विकास दुबे मारा गया। सुबह 7 बजे के आसपास कानपुर में रवानगी के दौरान बीच रास्ते इस तरह पुलिस की गाड़ी को पलटना ही था! गाड़ी पलटने के बाद उसे इस तरह पुलिस वालों से हथियार लेकर भागना ही था! और सबसे अंत में चेतावनी देने के बावजूद न रुकने पर उसे एनकाउंटर में मार गिराया जाना ही था!
उज्जैन में हुई गिरफ़्तारी के फ़ौरन बाद ही लखनऊ स्थित एसटीएफ़ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 'सत्य हिंदी' से बातचीत में कहा था ‘उसे आने दीजिये। हम जान लें कि इन 5 दिनों में उसके क्या-क्या हाइड आउट्स रहे, कौन-कौन उसे शील्ड कर रहा था। फिर उसकी साँसों की हमें कोई ज़रूरत नहीं।’ इसी बातचीत के आधार पर हमने कल ख़बर प्रकाशित की थी कि विकास दुबे कानपुर की जेल तक नहीं पहुँच पायेगा।
विकास की मौत के बाद प्रदेश की पुलिस अपनी पीठ ठोंक सकती है, बेशक उसके क़ातिल हाथों से शहीद कानपुर पुलिसकर्मियों के घरवाले अपने दुखते-रिसते ज़ख्मों पर मरहम लगने का अहसास कर सकते हैं, अपराधियों के ‘फ़र्ज़ी’ एनकाउंटरों पर तालियाँ बजाने वाले फिर से तालियाँ बजा सकते हैं। अब तक उसे सहयोग उपलब्ध करवाने वाले पुलिस अधिकारी और राजनेता राहत महसूस कर सकते हैं और निःसंदेह राज्य की योगी सरकार ध्वस्त हो चुके अपने 'लॉ एंड ऑर्डर' के 'यूएसपी' के गुब्बारे में फिर से हवा भरने लग सकती है।
विकास दुबे मारा गया। उसके गैंग के 3 अन्य गुर्गे भी अभी तक इसी तरह के कथित 'एनकाउंटरों' की भेंट चढ़ चुके हैं। उम्मीद है, आगे और भी एक-एक करके पकड़ में आते जायेंगे, निबटाये जाएँगे। लेकिन क्या इससे प्रदेश में अपराध की गंगा अपना बहना बंद कर देगी? उन राजनीतिज्ञों को क़ानून कब ठिकाने लगाएगा, जो विकासों को पैदा करने, उन्हें पुष्प पल्लवित करने के ज़िम्मेवार हैं? वे प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी कब सींखचों के पार पहुँचेंगे जिन्होंने हर शहर को कानपुर में तब्दील किया है और हर महत्वाकांक्षी नौजवान को विकास दुबे के रूप में जन्म दिया है।
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