'सुप्रीम कोर्ट में फ़र्ज़ी एनकाउंटरों की जाँच की माँग को लेकर गुज़रे सप्ताह जिस गति से ताबड़तोड़ 'पीआईएल' (जनहित याचिकाएँ) दायर हुई हैं, उससे यूपी सरकार ज़बरदस्त दबाव में है। यही वजह है कि शनिवार तक 'एनकाउंटर ही अपराध का इलाज है' का 'नैरेटिव' खड़ा करने वाली योगी सरकार बैकफुट पर आकर विकास दुबे व उस सप्ताह हुए अन्य एनकाउंटरों की जाँच के लिए हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज के नेतृत्व में एक सदस्यीय 'जाँच आयोग' के गठन की घोषणा कर डालती है। 3 साल के अपने शासन के दौरान एनकाउंटरों में हुई सवा सौ से ज़्यादा मौतों को 'जायज़' ठहराने वाले मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के लिए आत्मरक्षार्थ रणनीति अपनाने का यह पहला मौक़ा है। कुर्सी पर बैठ कर 'ठोक दो' का नारा लगाने वाले मुख्यमंत्री की यह कारगुज़ारी कितनी न्यायोचित है, इस पर चर्चा करने से पहले उनसे जुड़े इतिहास की एक घटना पर ग़ौर किए जाने की ज़रूरत है।
“वह डर से थर-थर काँप रहे थे, जब तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष (सोमनाथ चटर्जी) ने दिलासा दिलाते हुए उन्हें बोलने को कहा। अपने अनुभव को सुनाते-सुनाते वह रो पड़े। रोते-रोते उन्होंने कहा ‘अध्यक्ष महोदय क्या हमारे साथ इंसाफ़ होगा? क्या यह सदन हमारी सुरक्षा का इंतज़ाम करेगा या हमारा हश्र भी सुनील महतो जैसा होगा? ('झारखण्ड मुक्ति मोर्चा' सांसद सुनील महतो की जमशेदपुर के निकट सप्ताह भर पहले ही हत्या हुई थी।) फूट-फूट कर रो पड़ने वाले तीसरी बार चुने गए सांसद योगी आदित्यनाथ थे...।” 'द हिन्दू' अख़बार आगे लिखता है “...मुलायमसिंह यादव सरकार ने उन्हें गोरखपुर में हिंसा और बलवा-दंगा आदि के गंभीर आरोपों में गिरफ्तार करके 28 जनवरी को जेल भेज दिया था। 11 दिन के बाद ज़मानत पर रिहा होकर वह सदन में पहुँचे थे। उनसे राज्य सरकार द्वारा दिए गए सुरक्षा गार्ड वापस ले लिए गए थे जिसके चलते वह बहुत डरे हुए थे।”
धीरेन्द्र के झा ने अपनी चर्चित किताब 'योगी आदित्यनाथ एंड द हिन्दू युवा वाहिनी' में लिखा है- “उनके इस तरह आँसू बहाने से उनके ठाकुर समर्थकों को बड़ा झटका लगा। इसे उन्होंने लड़ाकू क़ौम में पैदा हुए व्यक्ति के पौरुष की कमज़ोरी माना। बहरहाल, "हिन्दू युवा वाहिनी' के उनके समर्थकों ने उनकी इमेज सुधारने की नीयत से यह प्रचारित करने की कोशिश की कि वह बेहद संवेदनशील और भावुक हैं इसलिए रो पड़े थे! अनेक स्थानीय लोगों ने यद्यपि उन्हें डरपोक बताया जो सिर्फ़ भीड़ की हिंसा फ़ैलाने का उस्ताद है। बहरहाल, इस घटना से आदित्यनाथ की फ़ायरब्रांड नेता की इमेज और इसके चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश में उनकी गतिविधियों को गहरा धक्का लगा। कुछ समय के लिए 'हिन्दू युवा वाहिनी' शर्मिंदगी में डूबी रही और आदित्यनाथ ने मुसलामानों को गरियाना और भीड़ का नेतृत्व करना बंद कर दिया जिसके लिए वह मशहूर थे। बाद में हालाँकि हिंदू युवा वाहिनी सक्रिय हुई लेकिन योगी के भड़काऊ भाषण और प्रतीकात्मक विरोध बंद रहे।"
सत्ता संभालने के 3 महीने के भीतर (जून 2017) मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपने एक इंटरव्यू में एनकाउंटर की अपनी नीति पर 'इंडिया टीवी' से बड़े फ़ख्र से कहा- “अगर वे अपराध करेंगे, तो ठोक दिए जायेंगे।”
यह दीगर बात है कि इंटरव्यू लेने वाला टीवी पत्रकार उनसे यह पूछना भूल गया कि 2014 में लोकसभा के लिए नामांकन भरते समय अपने हलफनामें में आपने 15 मुक़दमों की अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है जिसमें हत्या की कोशिश और बलवा-दंगा करना जैसे गंभीर आरोप भी शामिल हैं। यदि आपकी पूर्ववर्ती राज्य सरकारों ने आपकी इस लाइन को आप पर भी लागू किया होता तो आज आप कहाँ होते?
