उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में 28 अगस्त को दिनदहाड़े हुई डकैती में शामिल एक
आरोपी मंगेश यादव का पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया। डकैती के मुख्य आरोपी का नाटकीय ढंग से सरेंडर, तीन के पकड़े जाने और एक आरोपी के एनकाउंटर के बाद पूरे प्रकरण पर गंभीर सवाल
उठ रहे हैं। मंगेश के परिवार का आरोप है कि पुलिस उन्हें घर से उठा कर ले गई थी।
दो दिन कस्टडी में रखा और फिर मार दिया।
प्रदेश में जबसे भाजपा सरकार आई है, गर्वनेंस में एक 'गन कल्चर' शुरू हुआ है। इसे आप भाजपा का 'ठोंक दो' मॉडल कह सकते हैं। आप आए दिन मुख्यमंत्री के
मुंह से 'मिट्टी में मिला दूंगा' जैसे हिंसक और गैरकानूनी
जुमले सुन सकते हैं। इसका नतीजा प्रदेश में ताबड़तोड़ एनकाउंटर के रूप में सामने
है, जिस पर सवाल ही सवाल हैं।
20 मार्च 2017 से सितंबर 2024 के बीच एनकाउंटर में कुल 207
अपराधी मारे गए और 17 पुलिसकर्मियों की भी मौत हुई। लगभग सात सालों की इस अवधि में यूपी पुलिस ने कुल 12964 एनकाउंटर किए। यानी प्रदेश में हर दिन औसतन 5 से
ज्यादा एनकाउंटर की घटनाएं हो रही हैं और और औसतन हर 13 दिन में एनकाउंटर के
माध्यम से एक हत्या हो रही है।
अगर इन आंकड़ों को जातीय आधार पर देखें तो इनमें 67 मुस्लिम, 20 ब्राह्मण, 18 ठाकुर, 17 जाट और गुर्जर, 16 यादव, 14 दलित, 3 ट्राइब्स, 2 सिख, 8 अन्य ओबीसी और 42 अन्य जातियों के लोग शामिल हैं। इनमें लगभग 80% संख्या अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिमों और दलित पिछड़ों की है जो इस आरोप को बल देती है कि यूपी में जाति-धर्म के आधार पर, अमानवीय ढंग से राजनीतिक मकसद से एनकाउंटर किये जा रहे हैं।
सबसे बड़ा सवाल लगातार हो रहे एनकाउंटर के मकसद पर है। क्या इससे कानून
व्यवस्था बेहतर हुई है? एनकाउंटर का सीधा मतलब है कि अपराधी ने पुलिस
पर गोली चलाई और पुलिस ने जवाबी कार्रवाई की। आंकड़ों से स्पष्ट है कि हर दिन कम
से कम 5 मामलों में अपराधी पुलिस पर गोलियां चला रहे हैं और बदले में पुलिस
गोलियां चला रही है? इसी एक तथ्य से 'यूपी में अपराधी थर-थर
कांपते हैं' जैसे जुमलों और कानून-व्यवस्था की पोल खुल जाती
है।
दूसरे, अगर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े देखें तो अपहरण, हत्या, रेप और महिलाओं के खिलाफ अपराध और गैंगरेप के मामलों में भी यूपी देश में सबसे ऊपर है। हिरासत में मौतें और एनकाउंटर के मामलों में भी यूपी सबसे ऊपर है। इस शर्मनाम हालात से मुंह छुपाने के लिए यूपी के मुख्यमंत्री हर रोज 'ठोंक दूंगा', 'मिट्टी में मिला दूंगा', 'बुल्डोजर चलवा दूंगा' जैसे गैर-कानूनी बयान देते हैं।
कैसी विडंबना है कि देश के सबसे बड़े प्रदेश में बढ़ते अपराधों को नियंत्रित
करने के लिए वही तरीका अपनाया जा रहा है जो अपराधी अपनाते हैं। कभी इसके तह में
जाने की कोई बात नहीं होती कि आख़िर युवा अपराध की तरफ क्यों मुड़ रहे हैं? क्योंकि प्रदेश में भयंकर बेरोजगारी है। यूपी का सिस्टम बंद पड़ा है।
नेता-अधिकारी-ठेकेदार-दलाल गठजोड़ प्रदेश के संभावना पर ही कुंडली मारकर बैठा हुआ
है। शिक्षा का स्तर बदतर है। भविष्य की कोई आशा नहीं है और किसी के हाथ में कोई
काम नहीं है। एक गंभीर बीमारी, कोई दुर्घटना या शादी-विवाह का आयोजन जाने कितने
परिवारों को कर्ज और गरीबी के दुश्चक्र में धकेल देता है।
अगर तमिलनाडु जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्य से यूपी की तुलना करें तो जनसंख्या की दृष्टि से यूपी तीन गुना बड़ा राज्य है। लेकिन तमिलनाडु की सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) यूपी से ज्यादा है। वित्त वर्ष 2023-24 में यूपी की GSDP, 24.39 लाख करोड़ और तमिलनाडु की 28.3 लाख करोड़ है।
