पर क़ाबिज़ होते ही योगी आदित्यनाथ ने अपराध की बाबत 'ज़ीरो टॉलरेंस थ्योरी' का नारा गुंजाया था। उन्होंने ‘ख़ूंख़्वार अपराधियों’ के विरुद्ध ताबड़तोड़ एनकाउंटर की घोषणा कर डाली। एनकाउंटर का सिलसिला चल भी निकला, हालाँकि मेरठ में एक गूर्जर समुदाय से जुड़े 'अपराधी' के मारे जाने की घटना को बीजेपी के भीतर-खानों में जब बड़ी 'राजनीतिक भूल' घोषित किया गया तब अपनी लोकतांत्रिक नासमझी के चलते फ़र्ज़ी एनकाउंटर का ताली बजाकर स्वागत करने वाली जनता जनार्दन की समझ में आया कि यहाँ भी राजनीतिक गोटियाँ ही चली जा रही हैं।

विकास दुबे पर कार्रवाई

राज्य सरकार ने 'भूमाफिया पोर्टल' पर बड़ी संख्या में कथित माफियाओं के नाम डाले। इनमें से अनेक के विरुद्ध संपत्ति ज़ब्ती की कार्रवाई भी की गई। यद्यपि विपक्षी दलों ने इसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ठिकाने लगाने का अभियान क़रार दिया जिसमें ‘चुन- चुन कर मुसलामानों, दलितों एवं पिछड़ा वर्ग के लोगों को ही रखा गया है।’ विपक्ष की बातों में लोगों को इसलिए दम दिखा क्योंकि इनमें प्रदेश भर में फैले सैकड़ों छोटे-बड़े माफियाओं का कहीं नाम नहीं था जिनके पास हज़ारों एकड़ ज़मीन की मिल्कियत है। कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे का उदाहरण ही काफ़ी है जिसके पास 250 बीघा नामी ज़मीन है (बेनामी की तो बात ही दरकिनार है) और योगी जी के भूमाफिया पोर्टल में दूर-दूर तक इसका नाम नहीं था। 

अपराध से निबटने के मुख्यमंत्री के दावों की पोल बहुत जल्दी खुलनी शुरू हो गयी। कानपुर की इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद गत सोमवार को प्रदेश पुलिस द्वारा जारी 'लिस्टेड अपराधियों' की सूची में पहली बार विकास दुबे का नाम पाया गया है।

अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी प्रकाश सिंह 'पुलिस कार्यप्रणाली में सुधारों' की अपनी कोशिशों पर अमल करवाने की कार्रवाइयाँ करते-करते ‘थक’ गए हैं। उनका कहना है कि ‘न केंद्र सरकार गंभीर है, न राज्य सरकारें। पुलिस की बात कोई सुनना नहीं चाहता। हर राजनीतिक दल पुलिस को अपना चमचा बनाकर रखना चाहता है, मुश्किल सारी यहाँ से शुरू होती है।’

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डीएसपी की चिट्ठी पर कार्रवाई क्यों नहीं?

मुठभेड़ में घायल पुलिस डीएसपी देवेंद्र मिश्र की हत्या के लिए शरीर के एक-एक अंग को जिस नृशंस तरीक़े से काटा-पीटी करके 'बदला' लिया गया है, वह बताता है कि उक्त अधिकारी द्वारा उसके विरुद्ध की जा रही पल-पल की कार्रवाई की जानकारी उसको थी और वह अपनी इस दरिंदगी से पुलिसकर्मियों को भविष्य की किसी भी कार्रवाई के प्रति सचेत करना चाहता था। घटना में दिवंगत डीएसपी देवेंद्र मिश्र ने 14 मार्च को एसएसपी कानपुर को भेजे विभागीय पत्र में विकास दुबे की गंभीर आपराधिक गतिविधियों और थानाध्यक्ष चौबेपुर द्वारा उसके प्रति सहानुभूति रवैया अपनाने का पहला शिकायती विभागीय पत्र 14 मार्च को भेजा। उन्होंने इसके बाद फॉलोआप के रूप में कई पत्र भेजे लेकिन इन पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। ऐसा माना जाता है कि विकास के पीछे मज़बूत राजनीतिक संरक्षण था और एसएसपी कुछ कर नहीं पा रहे थे।

एसएसपी ही नहीं, आईजी कानपुर रेंज मोहित अग्रवाल से बीती सोमवार जब पत्रकारों ने उक्त चिट्ठी की बाबत सवाल पूछा कि क्यों नहीं अभी तक एसएसपी के विरुद्ध लापरवाही बरतने और थानेदार के विरुद्ध षड्यंत्र की धारा 120 बी के तहत कार्रवाई हो रही है, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का गोलमोल जवाब था कि ‘पूरी फ़ाइल मँगवाई गयी है और उसे देखकर ही आगे की कार्रवाई होगी।’

बीते 3 सालों में योगी जी की पुलिस हर सामान्य सी कार्रवाई को भी 'अभियान' का जामा पहना देने में प्रसिद्धि हासिल कर चुकी है। 

लोग सोच रहे थे कि ऐसे समय में जबकि प्रदेश कोरोना महामारी और आर्थिक संकटग्रस्तता के भँवर में बुरी तरह से डूब-उतरा रहा है, तब अचानक राज्य पुलिस को एनकाउंटरों का 'अभियान' छेड़ देने की कहाँ से सूझी?

वस्तुतः इसका श्रेय राज्य के नए एडीजी (क़ानून और व्यवस्था) प्रशांत कुमार को जाता है। गत वर्ष हेलीकॉप्टर में बैठकर काँवड़ियों पर फूलों की वर्षा करके प्रसिद्धि पाने वाले वाले कुमार जितना अपनी मूँछों के लिए मशहूर हैं, उससे ज़्यादा फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के लिए। जून में अपना पद सँभालते ही उन्होंने पूरी प्रदेश पुलिस को अपने चिर-परिचित 'एनकाउंटर वेंचर' से ‘चार्ज’ किया और इसी जोशो-ख़रोशी में कानपुर का वह डीएसपी बिना पर्याप्त 'इंटेलिजेंस फीडबैक' और मुक़म्मल तैयारी के उस गैंग पर हमला करने निकल पड़ा जिसके पास अपने 'दुश्मनों' का पूरा कच्चा चिट्ठा था और वह तो जैसे ख़ूनी गलीचा बिछा कर 'स्वागत' को तैयार बैठा ही था। 

विकास दुबे का आख़िर बुखबिर कौन था, नीचे वीडियो में देखिए आशुतोष का विश्लेषण।

न विकास दुबे पुलिस नरसंहार को भुलाया जा सकता है और न उनकी पृष्ठभूमि में जाने-अनजाने में की गयी कानपुर पुलिस की नादानियों को। अपराधियों के विरुद्ध राज्य शासन की पूर्वाग्रहग्रस्तता को तो हरगिज़ नहीं भुलाया जाना चाहिए। आने वाले समय में शासन को इस बात का जवाब भी देना होगा ही कि क्यों विकास दुबे के उस मकान को ज़मींदोज़ कर दिया गया जिसमें राज्य के एक प्रमुख सचिव के नाम से रजिस्टर्ड कार खड़ी थी और जहाँ अनगिनत हथियार और दूसरे सबूत मौजूद थे।
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