अदालत क्या कहती है?
संविधान के अनुच्छेद 21 में साफ़- साफ़ लिखा है 'किसी भी व्यक्ति को क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं सकता।' ‘पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र सरकार’ के एक मामले में सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने बड़े साफ़ शब्दों में कहा था “यह न्यायालय उन पुलिस वालों की बारम्बार भर्त्सना करता है जो अपराधी को मारकर उसकी मौत को एनकाउंटर क़रार देकर बड़ा खुश होते हैं। ऐसे एनकाउंटरों की सख़्त निंदा होनी चाहिए। हमारा आपराधिक न्याय प्रबंधन सिस्टम इनके क़ानूनी होने की मान्यता नहीं दे सकता। यह राज्य प्रायोजित आतंकवाद के समकक्ष है।” इसी मामले में 'न्यायालय' ने 16 'गाइडलाइन' निर्धारित की थीं। इन दिशा-निर्देशों की अनुपालना कोई राज्य सरकार नहीं कर रही।
6 महीने का योगी निजाम पूरा होने पर (सितंबर 2017) यूपी पुलिस ने बड़े गर्व के साथ 420 एनकाउंटर में 15 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकार की थी। 2018 में राज्य पुलिस ने और भी अधिक गौरवान्वित होकर राज्य भर में लगाए गए बड़े-बड़े पोस्टरों में दावा किया कि उसने 1038 एनकाउंटर किये हैं जिसमें 32 लोग मारे गए।
योगी के शासन संभालने के पौने दो साल में 47 लोगों की मुठभेड़ में मौत हुई। योगी शासन के 3 साल पूरे होते-होते इन एनकाउंटरों की तादाद सवा सौ से ऊपर जा चुकी है।
एनकाउंटर से अपराध कम हुए?
इन सारे सच्चे-झूठे एनकाउंटरों के पीछे एक ही सिद्धांत परोसा गया- मुठभेड़ ही अपराध कम करने की एक मात्र कुंजी है। 'राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो' (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के ताज़ा आँकड़े योगी शासनकाल के 2017 की तुलना में 2018 में अपराध के ग्राफ़ को ऊपर जाता दिखाते हैं। यद्यपि अभी आँकड़े प्रकाशित नहीं हुए हैं लेकिन ब्यूरो सूत्रों के अनुमान के मुताबिक़ 2018 की तुलना में 2019 का यह ग्राफ़ कूद कर और भी ऊँचा जाने वाला है। 'एनसीआरबी' की रिपोर्ट योगी जी की 'अपराध कम करने की दिशा में एनकाउंटर का अमिट योगदान' विषयक थीसिस को खंडित करती है। यहाँ यह बताना भी कम दिलचस्प नहीं है कि योगी जी की पुलिस ने 'एनसीआरबी' की उक्त रिपोर्ट को 'ग़लत' क़रार दिया है। 'ब्यूरो के गठन से लेकर आज तक के उसके इतिहास में यह पहली बार ही हुआ है कि किसी राज्य की पुलिस ने इन आँकड़ों को 'चैलेंज' किया हो। यह बात तब खासतौर से और भी आश्चर्यजनक है जबकि दोनों जगह एक ही पार्टी की हुकूमत चल रही है।लखनऊ स्थित 'रिहाई मंच' के अध्यक्ष राजीव यादव बड़े पैमाने पर की गयी अपनी 'फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग रिपोर्ट्स' के अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुठभेड़ में मारे गए लोगों में 54% मुसलिम समुदाय से आते हैं। उनका कहना है- ‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मारे गए लोगों में कुछ अपवादों को छोड़कर सभी मुसलमान हैं। मध्य यूपी और पूर्वांचल में लेकिन मुसलामानों के अलावा बड़ी तादाद में दलित और ओबीसी समुदायों के लोग भी हैं। कानपुर की हाल की घटनायें पहला और अकेला अपर कास्ट सिंड्रोम है।’