दो दशक पहले, 2004-2005 के आंकड़े देखें तो यूपी की
अर्थव्यवस्था का आकार तमिलनाडु की तुलना में 19 प्रतिशत ज्यादा था। यह स्थिति
2013-2014 तक बनी हुई थी। इसके बाद यूपी की अर्थव्यवस्था गिरनी शुरू हुई और आज
तमिलनाडु से पीछे है। सांख्यिकी मंत्रालय के अनुसार, 2023 में तमिलनाडु की
प्रति व्यक्ति आय 2 लाख 75 हजार रही, जबकि यूपी की प्रति
व्यक्ति आय मात्र 84 हजार रही।
इन तथ्यों से पता चलता है कि यूपी कहां खड़ा है। प्रदेश में जितने पारंपरिक व्यवसाय और उद्योग थे, मसलन- लकड़ी, होज़री, कपड़े, स्टील, चमड़ा, कांच, ताला, बुनकरी, हस्तशिल्प, बर्तन, आदि सब साल-दर-साल ढलान की ओर हैं। पिछले 30-40 सालों में आबादी के हिसाब से न तो उद्योग बढ़े, न नौकरियां-रोजगार बढ़े और न शिक्षा का स्तर बढ़ा। नोटबंदी और कोविड महामारी के दौरान जो नीतिनिर्मित आर्थिक तबाही आई, उससे यूपी भी अछूता नहीं रहा।
आज उत्तर प्रदेश आईटी, विनिर्माण या ऑटोमोबाइल का केंद्र होने की बजाय सस्ते
श्रम का कारख़ाना है जहां के मजदूरों की मार्मिक कथाएँ पूरे देश और दुनिया में
बिखरी हुई हैं। भविष्य के लिए कोई तैयारी नहीं की गई। न खेती किसानी में नवोन्मेष
लाया गया, न ही स्किल और गुणवत्ता बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया, न वस्तुओं के उत्पादन
पर। जाति-धर्म और दिखावे की चाशनी में लिपटी उप्र की राजनीति मूर्तियों, पार्कों,
मंदिरों-मस्जिदों और रिवरफ़्रंटो-कॉरिडोरों की सीमित दिखावटी सोच के आगे न जा सकी।
अपनी कुर्सी बचाने और येनकेनप्रकारेण अगला चुनाव भर जीत लेने की सोच ने यूपी के
भविष्य निर्माण की योजना पर ही ग्रहण लगा दिया। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि
पिछले तीस वर्षों में प्रदेश के अंदर लगभग 30 नई राजनीतिक
पार्टियों का तो गठन हुआ लेकिन वाक़ई ‘बड़ी’ कही जा सकने वाली एकमात्र आद्योगिक
इकाई का नहीं!
सवाल है कि यूपी के युवाओं को दृष्टिहीन, दिशाहीन राजनीति, और लगभग आपराधिक हो चुकी अराजक कानून-व्यवस्था से क्या मिल रहा है? छह साल में दस हजार से ज्यादा से एनकाउंटर करने वाली सरकार प्रदेश के युवाओं को छह लाख नौकरी भी नहीं दे पाई। जिस प्रदेश में युवाओं के पास कोई काम नहीं, कोई लक्ष्य नहीं, वे किधर जाएंगे? क्या यूपी के युवाओं के लिए भाजपा सरकार के पास कोई विजन है कि वह 25 करोड़ लोगों को कैसा भविष्य देना चाहती है?
धड़ाधड़ हो रहे एनकाउंटर का लक्ष्य असल में अपराध रोकना नहीं है। इसका लक्ष्य
एक खास तरह के सामाजिक, राजनीतिक और जातीय वर्चस्व को कायम करना है।
लेकिन सोचने की बात ये है कि कल को कोई दूसरा सत्ता में आए और राजनीतिक रतौंधी की
यह परिपाटी जारी रखते हुए बदले की कार्रवाई को ही नीति बना ले तो कितनी मांओं की
गोद फिर सूनी होंगी? बीजेपी के द्वारा ख़ास समूहों पर की जा रही अति
कल उनपर वापस भी सकती है – इसी को एक्शन का रिएक्शन कहा जाता है। वर्चस्व और
अहंकार की इस लड़ाई में पूरे प्रदेश को आग में झोंका जा रहा है। आज भी गरीब जनता शिकार बन रही है, कल भी इसके शिकार गरीब ही होंगे।
गर्वनेंस के 'गन कल्चर' और 'ठोंक दो' नीति से किसी समस्या का समाधान संभव नहीं है।
अपराध गोली चलाने से नहीं, कानून के इकबाल से रुकते हैं। यूपी में ‘गन’ का
नहीं कानून का शासन बहाल किए जाने की जरूरत है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं। वे जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं।)
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