सुप्रीम कोर्ट में पीयूसीएल की याचिका के दायर करने वाले और वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारीख का कहना है- ‘यद्यपि पीयूसीएल ने जाति और समुदायों के नज़रिए से मरने वालों का आँकड़ा नहीं जुटाया है लेकिन हमारा प्वाइंट यह है कि किसी भी एनकाउंटर में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है। हम ही नहीं, एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) भी यही कहता है...।’ 'सत्य हिंदी' से बातचीत में पारीख आगे कहते हैं ‘...सब जगह एक सी कहानियाँ सुनाई पड़ती हैं कि अभियुक्त पुलिस हिरासत से हथियार छीनकर भागने की कोशिश कर रहा था और पुलिस ने आत्मरक्षार्थ गोली चलाई जिसमें वह मारा गया। चाहे झूठा एनकाउंटर हो या सच्चा, हम ये सवाल उठा रहे हैं कि क़ानून किसी भी क़ीमत पर पुलिस एनकाउंटर की इजाज़त नहीं देता। यदि आपने सचमुच आत्मरक्षार्थ किसी को मारा है तो उसे भी आपको अदालत में साबित करना होगा।’
धर्म और जाति आधारित एनकाउंटर!
सवाल यह उठता है कि धर्म और जाति आधारित ये एनकाउंटर महज़ इत्तिफ़ाक़ हैं या इनके पीछे कोई अर्थशास्त्र भी काम कर रहा है? सालों-साल समाजवादी पार्टी के 'यादववाद' और बसपा के 'जाटववाद' के विरुद्ध नारे लगाने वाली बीजेपी के शासन काल का साल पूरा होते-होते उन्हीं के पार्टी जनों द्वारा अपने मुख्यमंत्री पर 'ठाकुरवाद' को प्रश्रय देने के आरोप लगने लगे। इन आरोपों को लगाने वालों में दलित और पिछड़े नेता और कार्यकर्ता शामिल हैं। दूसरा साल पूरा होते-होते विरोध का स्वर गुंजाने वालों में ब्राह्मण और अन्य सवर्ण तत्व शामिल हो गए। विकास दुबे और उसके साथियों के मारे जाने की निंदा जहाँ संविधान की मान्यताओं और मानवाधिकारों में आस्था रखने वाले लोग कर रहे हैं, योगी जी ऐसे विरोध और विरोधियों को अपने सिंगटठे पर रखते हैं, अलबत्ता इन घटनाओं को 'ब्राह्मणों पर हुए हमले' के रूप में प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों के प्रति उनकी पार्टी ख़ासी फिक्रमंद है।
योगी जी इस संभावित ख़तरों से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। कानपुर काण्ड के बाद अपने साथ उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य को मौक़ा-मुआयना के लिए ले जाना इन्हीं आरोपों से उपजी राजनीतिक मजबूरी थी अन्यथा आम तौर पर वह उन्हें 'घास' नहीं डालते।
हिन्दू युवा वाहिनी
जोड़-तोड़ के गुणा-भाग से बाहर निकल कर अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार पूरम्पूर बहुमत की सरकार बनाने के बाद बीजेपी का बड़ा साफ़-सुथरा एजेंडा था। उसे पता था कि 'सामाजिक परिवर्तन' की 3 दशक की धाराएँ अब ठिकाने लग चुकी हैं। वे अब सवर्ण हिंदूवाद की गंगा-यमुना-गोमती-घाघरा बहाने के लिए छुट्टमछुट्टा थे। धुर पश्चिम से लेकर पूर्वांचल तक बहुत खोजने पर उन्हें 24 कैरट हिन्दू नेता के रूप में सिर्फ़ योगी आदित्यनाथ ही नज़र आये। योगी के साथ मुश्किल इतनी थी कि वह पूर्वांचल में 'हिन्दू युवा वाहिनी' के रूप में एक समानांतर राजनीतिक दल चलाते थे और सन 96 से लेकर सन 2017 तक बीजेपी को अपने शर्तनामों पर 'क़बूल क़बूल क़बूल' बुलवाते रहते थे। समूचे पूर्वांचल में अपने ख़ेमे से बाहर के किसी भी नेता को उन्होंने पनपने नहीं दिया। शिवप्रताप शुक्ल जैसे प्रदेश के बड़े क़द्दावर नेता को उन्होंने गोरखपुर की राजनीति से 'ज़िलाबदर' किया। शुक्ल ने किसी तरह राज्यसभा में दाखिल होकर अपनी जान 'बचाई।' पहले मोदी मंत्रिमंडल में वह अरुण जेटली के साथ वित्त राज्य मंत्री थे लेकिन दूसरे मोदी मंत्रिमण्डल से वह बाहर थे। राजनीतिक हलकों में सरकार से उनका इस तरह वहिर्गमन ‘कर्ट्सी योगी' के रूप में देखा जाता है।
मुख्यमंत्री पद का 'अपॉइंटमेंट लेटर' देने से पहले अलबत्ता ज़रूर पहली बार आलाकमान ने उनके सामने आँखें तरेरीं। उनसे उनकी 'हिन्दू युवा वाहिनी' को निष्क्रिय बना देने को कहा गया। ज़ाहिर है मुख्यमंत्री पद के सामने वह 'हियुवा' का अचार डालते? उन्होंने ' निष्क्रिय' करने के आलाकमान के ‘छोटे- मोटे’ आदेश से चार क़दम और आगे कूदकर उसे भंग कर दिया।
इतना ही नहीं, 'वाहिनी' के पदाधिकारियों ने जब उनके इस एक्शन के विरुद्ध 'चूंचपड़' की तो उनमें से कइयों को उन्होंने जेल में डाल दिया। 'वाहिनी' के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सुनील कुमार बीती 18 जनवरी को सपा में शामिल हो गए।
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाकर उनके 'पर कतरने' की प्रक्रिया में आलाकमान एक के बाद एक उनकी इच्छा विरुद्ध फ़ैसले लेता चला गया। सीताराम जैसवाल को गोरखपुर का मेयर बना दिया गया। उनके द्वारा खाली की गई लोकसभा सीट पर 2018 में उपेंद्र शुक्ल को उप चुनाव लड़वाया गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भोजपुरी अभिनेता रविकिशन शुक्ला को योगी इच्छा के विरूद्ध टिकट दिया गया था। उनके मंत्रिमंडल में शामिल ज़्यादातर मंत्री उन पर 'थोपे' गए थे। मुख्यमंत्री बन जाने की उनकी स्थिति 'बेगानी शादी के उस दीवाने अब्दुल्ला' की सी हो गयी थी जिसकी न सरकार में कोई सुन रहा था, न पार्टी में।
योगी के तीन काम
पार्टी आलाकमान से मिलने वाली उपेक्षा को अपमान की घूँट समझ कर पी डालने और प्रदेश में लगातार उठते पार्टीजनों के प्रबल विरोध को दरकिनार करते हुए योगी जी सिर्फ़ 3 काम बड़ी तन्मयता से करते रहे- पहला, मैक्रो (विस्तृत) लेबल पर सवर्णवाद और माइक्रो (सूक्ष्म) लेबल पर ठाकुरवाद की पताका को मज़बूती से फ़हराते रहे, दूसरा, सख़्ती के साथ मुसलमानों, दलितों और कमज़ोर तबक़ों का दमन करते रहे और तीसरा, समय-समय पर अपने नज़दीकी नौकरशाहों से प्राप्त ज्ञान स्वरूप वह लोक लुभावन क्रियाकलापों से यूपी की धरती गुंजाते रहे।
मिसाल के तौर पर कोरोना के आँकड़ों पर कुण्डलिनी जमाए रख कर बीमारी पर नियंत्रण का यश लूटना, सीमित लॉकडाउन पीड़ितों में 6 किग्रा अनाज का बँटवारा, रजिस्टर्ड श्रमिकों के खाते में 1 हज़ार रुपए डलवाना, प्रवासी मज़दूरों के एक भाग को दिल्ली सीमा से बसों से उठवा लेना और कोटा से त्राहिमाम करते मिडल क्लास के बच्चों की वापसी का इंतज़ाम करना। उनके इन तीनों कामों से उनका आलाक़मान और पार्टी के भीतर के उनके प्रबल विरोधी, सभी हक्के-बक्के रह गए।
कैसी-कैसी मुठभेड़
‘रिहाई मंच' के राजीव यादव बताते हैं कि “निशाने के तौर पर उन मुसलिम और दलितों को चुना गया जो जेबकटी, चोरी आदि छोटे-मोटे अपराधों में संग्लन रहे थे। योगी राज के पहले ही 6 महीने में पश्चिम यूपी के 4 ज़िलों में हुई मुठभेड़ों में 14 लोग मारे गए। इनमें सब की एक ही कहानी- बाइक (या कार) से गुज़र रहे थे, पुलिस ने रोका तो फ़ायरिंग शुरू कर दी, जवाबी कार्रवाई में पुलिस गोलीबारी में मारे गए।' आज़मगढ़ के एक एनकाउंटर की अपनी फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग कमिटी की रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए राजीव मृतक के पिता शिवपूजन यादव द्वारा अध्यक्ष मानवाधिकार आयोग को मुठभेड़ के बाद भेजे गए पत्र की प्रतिलिपि दिखाते हैं जिसमें उन्होंने लिखा है कि 'घटना वाले दिन (3 अगस्त 2017) को सुबह 10 बजे वह अपने पुत्र जयहिंद यादव के साथ आज़मगढ़ जाने के लिए खड़ा था तभी आज़मगढ़ एसओजी पुलिस टीम तथा थाना मेंहनगर टीम आयी और बेटे को पकड़ कर ले गयी। दोपहर में गाँव के लड़कों ने मोबाइल के इंटरनेट पर देखा कि जयहिंद को रामघाट कुटी के नज़दीक मुठभेड़ में मार दिया गया।’ राजीव के पास इस तरह के दर्जनों मामलों का विवरण है।
पूर्व विधायक और कांग्रेस नेता डॉ. अनिल चौधरी 2017 की एक घटना का उल्लेख करते हैं। उस समय वह लोकदल की पश्चिमी यूपी के प्रमुख थे। ‘चौधरी साब (अजित सिंह) के आदेश पर मैं बेमन से बाग़पत की गूजरों की एक पंचायत में गया। मसला एक गूजर लड़के के एनकाउंटर का था। मुझे लगा कोई अपराधी होगा, अपराधी के मातम में क्या जाना। वहाँ पहुँचने से पहले लेकिन राह में पार्टी के नॉन गूजर पदाधिकारियों से मिलता-जुलता गया। वहाँ मुझे मालूम हुआ कि मृतक 17 साल का बड़ा सुंदर सा लड़का था जो गंभीरता से नोएडा में अपनी पढ़ाई कर रहा था। एक परिचित पुलिस अधिकारी ने भी स्वीकार किया कि स्थानीय पुलिस ने किसी ग़फ़लत में इस इनोसेंट को मार गिराया। कुछ बीजेपी के मित्रों ने भी माना कि यह बड़ी राजनीतिक भूल थी। मेरे लिए यह बड़े सदमे की बात थी।’
अपनी विरोधी जातियों के अपराधियों और माफियाओं को योगी सरकार यह संदेश दे रही है कि या तो हमारे राजनीतिक छाते की छाँव में आओ अन्यथा मरने के लिए तैयार हो जाओ। आगामी नवम्बर-दिसंबर में ग्राम से लेकर ज़िला पंचायतों के चुनाव संभावित हैं। एनकाउंटर का यह अर्थशास्त्र फ़िलहाल योगी जी को 'सूट 'करता है। प्रियंका या अखिलेश जितना हो हल्ला करें, चुनाव से पहले का धर्म और जाति का अंकगणित वह अपने खाते में ही गिनते जाएँगे। अलबत्ता एक अदद हौवा जो उन्हें डराता है, वह है कोर्ट का हौवा। मौजूदा एक सदस्यीय न्यायिक आयोग उसी हौवे से बचने का एक टोटका है।
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